सेबी प्रमुख माधबी पुरी
बुच 24 अक्टूबर को लोक लेखा समिति (PAC) के समन के बावजूद समिति के समक्ष
उपस्थित नहीं हुई। भारत के संसदीय इतिहास में यह एक शर्मनाक घटना के रूप में याद
किया जाने वाला है। संभवतया यह पहली बार हुआ है कि एक अधिकारी संसदीय समिति के
बुलाने पर उपस्थित न हुआ हो। इसे भारतीय संसदीय प्रणाली के अपमान के रूप में समझा
जाना चाहिए। सबसे पहले यह जानना ज़रूरी है कि PAC संसदीय
प्रणाली और जवाबदेही के लिए कितनी अहम संस्था है।
PAC का इतिहास 1921 से जुड़ा हुआ है जब भारत सरकार अधिनियम-1919 के तहत भारत में इसका पहली बार गठन किया गया। यह उन 3 वित्तीय समितियों में से एक है जिन्हें वित्तीय मामलों में सरकार और प्रशासन की जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए स्थापित किया गया है। इसके अतिरिक्त दो अन्य समितियाँ- प्राक्कलन समिति (EC)और सार्वजनिक उपक्रम समिति हैं।यद्यपि PAC का गठन हर साल लोकसभा के नियम 308 के तहत किया जाता है लेकिन वास्तव में यह अपनी शक्ति संविधान के अनुच्छेद-105 और अनुच्छेद-118 से प्राप्त करती है।
इस समिति का भारत के लिए महत्व और उपयोगिता इस बात से समझी जा सकती है कि जिस नियंत्रक और महालेखा परीक्षक(CAG) को डॉ भीम राव अंबेडकर "भारतीय संविधान का सबसे महत्वपूर्ण कार्यालय" कहते थे, जिसे उन्होंने "सार्वजनिक धन के प्रहरी" के रूप में समझा और संविधान में स्थापित किया उसकी जाँच के लिए जिस संसदीय समिति को संविधान में शक्ति स्रोत दिया, उसका नाम लोक लेखा समिति (PAC) है।
पीएसी जिसका अध्यक्ष इसीलिए विपक्ष से बनाया
जाता है ताकि ‘सरकार पर संसद के नियंत्रण’ को स्थापित किया जा सके, ताकि कार्यपालिका की मनमानी पर संसदीय
नियंत्रण लागू किया जा सके। इसका अर्थ भी साफ़ है कि इस समिति के कार्य में कोई भी
बाधा भारत की संसद को बाधित करने और उसके कार्यों में हस्तक्षेप के रूप में समझी
जानी चाहिए। सबसे अहम बात यह है कि संसद को बाधित करने की शक्ति भारतीय संविधान ने
न ही किसी व्यक्ति को प्रदान की है और न ही किसी संस्था को, फिर चाहे उस संस्था का नाम ‘भारत
का सर्वोच्च न्यायालय’ ही क्यों न हो।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि सेबी प्रमुख माधबी बुच को यह शक्ति कहाँ से प्राप्त हो गई कि वो समिति के समक्ष उपस्थित नहीं हुई? बुच को PAC का समन, उपस्थित होने की तारीख़ से 20 दिन पहले ही दिया जा चुका था। समिति ने उनके उस आग्रह को भी ठुकरा दिया दिया था जिसमें उन्होंने पेश न होने को लेकर अनुमति माँगी थी। उन्हें अच्छे से पता था कि आग्रह ठुकराए जाने के बाद अब उन्हें पेश होना ही होगा। लेकिन उन्होंने समिति के अपमान में कोई कसर नहीं छोड़ी।
बुच ने 24 अक्टूबर को सुबह 9:30 पर पत्र भिजवाया कि ‘व्यक्तिगत कारणों’ से वो समिति के सामने शामिल नहीं हो सकेंगी। उपलब्ध रिकॉर्ड्स के मुताबिक़ आज तक कोई भी व्यक्ति PAC के समन को दरकिनार नहीं कर सका है। और यही भारतीय संसदीय लोकतंत्र की मज़बूती का प्रतीक भी है। लेकिन यह प्रतीक अब धूमिल हो गया है।
सेबी
प्रमुख बुच की इतनी हिम्मत कैसे हुई, उन्हें
किसका समर्थन प्राप्त था नहीं पता है लेकिन यह सभी जानते हैं कि बुच को हिंडनबर्ग
रिपोर्ट के मामले में उपस्थित होने को कहा गया था। हिंडनबर्ग ने अपनी पहली
रिपोर्ट (24 जनवरी, 2023) में यह आरोप लगाया था कि अडानी समूह ने "शेयर मूल्यों में
हेराफेरी" की थी। इसके लिए सुप्रीम कोर्ट ने(2 मार्च,
2023) एक समिति बनाकर
सेबी से इसकी जाँच करने को कहा। लेकिन हिंडनबर्ग ने अपनी दूसरी रिपोर्ट (10 अगस्त, 2024) में कहा कि सेबी अध्यक्ष माधवी बुच के पास ऐसी संस्थाओं में
हिस्सेदारी थी, जिसका इस्तेमाल अडानी मनी साइफनिंग
घोटाले में किया गया था।अब यहीं से मामला और भी ज़्यादा गंभीर हो गया।
अब बात यह थी कि जिस संस्था को अडानी की जाँच करनी थी उसका चीफ़ यानि, माधबी बुच स्वयं अडानी की कंपनियों में हिस्सेदारी रखे हुए थीं।ऐसे में यह संभव नहीं था कि वो अडानी की निष्पक्ष जाँच कर पातीं। उनकी इस हिस्सेदारी की जाँच करने के लिए PAC ने उन्हें समन किया यह पता लगाने के लिए कि अडानी जिन पर तमाम वित्तीय आरोप लग रहे हैं, उनका और माधबी बुच का आपस में क्या संबंध हैं? यदि वित्तीय अनियमितता हुई है तो भारतीय धन और संस्थाओं के दुरुपयोग को रोका जा सकेगा । लेकिन बुच ने समिति के सामने न आने का विकल्प चुना।अडानी और भारत के प्रधानमंत्री के संबंधों को लेकर लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी पहले भी बहुत गंभीर आरोप लगा चुके हैं। ऐसे में संस्थाओं की शुचिता के लिए माधबी बुच का PAC के सामने आना आवश्यक था।
सबसे
ज़्यादा ताज्जुब की बात यह है कि सेबी जिसे एक स्वतंत्र निकाय के रूप में जाना जाता
है उसके चीफ़ को PAC के सामने बुलाये जाने के निर्णय के
ख़िलाफ़ समिति के बीजेपी सदस्यों ने आपत्ति क्यों की? क्या बीजेपी को लगता है कि बुच के PAC के सामने आने से अडानी-मोदी-बुच का कोई
संबंध सामने आ सकता है? क्या बीजेपी को लगता है कि सच में कोई
भ्रष्टचार हुआ है जिसके खुलने पर उनकी सरकार संकट में आ जाएगी? यदि ऐसा नहीं है तो उन्हें किसी भी
क़िस्म की पारदर्शिता का स्वागत करना चाहिए था, विशेषतया
जिसका संबंध संसदीय नियंत्रण से जुड़ा हो। लेकिन बीजेपी ने बेहद कमजोर तर्क देते
हुए कहा कि PAC का काम है कि वो CAG की रिपोर्ट की जाँच करे और CAG रिपोर्ट में सेबी का कहीं नाम नहीं है
इसलिए सेबी की जाँच नहीं की जानी चाहिए। यह एक कमजोर तर्क है।
संसदीय समितियों का दायरा किताबी नहीं होता क्योंकि उनका उद्देश्य संसदीय लोकतंत्र की स्थापना करने के लिए जवाबदेही को सुनिश्चित करना होता है। इसलिए जब मुरली मनोहर जोशी ने 2011 में 2जी स्पेक्ट्रम मामले की जांच के दौरान लोक लेखा समिति के अध्यक्ष रहते हुए सेबी और अन्य अधिकारियों को समन किया तब इसे ऐसे नहीं देखा गया जैसे बीजेपी आज देख रही है और न ही तब के सेबी चीफ अनुपस्थित रहने की हिम्मत जुटा सके थे।
थोड़ी देर के लिए बीजेपी का तर्क मान भी लें तो सवाल यह है कि उन्हें परेशानी क्या है? और डर किस बात का है? अगर सेबी प्रमुख समिति के सामने आ जायेंगी तो क्या पहाड़ टूट जाएगा? जब चुनी हुई सरकारों को राज्यपालों के माध्यम से अस्थिर किया जाता है तब कोई परेशानी नहीं होती लेकिन यदि भ्रष्टाचार के आरोप की जाँच के लिए संसदीय समिति ने किसी को बुला लिया तो बीजेपी को आपत्ति हो गई, क्या यह उचित है? लगभग यही सवाल लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष, राहुल गांधी ने उठाया। उन्होंने कहा कि "माधवी बुच संसद की लोक लेखा समिति (PAC) के समक्ष सवालों का जवाब देने में अनिच्छुक क्यों हैं?...उन्हें PAC के प्रति जवाबदेह होने से बचाने की योजना के पीछे कौन है?"
यहाँ सवाल किसी दल का नहीं है। सवाल है पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने का। PAC के वर्तमान अध्यक्ष के सी वेणुगोपाल सेबी चीफ़ को समन देकर अपना व्यक्तिगत हित नहीं साध रहे हैं बल्कि वो सरकारी संस्था के वित्तीय प्रबंधन की जाँच करनाचाहते हैं। ताकि जनहित सुनिश्चित किया जा सके।
अंबेडकर
का मानना था कि PAC सरकार के कार्यों का न केवल लेखा-जोखा
रखती है, बल्कि सरकारी धन के उचित और कुशल उपयोग
को भी सुनिश्चित करती है। इसके माध्यम से संसद, कार्यपालिका
पर नजर रख सकती है, जिससे वित्तीय अनुशासन और भ्रष्टाचार
नियंत्रण संभव होता है। उनके विचार में, PAC एक ऐसा मंच है जो सरकार के वित्तीय मामलों में जनता के हितों की
रक्षा करता है, और यह लोकतंत्र में शक्ति संतुलन का एक
महत्वपूर्ण हिस्सा है। इससे सरकार को जवाबदेही के लिए बाध्य किया जा सकता है।
प्रसिद्ध ब्रिटिश इतिहासकार और संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ प्रोफेसर पीटर हेनेसी लोक लेखा समिति को ‘सभी चयन समितियों की रानी’ कहते हैं। उनका मानना है कि यह सरकार के विभागों पर ‘शुद्धिकरण प्रभाव’ डालती है।लेकिन शायद वर्तमान सरकार, अपने किसी निजी हित के लिए संवैधानिक और विधाई संस्थाओं के दैनिक और नियमित पतन को आवश्यक मानती है। यह वाक़ई बहुत ख़तरनाक है, लोकतंत्र बचाये रखने के लिए इससे बचना चाहिए।
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