चीन के आर्थिक विकास की रफ़्तार पहले ही धीमी हो चुकी थी, कोरोना महामारी ने इसे और सुस्त कर दिया। ऐसे में चीन में काम कर रही विदेशी कंपनियाँ समृद्धि की तलाश में बाहर जाने की सोच रही हैं और चीन से अपना कारोबार समेटने की योजना बना रही हैं।
पर इनमें से ज़्यादातर कंपनियाँ भारत की ओर रुख नहीं कर रही हैं। इन कंपनियों की पहली पसंद साम्यवादी देश वियतनाम है, उसके बाद वे थाईलैंड, ताइवान, सिंगापुर, इंडोनेशिया और फ़िलीपीन्स जैसे देशों की ओर रुख कर रही हैं।
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56 में 3 कंपनियों का रुख भारत की ओर
वित्तीय सेवा क्षेत्र की बहुत बड़ी जापानी कंपनी नोमुरा ने चीन छोड़ने का मन बना रही 56 कंपनियों का अध्ययन किया और पाया कि उनमें से सिर्फ 3 कंपनियाँ कारोबार समेट कर भारत आना चाहती हैं। इस अध्ययन में यह भी पता चला कि इनमें से 26 कंपनियाँ वियतनाम, 11 ताईवान और 8 थाईलैंड जाने की योजना बना रही हैं। भारत ताईवान को चीन का ही हिस्सा मानता है।दक्षिण चीन सागर में बसे वियतनाम की आबादी लगभग 10 करोड़ है, लेकिन उसकी अनुमानित जीडीपी वृद्धि दर 4.8 प्रतिशत है। वह चीन के नज़दीक है, उसकी शासन पद्धति और उसका समाज चीन से मिलता जुलता है। वह भी चीन की तरह ही साम्यवादी देश है।
अजीब विडबंना है कि घनघोर पूंजीवाद देश अमेरिका की ये कंपनियाँ एक साम्यवादी देश से दूसरे साम्यवादी देश जा रही हैं, पर लोकतांत्रिक देश भारत में उनकी दिलचस्पी उतनी अधिक नहीं है।
साम्यवादी देश, पूंजीवादी कंपनियाँ!
पर्यवेक्षकों का कहना है कि वियतनाम में लालफीताशाही बहुत ही कम कर दी गई है, ढाँचागत सुविधाएँ बेहतर हैं, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी सामाजिक चीजों में भी उसकी स्थिति भारत से बहुत बेहतर है।
भारत से बेहतर वियतनाम?
यह भी माना जाता है कि वियतनाम ने कौशल विकास पर अच्छा काम किया है और एक औसत वियतनामी मज़दूर औसत भारतीय मज़दूर से अधिक कुशल है, उसकी उत्पादन क्षमता अधिक है। 'ईज़ ऑफ़ डुइंग बिज़नेस इनडेक्स' में वह भारत से ऊपर है।भारत की तरह वियतनाम में भी आर्थिक सुधार 1990 के दशक में ही शुरू हुआ, उसने लगातार तीन दशक तक 6-7 प्रतिशत की गति से विकास दर बनाए रखी, जो भारत के आस-पास ही था। लेकिन पिछले कुछ सालों में उसकी विकास दर यकायक उछली, दूसरी ओर इस दौरान भारत की विकास गति लगातार कम होती गई।
भारत जहाँ नोटबंदी जैसे ग़ैरज़रूरी पचड़ों में पड़ कर आर्थिक विकास की दर को नीचे ले गया, वियतनाम की दर ऊपर ही होती गई। आज दोनों देशों के बीच बहुत बड़ा अंतर हो चुका है।
भारत बनाम वियतनाम
इसे थोड़ा डीकंस्ट्रक्ट कर मौजूदा वित्तीय वर्ष में समझते हैं। मौजूदा वित्तीय वर्ष के लिए भारत के विकास दर का अनुमान 0.2 प्रतिशत से 2 प्रतिशत तक लगाया गया है। कुछ महीने पहले तक भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार रहे अरविंद सुब्रमणियन ने मंगलवार को कहा कि भारत को निगेटिव ग्रोथ रेट के लिए तैयार रहना चाहिए।यानी, भारत इसके लिए तैयार रहे कि उसकी विकास दर शून्य से नीचे जा सकती है। दूसरी ओर एशियन डेवलपमेट बैंक ने कहा है कि इस साल वियतनाम की आर्थिक विकास दर 4.8 प्रतिशत होनी चाहिए।
वियतनाम की खूबी?
साम्यवादी वियतनाम की खूबी यह है कि एक बार सरकार के स्तर पर फ़ैसला हो जाने के बाद किसी परियोजना को व्यावहारिक स्तर पर विरोध का सामना नहीं करना होता है। स्थानीय निकायों से लकर केंद्रीय सरकार तक उसकी मदद करते हैं। वियतनाम के साथ दिक्क़त यह है कि वहाँ की न्याय व्यवस्था पारदर्शी नहीं है, लोगों को अंग्रेज़ी नहीं आती है।लेकिन भारत के साथ दूसरी दिक्क़तें हैं। यहाँ एक ही परियोजना के लिए स्थानीय स्तर से लेकर केंद्रीय स्तर तक कई जगह अड़चनों का सामना करना होता है। बहुत ही उलझी हुई अफ़सरशाही है, कई स्तरों पर भ्रष्टाचार है, ट्रेड यूनियन और श्रम क़ानून है।
भारत सरकार का दावा
केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने बीते दिनों खुले आम कहा कि कोरोना की वजह से चीन जिस तरह आर्थिक संकट में फँसा हुआ, भारत को उसका फ़ायदा उठाना चाहिए। चीन से कारोबार समेट रही कंपनियों को भारत ले आना चाहिए।लेकिन प्रसाद ने यह नहीं बताया कि उसके लिए सरकार क्या कदम उठा रही है। उन्होंने यह भी नहीं कहा कि कोरोना संकट शुरू होने के पहले भारत की विकास दर लगातार क्यों कम हो रही थी, आर्थिक बदहाली क्यों हो रही थी।
दरअसल कोरोना के पहले भारत सरकार यह मानने को तैयार ही नहीं थी कि आर्थिक स्थिति कमज़ोर हो रही है। वह अभी भी इससे निपटने के लिए कुछ नहीं कर रही है।
इसे समझने के लिए स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रुख पर ध्यान दिया जा सकता है। उन्होंने रविवार को 'मन की बात' कार्यक्रम में कह दिया कि आर्थिक स्थिति बहुत अधिक चिंता की बात नहीं है।ऐसे में यदि अमेरिकी कंपनियाँ चीन से कारोबार समेट कर भारत न आकर वियतनाम या थाईलैंड जाना चाहती हैं तो अचरज क्यों है?
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