भारतीय संविधान के आर्किटेक्ट डॉ. बी. आर. आंबेडकर धर्म, क़ानून और राज्य के बीच के संबंधों को लेकर, सैद्धांतिक रूप से मान चुके थे कि "धर्म को निजी क्षेत्र तक सीमित कर दिया जाना चाहिए, और एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में क़ानून धर्म से ऊपर होना चाहिए। न्यायपालिका को धर्म के किसी भी प्रभाव से स्वतंत्र रूप से कार्य करना चाहिए ताकि कानून के समक्ष समानता सुनिश्चित हो सके।" लेकिन संभवतया वो आने वाले भारत को नहीं देख सके थे जहाँ संविधान के ‘अभिरक्षक’ सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश स्वयं इस सिद्धांत की अनदेखी करने वाला था।
क्या देश में धर्म और क़ानून का घालमेल हो रहा है?
- विचार
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- 25 Oct, 2024

क्या क़ानून को सभी धर्मों से ऊपर नहीं होना चाहिए? इसमें भी क्या कोई शक होना चाहिए? धर्म को आख़िर एक निजी विचार तक ही सीमित क्यों नहीं रखा जाता?
बीते दिनों भारत के मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ महाराष्ट्र में अपने पैतृक गाँव में एक अभिनंदन समारोह में शामिल हुए थे। निश्चित रूप से यह अभिनंदन व्यक्तिगत रूप से डी वाई चंद्रचूड़ का नहीं रहा होगा। इस अभिनंदन को छोटे से गाँव ने अपने उस बेटे के लिए आयोजित किया होगा जो मध्यम गति से आगे बढ़ते हुए भारतीय न्यायपालिका के शिखर पर जा पहुँचा था। यह अभिनंदन गाँव के गौरव की अभिव्यक्ति रहा होगा। यह गौरव भारतीय संविधान की वजह से है। वही संविधान जिसकी प्रस्तावना, संविधान का कोई भी पन्ना पलटने से पहले ही भारत के ‘धर्म-निरपेक्ष’, ‘समाजवादी’ ‘गणराज्य’ स्वरूप की घोषणा कर देता है। वही संविधान जिसकी प्रस्तावना शुरुआत में ही ‘समानता’ और ‘बंधुत्व’ के आदर्शों को स्पष्ट कर देना चाहता है और यह भी बता देना चाहता है कि किसी भी हालत में भारत की ‘एकता’ व अखंडता ‘अक्षुण्ण’ रखी जाएगी। किसी भी क़ानून के विद्यार्थी की तरह यह बात निश्चित ही वर्तमान सीजेआई को भी पता होगी। लेकिन उन्होंने अपने पैतृक गाँव जाकर जो कहा वह निश्चित ही संविधान की गरिमा के ख़िलाफ़ था। उनका कहना था कि जब राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद विवाद उनके सामने आया तो वो महीनों तक रास्ता निकालने की कोशिश करते रहे और फिर जब कुछ नहीं समझ आया तो इस मामले के हल के लिए ईश्वर से प्रार्थना की। उनका मानना था कि इससे रास्ता भी निकला।