हाशिए यानी कमजोर वर्ग के छात्र यदि विदेश से पढ़ाई करना चाहें तो क्या यह उनके लिए इतना आसान है? खासकर तब जब सालाना लाखों रुपये ख़र्च करने की हैसियत न हो तब? यदि आपका जवाब है कि स्कॉलरशिप से तो ऐसे छात्र पढ़ ही सकते हैं तो फिर से जवाब पर विचार करना चाहिए। क्योंकि स्कॉलरशिप इतनी आसानी से नहीं मिल पाती। आवेदन करने से लेकर स्कॉलरशिप मिलने तक का यह रास्ता कई दफ़्तरों और अधिकारियों से होकर जाता है। यानी यदि इन मुश्किल दौर को पार भी कर लिया तो क्या इसमें लगने वाले समय तक एडमिशन के लिए विश्वविद्यालय रुके रह सकते हैं?
स्कॉलरशिप के लिए आवेदन पोर्टल के खुलने का समय तय नहीं हो। कोई तय समय सारणी नहीं हो। पूरी प्रक्रिया ऑफ़लाइन हो। पंचायत, ब्लॉक और जिला स्तर पर भाग-दौड़ करने और दर्जनों दस्तावेज जमा करने के बाद यदि आवेदन मंजूर हुआ तो 4-5 महीने बाद स्कॉलरशिप मिलने पर क्या विदेश के विश्वविद्यालय इतने समय के लिए इंतज़ार कर सकते हैं? क्या किसी छात्र के लिए वे अपना सेमेस्टर देर से शुरू कर सकते हैं? नहीं न?
तो सवाल है कि आख़िर विदेश में पढ़ने के इच्छुक कमजोर वर्ग के छात्र क्या पढ़ पाएँगे? ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर पड़े समुदायों के कई छात्रों के लिए हार्वर्ड जैसे प्रतिष्ठित संस्थान में जगह पाना लगभग असंभव लगता है। यदि पढ़ने के लिए ऑफर भी आ जाए तो वहाँ की पढ़ाई और रहने-खाने के ख़र्च के लिए पैसे जुटाना मुश्किल हो जाता है। ऐसे में सरकार से मिलने वाली स्कॉलरशिप ऐसे हाशिए समूह से आने वाले छात्रों के लिए उम्मीद की एक किरण हो सकती है।
लेकिन क्या उम्मीद की यह किरण ऐसे छात्रों के जीवन में उजाला ला भी पाती है? क्या यह इतना आसान है? ऐसे ही एक छात्र हैं महाराष्ट्र के बुलढाणा जिले के 28 वर्षीय एकनाथ वाघ। एकलव्य इंडिया फाउंडेशन के फाउंडर राजू केंद्रे ने द हिंदू में लिखे एक लेख में कहा है कि पिछले 24 महीनों में एकनाथ को दुनिया भर के विश्वविद्यालयों से 25 से अधिक ऑफ़र लेटर मिले हैं, जिनमें से क़रीब सभी QS टॉप 100 रैंकिंग से हैं। इनमें लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स, एडिनबर्ग और हार्वर्ड यूनिवर्सिटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थान शामिल हैं। इन विश्वविद्यालयों से उन्हें शिक्षा नीति में मास्टर करने के लिए ऑफर मिला था।
राजू केंद्रे ने लिखा है, 'एकनाथ ने कठिन चयन प्रक्रिया को पार किया, वीज़ा हासिल किया और शुरुआती पैसे देने के लिए कर्ज भी लिया। उनका सेशन अगस्त 2024 में शुरू होना था।' वह कहते हैं कि सेशल अगस्त में ही शुरू होना था लेकिन उनका भविष्य छात्रवृत्ति निधि जारी करने के लिए ज़िम्मेदार एक नौकरशाही के सिस्टम के हाथों में फँस गया। सामाजिक न्याय मंत्रालय द्वारा दी जाने वाली राष्ट्रीय विदेशी छात्रवृत्ति के तहत खानाबदोश, अर्ध-खानाबदोश और अधिसूचित जनजातियों के लिए देश भर में मात्र छह छात्रवृत्तियाँ दी जाती हैं। केंद्रे ने सवाल उठाया है कि यह देखते हुए कि ये समुदाय भारत की आबादी का लगभग 10% हिस्सा हैं, केवल छह छात्रवृत्तियों का आवंटन बेहद ही कम लगता है।
उन्होंने लिखा है, 'आवेदन पोर्टल के खुलने का समय अनिश्चित था, कोई निश्चित समय-सारिणी नहीं थी, और पूरी प्रक्रिया ऑफ़लाइन थी। उनके मामले में हार्वर्ड में शामिल होने के लिए उनके निर्धारित समय से ठीक एक महीने पहले पोर्टल खुला। आवेदन प्रक्रिया अपने आप में धैर्य की एक कठिन परीक्षा थी, जिसमें कई जिला-स्तरीय सत्यापन, प्रभाग-स्तरीय अनुमोदन, नोटरीकृत सत्यापन जैसी प्रक्रिया थी। एकनाथ ने अपने परिवार के बारे में 60-70 दस्तावेज जमा कर दिए थे।'
एकनाथ को स्कॉलरशिप की मंजूरी आवेदन की समय सीमा के चार महीने बाद दिसंबर में ही आ पायी। इस वजह से उनके लिए अगस्त में अपनी पढ़ाई शुरू करना असंभव हो गया।
केंद्रे ने लिखा है कि भारत में छात्रवृत्तियों का संचालन अक्सर सामंतवादी लगता है, जैसे कि सरकार छात्रों को सफल होने में मदद करने के बजाय उन पर एहसान कर रही हो। छात्रों को लाखों की लागत वाले बॉन्ड के माध्यम से सरकार को एक तरह की गारंटी देनी होती है।
छात्रवृत्ति के लिए आवेदन करने के लिए पूरे परिवार की वार्षिक आय 8 लाख रुपये से कम होनी चाहिए। यह भी बड़ी बाधा उन लोगों के लिए होती है जिनकी आमदनी 8 लाख रुपये से कुछ ज़्यादा होती है। जब यूके या यूएसए में एक साल के मास्टर प्रोग्राम की लागत 30-40 लाख रुपये के बीच होती है, तो 10-15 लाख रुपये सालाना कमाने वाला परिवार शिक्षा का खर्च कैसे उठा सकता है? एकनाथ जैसे किसानों के बच्चों को भी आयकर रिटर्न भरना होगा, भले ही उनकी स्थिति पर छूट लागू हो। इन्हीं वजहों से हाशिए के समुदायों के छात्रों के लिए विदेश में अध्ययन करने के लिए भारत में सरकारी छात्रवृत्ति के लिए आवेदन करना अक्सर एक अवसर की तुलना में सजा की तरह लगता है।
अपनी राय बतायें