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हर आलोचना को अपराध माना गया तो लोकतंत्र बच नहीं पाएगा: SC

सरकार के किसी फ़ैसले से असहमत होना या उसकी आलोचना करना लोगों का अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट ने ही गुरुवार को यह फ़ैसला दिया है। इसने असहमति के अधिकार की पैरवी करते हुए कहा कि हर आलोचना अपराध नहीं है और अगर ऐसा सोचा गया तो लोकतंत्र बच नहीं पाएगा। शीर्ष अदालत ने यह भी कहा कि पुलिस को संविधान द्वारा दी गई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे में संवेदनशील होना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट ने यह फ़ैसला गुरुवार को तब दिया जब अनुच्छेद 370 को निरस्त करने की आलोचना करने वाले एक प्रोफेसर का मामला उसके सामने पहुँचा। प्रोफेसर के ख़िलाफ़ आपराधिक मामला तब दर्ज किया गया था जब उन्होंने व्हाट्सएप स्टेटस में अनुच्छेद 370 को रद्द किए जाने की आलोचना करते हुए जम्मू-कश्मीर के लिए 'काला दिन' बताया था। उनके खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 153ए (सांप्रदायिक वैमनस्य को बढ़ावा देना) के तहत दर्ज मामला दर्ज किया गया था।

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सुप्रीम कोर्ट ने इस मुक़दमे को रद्द करते हुए पुलिस के ख़िलाफ़ कड़ी टिप्पणी की। लाइल लॉ की रिपोर्ट के अनुसार सुप्रीम कोर्ट ने उस व्यक्ति के खिलाफ मामला खारिज करते हुए कहा, 'भारत के प्रत्येक नागरिक को अनुच्छेद 370 को निरस्त करने और जम्मू-कश्मीर की स्थिति में बदलाव की कार्रवाई की आलोचना करने का अधिकार है। जिस दिन रद्द किया गया उस दिन को 'काला दिवस' के रूप में कहना विरोध और पीड़ा की अभिव्यक्ति है। यदि सरकार के कार्यों की हर आलोचना या विरोध को धारा 153-ए के तहत अपराध माना जाएगा, तो लोकतंत्र जीवित नहीं रह पाएगा, जो भारत के संविधान की एक अनिवार्य विशेषता है।'

सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले से लोगों के असहमति के अधिकार की पुष्टि होती है। न्यायमूर्ति अभय एस ओका और न्यायमूर्ति उज्जल भुइयां की पीठ द्वारा सुनाया गया अदालत का फैसला असहमति और आलोचना व्यक्त करने के नागरिकों के मौलिक अधिकार पर जोर देता है।

अदालत ने कहा, 'अब समय आ गया है कि हमारी पुलिस मशीनरी को संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) द्वारा गारंटीकृत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की अवधारणा और उन पर उचित संयम की सीमाओं के बारे में शिक्षित किया जाए... उन्हें हमारे संविधान में निहित लोकतांत्रिक मूल्यों के बारे में संवेदनशील बनाया जाना चाहिए।'
यह मामला प्रोफेसर जावेद अहमद हजाम से जुड़ा था। उनके खिलाफ महाराष्ट्र पुलिस ने अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के संबंध में उनके व्हाट्सएप संदेशों के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 153 ए के तहत प्राथमिकी दर्ज की थी।

शिक्षकों और अभिभावकों के एक व्हाट्सएप ग्रुप में उन्होंने संदेश पोस्ट किया था, '5 अगस्त - काला दिन जम्मू और कश्मीर।', '14 अगस्त - स्वतंत्रता दिवस पाकिस्तान।'

बता दें कि बॉम्बे हाई कोर्ट ने पहले इस व्हाट्सएप स्टेटस पर उनके खिलाफ दर्ज एफआईआर को रद्द करने से इनकार कर दिया था। इसमें उन चिंताओं का हवाला दिया गया था कि संदेश विभिन्न समूहों के बीच वैमनस्य और दुर्भावना को बढ़ावा दे सकते हैं। हालाँकि, सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) द्वारा गारंटीकृत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की प्रधानता को मान्यता देते हुए एक अलग रुख अपनाया है।

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लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार प्रोफेसर के व्हाट्सएप स्टेटस मैसेज का विश्लेषण करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा, 'पहला बयान यह है कि 5 अगस्त जम्मू-कश्मीर के लिए एक काला दिन है। 5 अगस्त, 2019, वह दिन है जिस दिन भारत के संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त कर दिया गया था... स्पष्ट रूप से पढ़ने पर, अपीलकर्ता का इरादा भारत के संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त करने की कार्रवाई की आलोचना करना था। उन्होंने निरस्तीकरण की उस कार्यवाही पर रोष जताया है।'

अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि व्हाट्सएप स्टेटस ने असहमति व्यक्त करते हुए धर्म, नस्ल या अन्य आधार पर किसी विशिष्ट समूह को निशाना नहीं बनाया। अदालत ने कहा कि यह प्रोफेसर द्वारा एक 'साधारण विरोध' है।

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न्यायाधीशों ने कुछ 'कमजोर विचार' वाले लोगों के बजाय तार्किक लोगों पर असहमति की अभिव्यक्ति के प्रभाव पर विचार करने के महत्व पर भी जोर दिया। अदालत ने कहा- 'हम कमजोर और अस्थिर विचार वाले लोगों के मानकों को लागू नहीं कर सकते। हमारा देश 75 वर्षों से अधिक समय से एक लोकतांत्रिक गणराज्य रहा है। हमारे देश के लोग लोकतांत्रिक मूल्यों के महत्व को जानते हैं। इसलिए, यह निष्कर्ष निकालना संभव नहीं है कि ये शब्द विभिन्न धार्मिक समूहों के बीच वैमनस्य या शत्रुता, घृणा या दुर्भावना की भावनाओं को बढ़ावा देंगे। कसौटी यह नहीं है कि कमजोर विचार वाले या हर शत्रुतापूर्ण दृष्टिकोण में ख़तरा देखने वाले कुछ व्यक्तियों पर शब्दों का प्रभाव पड़ता है। पड़ताल तार्किक लोगों पर कथनों के सामान्य प्रभाव की है जो संख्या में महत्वपूर्ण हैं। केवल इसलिए कि कुछ व्यक्तियों में घृणा या दुर्भावना विकसित हो सकती है, यह आईपीसी की धारा 153-ए की उप-धारा (1) के खंड (ए) को लगाने के लिए पर्याप्त नहीं होगा।'

'पाक को बधाई देना सद्भावना, द्वेष नहीं'

पाकिस्तान के स्वतंत्रता दिवस का जश्न मनाने वाले एक दूसरे व्हाट्सएप संदेश के संबंध में अदालत ने उच्च न्यायालय के दृष्टिकोण की पुष्टि की कि इस कृत्य पर भारतीय दंड संहिता की धारा 153 ए के तहत दंडात्मक कार्रवाई नहीं होगी। इसमें इस बात पर जोर दिया गया कि नागरिकों को अन्य देशों को शुभकामनाएं देने का अधिकार है। कोर्ट ने कहा, "जहां तक तस्वीर में चांद और उसके नीचे '14 अगस्त-हैप्पी इंडिपेंडेंस डे पाकिस्तान' लिखा है, हमारा विचार है कि यह धारा 153-ए की उप-धारा (1) के खंड (ए) के तहत नहीं आएगा। प्रत्येक नागरिक को उनके स्वतंत्रता दिवस पर दूसरे देशों के नागरिकों को शुभकामनाएँ देने का अधिकार है। यह सद्भावना का संकेत है। ऐसे मामले में, यह नहीं कहा जा सकता कि इस तरह के कृत्यों से विभिन्न धार्मिक समूहों के बीच वैमनस्य या शत्रुता, घृणा या द्वेष की भावना पैदा होगी। अपीलकर्ता के इरादों को केवल इसलिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि वह एक विशेष धर्म से है।”

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क़मर वहीद नक़वी
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