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आख़िर राम जन्मभूमि-बाबरी मसजिद विवाद क्या था, जिसने पूरे देश की राजनीति को प्रभावित किया? यह जानना लाज़िमी है। क़ानून की भाषा में यह महज टाइटल सूट था, यानी ज़मीन के एक टुकड़े के स्वामित्व को लेकर विवाद थाऔर अदालत को यह फ़ैसला करना था कि इसका असली मालिक कौन है। लेकिन, इसे इससे बिल्कुल हट कर एक बहुत बड़ा विवाद बना दिया गया। यह भारत में दो सबसे बड़े समुदायों-हिन्दू और मुसलमान के बीच ध्रुवीकरण की मिसाल है। सदियों से साथ-साथ और मोटे तौर पर प्रेम से रहने वाले दो समुदाय ज़मीन के एक टुकड़े को लेकर इस तरह लड़ रहे हैं मानो यह मिल जाने से उनकी तमाम समस्याओं का समाधान हो जाएगा।
उत्तर प्रदेश के अयोध्या में इस जगह के बारे में कुछ हिन्दुओं की धारणा है कि यहाँ भगवान राम का जन्म हुआ था। लेकिन वहाँ एक मसजिद थी, जिसे मुग़ल बादशाह बाबर के सेनापति मीर बकी ने 1528 में बनवाया था। इसलिए इसका नाम बाबरी मसजिद रखा गया था। हिन्दुओं से जुड़े दक्षिणपंथी संगठनों का मानना है कि यह मसजिद वहाँ पहले से मौजूद राम मंदिर को तोड़ कर बनवाया गया था, हालाँकि इसे साबित करने के लिए अकाट्य साक्ष्य नहीं हैं। साल 1885 में निर्मोही अखाड़ा ने स्थानीय अदालत से माँग की कि हिन्दुओं को मसजिद के अंदर पूजा करने की इजाज़त दी जाए। कोर्ट ने इस याचिका को खारिज कर दिया।
1886 में फ़ैजाबाद की ज़िला अदालत के जज एफ़. ई. ए. चामियर ने कहा कि हिन्दुओं के पवित्र स्थान पर मसजिद बना देना दुर्भाग्यपूर्ण है, पर तीन सौ साल बीत जाने के बाद अब कुछ नहीं किया जा सकता है, बहित देर हो चुकी है। साफ़ था, स्थिति जैसी है, वैसी रहेगी और लोग उसे मान लें। सभी पक्षों के लोगों ने उसे मान भी लिया।
इसी फ़ैसले पर अगले कई दशक तक लोग चलते रहे। कई हिन्दू संगठन बने, कई याचिकाएँ दायर की गईं, पर मामला जस का तस बना रहा।
मुग़ल काल से चला आ रहा यह विवाद अंग्रेज़ी शासन से होता हुआ आज़ादी के बाद भी बना रहा। साल 1949 में एक नाटकीय घटनाक्रम में उस मसजिद में राम की बचपन की मूर्ति रख दी गई और मसजिद के मुअज्जिन को मार कर भगा दिया गया। यह दावा किया गया कि राम लला वहाँ प्रकट हुए हैं। ईश्वर के इस तरह प्रकट होने के दावे में कोई दम इसलिए भी नहीं है कि वहाँ मूर्ति रखने की वारदात का रेकर्ड है, वह इतिहास में दर्ज है।
राम जन्मभूमि स्थान पर मसजिद बनी रही और उसके अंदर राम की मूर्ति रखी रही। पूजा होती रही। कुल मिला कर उस विवादित स्थान पर हिन्दू और मुसलमान, दोनों ही समुदायों के लोगों का कब्जा बना रहा।
विश्व हिन्दू परिषद 1980 के दशक की शुरुआत में बहुत बड़ा संगठन नहीं था। इसके पास बहुत ही सीमित संसाधन और लोग थे। लेकिन 1983 में इसने कलश यात्रा निकाली, जिसका मक़सद गाँव-गाँव तक जाकर हिन्दुओं से ख़ुद को जोड़ना था। इसके तीन चरण थे। पहले चरण में नेपाल की राजधानी काठमांडू से भारत के दक्षिणी राज्य तमिलनाडु के रामेश्वरम तक 5,500 किलोमीटर की यात्रा निकाली गई थी। इसे पशुपति रथ कहा गया था। दूसरे चरण हरिद्वार से कन्याकुमारी तक महादेव रथ निकाला गया था। तीसरे चरण में गंगासागर से सोमनाथ तक कपिल रथ निकाला गया था।
बीजेपी ने इस मुद्दे को लपक लिया और राम मंदिर-बाबरी मसजिद की जगह पर भव्य राम मंदिर बनाने की बात शुरू कर दी। राम लाल को ‘आज़ाद’ कराने की बात कही गई, बाबरी मसजिद को ‘ग़ुलामी का प्रतीक’ बताया गया और उस प्रतीक को हटाने की बात कही गई।
ऐसा कई बार हुआ और हर बार लोग आते, कार सेवा करते और लौट जाते। लेकिन 6 दिसंबर 1992 को आए लोगों की भीड़ ने कारसेवा के नाम पर बीते 500 साल से मौजूद ऐतिहासिक मसजिद को गिरा दिया, उसकी जगह पर एक अस्थाई राम मंदिर बना दिया गया। बाबरी मसजिद गिराने की वारदात की जाँच के लिए 2002 में लिब्रहान आयोग का गठन हुआ, जिसने 17 साल बाद यानी 2019 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी। इस रिपोर्ट में बीजेपी के अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, कल्याण सिंह और प्रमोद महाजन को दोषी क़रार देते हुए उनकी भूमिका तय करने के लिए उन पर अलग से मुक़दमा चलाने को कहा गया। वाजपेयी और महाजन की मौत हो चुकी है।
यह मामला अदालत में तो पहले से ही था। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने सितंबर 2010 में इस पर फ़ैसला दिया और कहा कि विवादित स्थान पर कब्जा और उसके इस्तेमाल के हिसाब से इसे तीन भागों में बाँट दिया जाए। एस. यू. ख़ान, सुधीर अग्रवाल और डी. वी. शर्मा के खंडपीठ ने कहा कि विवादित ज़मीन को राम लला, निर्मोही अखाड़ा और केंद्रीय सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड में बराबर-बराबर बाँट दिया जाए।
यह फ़ैसला 2-1 से था, यानी एक जज बाकी दो जजों से असहमत थे। जस्टिस शर्मा इस बँटवारे के ख़िलाफ़ थे। उनका कहना था कि बाहरी परिसर पर हिन्दुओं का कब्जा रहा है और अंदरूनी परिसर में वे पूजा करते आए हैं। इस तरह पूरे परिसर पर ही हक़ बनता है। लिहाज़ा, पूरा परिसर हिन्दुओं को दे दिया जाए।
इस फ़ैसले से सभी पक्ष असंतुष्ट थे। लिहाज़ा, सबने अलग-अलग याचिकाएँ दायर कर इस निर्णय को चुनौती दी।
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