दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के साथ कब तक अन्याय होता रहेगा? कब उनके साथ सही में इंसाफ़ होगा? कब यह बहस ख़त्म होगी कि मेरिट सिर्फ़ ऊँची जातियों में ही होती है? कब सामाजिक असमानता का दौर ख़त्म होगा? कब उनकी हज़ारों साल की यंत्रणा सही में दूर होगी? इस ऐतिहासिक यंत्रणा और पिछड़ेपन को दूर करने के लिए ही संविधान में दलितों, आदिवासियों को सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण की बात संविधान सभा में की गई थी। लेकिन ऐसा लगता है कि देश में ऐसी व्यवस्था बन गई है कि तमाम कोशिशों के बाद भी उनको पूरा आरक्षण नहीं मिल पाता।
सुप्रीम कोर्ट की यू. यू. ललित और इंदिरा बनर्जी की बेंच ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस फ़ैसले को सही ठहराया है, जिसमें आरक्षण के ज़रिये नियुक्तियों के लिये सीटों की संख्या का आकलन विश्वविद्यालय के स्तर पर न होकर विभागीय स्तर पर होगा।
7 अप्रैल 2017 को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने यह आदेश जारी किया था। हाई कोर्ट के इस फ़ैसले को लागू करने के लिये 5 मार्च 2018 को यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन (यूजीसी) ने एक शासनादेश जारी किया। इस आदेश के निकलने के बाद देश भर के दलित, पिछड़े और आदिवासी काफ़ी ग़ुस्से में आ गये। हंगामा होने के बाद केंद्र सरकार को ग़लती का एहसास हुआ और उसने अप्रैल 2018 में यूजीसी के इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी और देश भर में यूजीसी फ़ॉर्मूले के हिसाब से नियुक्तियों पर रोक लगा दी।
- यहाँ सवाल यह उठता है कि सरकार ने इस मामले में पूरे एक साल क्यों लगा दिया? इलाहाबाद हाई कोर्ट का फ़ैसला अप्रैल 2017 में आया था। क्या सरकार को तब इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि हाई कोर्ट का फ़ैसला ग़लत है और इससे दलितों, पिछड़ो और आदिवासियों का हक़ मारा जाएगा?
क्या यूजीसी ने सरकार की नाफ़रमानी की?
सवाल यह भी उठता है कि क्या यूजीसी ने सरकार की जानकारी में लाए बिना ही विभागीय स्तर पर आरक्षण लागू करने का आदेश जारी कर दिया? यह एक अत्यंत नाज़ुक मसला था। इसको यूँ ही नहीं जारी किया गया होगा। मानव संसाधन मंत्रालय में इस पर गहन चर्चा हुई होगी। सलाह-मशविरा किया गया होगा और तब इस पर अमल करना तय किया गया होगा। यूजीसी का आदेश आते ही हंगामा हुआ। जब सरकार को लगा कि इससे दलित, पिछड़े और आदिवासी तबक़े में ग़लत संदेश जाएगा, सरकार की ग़लत छवि बनेगी तो फिर डैमेज कंट्रोल करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में विशेष याचिका दायर की गई। इस याचिका में मोदी सरकार ने माना कि अगर यूजीसी के आदेश के अनुसार नियुक्तियाँ होंगी तो आरक्षित तबक़े की सीटें कम होंगी और आरक्षण देने का पूरा तर्क ही धराशायी हो जाएगा। अब सवाल है कि क्या सरकार को यह ज्ञान देर से आया कि आरक्षण की सीटें कम होंगी?
क़ायदे से मोदी सरकार को इलाहाबाद हाई कोर्ट के फ़ैसले को लागू करने की जगह फ़ौरन सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देनी चाहिए थी और अदालत के फ़ैसले को रद्द करने की अपील करनी चाहिए थी। मोदी सरकार ने यह नहीं किया। इसने एक साल इंतज़ार किया और फिर यूजीसी का आदेश निकाला गया।
आदेश के बाद जब हंगामा हुआ और उसे लगा कि इससे बीजेपी को भारी राजनीतिक नुक़सान हो सकता है तब वह भागी-भागी सुप्रीम कोर्ट गई।
सरकार की मंशा क्या?
सरकार की मंशा इस बात से भी साफ़ है कि उसने हंगामा होने के बाद भी यूजीसी का आदेश वापस नहीं लिया। उसने सिर्फ़ नियुक्तियों पर रोक लगा दी। और सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का इंतज़ार करती रही। अगर उसे यह लगा था कि हाई कोर्ट के फ़ैसले के बाद आरक्षित सीटें घटेंगी तो पहले तो यूजीसी को आदेश जारी नहीं करना चाहिए था और अगर जारी कर दिया गया था तो भी हंगामे के बाद भी यूजीसी का आदेश वापस किया जाना चाहिए। सरकार यूजीसी की स्वायत्तता का रोना नहीं रो सकती। मोदी सरकार के लिए यह आदेश वापस कराना बायें हाथ का खेल था।
सीटों पर डाका कैसे? ऐसे समझें
यहाँ यह बताना दिलचस्प है कि सरकार यूजीसी के आदेश से बाद एक अध्यादेश लाने की भी सोच रही थी। इस बारे में अंतर-मंत्रालयी बैठक में सलाह-मशविरा भी हुआ था। वहाँ इस बारे में एक रिपोर्ट भी बनी थी। इस रिपोर्ट की जानकारी हैरतअंगेज़ थी। रिपोर्ट के मुताबिक़, यूजीसी के आदेश के बाद 11 विश्वविद्यालयों में कुल 706 पद रिक्त थे। यूजीसी के आदेश के बाद इन पदों की भर्ती के लिए अख़बारों में विज्ञापन दिए गए। इस में सिर्फ़ 18 सीटें दलितों के लिए आरक्षित की गयी थीं। यानी कुल विज्ञापित पदों का सिर्फ़ 2.5%, जबकि आरक्षण के हिसाब से पद आरक्षित होने चाहिए थे 15%। आदिवासियों को जिनके लिए 7.5% पद आरक्षित होनी चाहिए थी उनके लिए एक भी सीट आरक्षित नहीं की गयी। पिछड़ों के लिये कुल 27% सीटें आरक्षित होनी थी, उनके लिए सिर्फ़ 57 पदों का विज्ञापन जारी किया गया यानी कुल हिस्से का 8%। इसका साफ़ मतलब है कि यूजीसी के आदेश के बाद उच्च शिक्षण संस्थाओं में दलित, आदिवासी और पिछड़ों की भर्ती में भयानक कटौती होनी थी।
- इस रिपोर्ट से साफ़ है कि कुल 706 पदों में पहले के नियम के मुताबिक़ तक़रीबन 350 पद इस तबक़े को मिलते, क्योंकि दलित, पिछड़े और आदिवासियों को संविधान के मुताबिक़ कुल 49.5% आरक्षण मिला हुआ है। पर आँकड़ा क्या बना? सिर्फ़ 75 सीटें। यानी इस तबक़े की सीटों में से 275 सीटों का डाका डाला जाता। ये सीटें दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों से छीन ली जाती और किसको दी जाती यह मैं आपकी समझ के लिए छोड़ देता हूँ।
नाइंसाफ़ी किसके साथ?
क्या यह नाइंसाफ़ी मज़बूत सवर्ण जातियों के ख़िलाफ़ की जा सकती है? वी. पी. सिंह ने मंडल कमीशन लागू कर सवर्णों के हिस्से की 27% सीटें पिछड़ों को दी थी। पूरे देश में आग लग गई थी। देश भर में ख़ुद को जलाने का दौर शुरू हो गया था। ख़ुद वी. पी. सिंह का राजनीतिक करियर ख़त्म हो गया। वह वी. पी. सिंह जिसे देश मसीहा मानता था, सवर्ण जातियों के क्रोध में जल कर राख हो गए। उनको सुनने के लिए दिल्ली में 200 लोग नहीं जुटते थे और जब उनकी मृत्यु हुई तो छोटी-सी ख़बर छपी। यह इस देश का दुर्भाग्य है कि दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के हक़ पर डाका डाला जा सकता है और मेरिट का बहाना बना इस डाके को सही ठहराया जा सकता है। पर अब ये जातियाँ चेत गयी हैं लिहाज़ा अब ये कोशिशें कामयाब नहीं होंगी। पर अभी भी संघर्ष जारी है।
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