एक ओर मणिपुर में जहां पिछले दो सालों से जातीय हिंसा और अशांति का साया गहराता जा रहा है, वहीं केंद्र सरकार ने 13 पुलिस थाना क्षेत्रों को छोड़कर पूरे राज्य में सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम यानी अफस्पा को छह महीने के लिए और बढ़ा दिया है। यह कदम 1 अप्रैल 2025 से प्रभावी होगा। लेकिन सवाल यह है कि आखिर अफस्पा को आगे बढ़ाने की ज़रूरत क्यों पड़ी? और इसे मणिपुर के अलावा कहां-कहां लागू किया गया है? इस फ़ैसले के पीछे की वजहों और इसके असर को समझने से पहले यह यह जान लें कि आख़िर यह अफस्पा है क्या और इस पर विवाद क्यों रहा है।
अफस्पा क्या है?
सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम यानी अफस्पा 1958 में बनाया गया एक कानून है, जो अशांत क्षेत्रों में सशस्त्र बलों को व्यापक अधिकार देता है। इसके तहत सेना और केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल बिना वारंट के तलाशी ले सकते हैं, गिरफ्तारी कर सकते हैं और जरूरत पड़ने पर गोली चला सकते हैं। साथ ही, केंद्र सरकार की मंजूरी के बिना इन बलों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती। इस कानून को शुरू में असम और मणिपुर में लागू किया गया था, लेकिन बाद में यह नॉर्थ-ईस्ट के अन्य राज्यों और जम्मू-कश्मीर में भी फैल गया। मणिपुर में यह 1980 के दशक से लागू है, हालांकि समय-समय पर कुछ क्षेत्रों से इसे हटाया भी गया है।
अफस्पा को मानवाधिकार संगठनों ने क्रूर कानून करार दिया है। मणिपुर में ही 1979 से 2012 के बीच 1,528 लोगों के कथित फर्जी एनकाउंटर में मारे जाने के आरोप लगे हैं। 2000 में मालोम नरसंहार में 10 नागरिक मारे गए थे, और 2004 में थंगजम मनोरमा की हत्या हुई थी। इन घटनाओं के बाद इस कानून के खिलाफ बड़े प्रदर्शन शुरू हुए। इरोम शर्मिला ने इसके खिलाफ 16 साल तक भूख हड़ताल भी की थी।
बहरहाल, केंद्र सरकार ने 30 मार्च, 2025 को जारी एक अधिसूचना में कहा कि मणिपुर में कानून-व्यवस्था की स्थिति की समीक्षा के बाद यह फ़ैसला लिया गया है। राज्य में मई 2023 से मणिपुर के मैतेई और कुकी-ज़ो समुदायों के बीच जारी हिंसा ने 250 से ज़्यादा लोगों की जान ले ली है और हजारों को बेघर कर दिया है। हाल के महीनों में हिंसा फिर से भड़क उठी है, खासकर जिरिबाम और इंफाल घाटी के आसपास के इलाकों में। 11 नवंबर को हुए हमले में 11 संदिग्ध उग्रवादियों के मारे जाने और छह नागरिकों के अपहरण की घटनाएं इस अशांति का सबूत हैं। गृह मंत्रालय का कहना है कि राज्य में हिंसा और उग्रवादी गतिविधियों के कारण स्थिति 'अशांत' बनी हुई है, जिसके चलते सशस्त्र बलों को विशेष अधिकार देने की ज़रूरत पड़ी।
लेकिन कुकी-ज़ो समुदाय की बहुलता वाले पहाड़ी जिलों में हिंसा और उग्रवाद का खतरा अभी भी बना हुआ है। सरकार का मानना है कि अफस्पा के बिना सुरक्षा बलों की कार्रवाई प्रभावित होगी, जिससे अशांति और बढ़ सकती है।
कहां-कहां लागू है अफस्पा?
मणिपुर के अलावा, अफस्पा को नगालैंड के आठ जिलों (दिमापुर, निउलैंड, चुमौकेदिमा, मोन, किफिरे, नोकलाक, फेक और पेरेन) और पांच अन्य जिलों के 21 पुलिस थाना क्षेत्रों में छह महीने के लिए बढ़ाया गया है। अरुणाचल प्रदेश में तिरप, चांगलांग और लोंगडिंग जिलों के साथ-साथ नामसाई जिले के तीन पुलिस थाना क्षेत्रों में भी यह लागू है। ये सभी इलाके नॉर्थ-ईस्ट में हैं, जहां उग्रवाद और सीमा सुरक्षा के मुद्दे लंबे समय से चिंता का विषय रहे हैं। इसके अलावा, जम्मू-कश्मीर में भी अफस्पा लागू है, हालांकि गृह मंत्री अमित शाह ने वहां से इसे हटाने पर विचार करने की बात कही है।
मणिपुर में अफस्पा का विस्तार एक तरफ सुरक्षा बलों की जरूरत को दिखाता है, जिसमें कहा जाता है कि इसके बिना उल्फा जैसे उग्रवादी समूहों के खिलाफ कार्रवाई मुश्किल होगी। सेना ने घाटी के और इलाकों में इसे लागू करने की मांग भी की थी। लेकिन दूसरी ओर, यह सवाल उठता है कि क्या यह कानून वाकई शांति ला सकता है, या यह लोगों में और गुस्सा भरेगा? सुप्रीम कोर्ट ने 2016 में कहा था कि अफस्पा के तहत अत्यधिक बल प्रयोग नहीं होना चाहिए और फर्जी एनकाउंटर की जांच जरूरी है।
मणिपुर में अफस्पा का विस्तार हिंसा को रोकने की कोशिश है, लेकिन यह स्थायी समाधान नहीं है। यह कानून सुरक्षा बलों को ताकत देता है, पर लोगों का भरोसा जीतने में नाकाम रहा है। नॉर्थ-ईस्ट में 70% इलाकों से इसे हटाने की बात हो रही है, लेकिन मणिपुर की जटिल स्थिति इसे मुश्किल बनाती है। क्या यह कदम शांति लाएगा, या विवाद को और हवा देगा?
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