loader

समलैंगिक शादी: 'मूलभूत अधिकार पर संसद नहीं, कोर्ट दखल दे'

भारत में समलैंगिक विवाह के मुद्दे पर मंगलवार को भी सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई। याचिकाकर्ताओं की ओर से अदालत में वरिष्ठ अधिवक्ता मेनका गुरुस्वामी ने केंद्र के इस दावे का जोरदार विरोध किया कि समलैंगिक विवाह के मामले में क़ानून बनाने का अधिकार संसद के पास है। उन्होंने कहा कि यह मूल अधिकार से जुड़ा मामला है और यह संविधान का मामला बनता है। उन्होंने आगे कहा कि सुप्रीम कोर्ट को संविधान की व्याख्या का अधिकार दिया गया है और इसलिए वह यह तय कर सकता है कि मूल अधिकार से संसद छेड़छाड़ नहीं करे।

उन्होंने केंद्र सरकार के तर्क को लेकर कहा कि वे संसद के ब्रिटिश स्वरूप पर भरोसा कर रहे हैं, जबकि हमारी संसद संविधान के प्रति बाध्य है और संविधान की व्याख्या न्यायालय द्वारा की जाती है।

ताज़ा ख़बरें

गुरुस्वामी ने सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के समक्ष तर्क दिया कि कुछ बुनियादी अधिकार विधायिका या बहुमत के ऊपर नहीं छोड़ा जा सकता है। उन्होंने कहा कि इन अधिकारों को बहुमत के शासन की कवायद से अलग किया गया है।

लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार ये दलीलें तब दी गईं जब भारत के मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने भारत में समलैंगिक विवाहों को क़ानूनी मान्यता देने की मांग करने वाले याचिकाकर्ताओं को याद दिलाया कि संसद को विवाह और तलाक के विषय पर कानून बनाने का अधिकार है और इसलिए ऐसे मामलों में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप की गुंजाइश के बारे में उन्होंने जानना चाहा।

उन्होंने कहा, 'आप इस बात पर बहस नहीं कर सकते हैं कि संसद के पास इन याचिकाओं द्वारा कवर किए गए कैनवास में हस्तक्षेप करने की शक्तियां हैं। समवर्ती सूची की प्रविष्टि 5। यह विशेष रूप से विवाह और तलाक को कवर करती है। तो सवाल यह है कि वास्तव में कौन से हस्तक्षेप बाकी हैं जिनमें यह अदालत हस्तक्षेप कर सकती है। ...वास्तव में टेस्ट यही है कि अदालतें कहाँ तक जा सकती हैं?' 
देश से और ख़बरें

अमेरिका में विवाहित समलैंगिक जोड़े, जिसमें से एक व्यक्ति भारत में पैदा हुआ था, की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता गीता लूथरा ने 1969 के विदेशी विवाह अधिनियम का ज़िक्र किया। उन्होंने कहा कि क़रीब क़रीब दुनिया के सभी प्रगतिशील, लोकतांत्रिक देश समलैंगिक शादी को मान्यता देते हैं और हम पीछे नहीं रह सकते। उन्होंने कहा कि हम उन्हें अधिकारों से वंचित नहीं कर सकते। 

याचिकाकर्ताओं ने पहले भी तर्क दिया था कि पसंद के व्यक्ति से शादी करने का अधिकार अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संरक्षण) के तहत गारंटीकृत है और यह विवाह सामाजिक सुरक्षा का एक उपाय देता है।

marriage equality supreme court fundamental rights - Satya Hindi

दलीलें पेश किए जाने के दौरान सीजेआई ने कहा कि स्पेशल मैरिज एक्ट इंटरफेथ और इंटरकास्ट मैरिज के लिए एक फ्रेमवर्क मुहैया कराता है। उन्होंने साफ़ किया कि स्पेशल मैरिज एक्ट को एक अपवाद के रूप में बनाया गया था और यह धर्म के प्रति तटस्थ था। यह अंतर-धार्मिक और अंतर-जातीय विवाहों के लिए एक रूपरेखा तय करता था। उन्होंने आगे कहा कि 'जिस क्षण विशेष विवाह अधिनियम लागू होता है, आप अपने परिवार से बेदखल हो जाते हैं और सभी लाभ खो देते हैं। इसका एकमात्र अपवाद एसएमए की धारा 21 (ए) है, जो कहती है कि आपको परिवार से अलग नहीं किया जाएगा।'

इस पर गुरुस्वामी ने जवाब दिया कि एसएमए की धारा 21 (ए) विषमलैंगिक और समलैंगिक वाले जोड़ों दोनों पर समान रूप से लागू होनी चाहिए और इन दोनों समूहों को इसका लाभ उठाने का अधिकार होना चाहिए।

ख़ास ख़बरें

वरिष्ठ अधिवक्ता सौरभ किरपाल ने अनुच्छेद 14 (समानता) के उल्लंघन के परिणामों की व्याख्या करते हुए कहा कि इसका उत्तर संविधान के अनुच्छेद 13 में मिलता है, जो न्यायिक समीक्षा का प्रावधान करता है। उन्होंने कहा, 'अनुच्छेद 15 (भेदभाव के खिलाफ निषेध) के तहत यौन अभिविन्यास के आधार पर भेदभाव वैध नहीं है।' किरपाल ने कहा, 'आज जिस तरह से एसएमए चल रहा है, वह यह है कि कोई भी दो व्यक्ति तब तक शादी कर सकते हैं, जब तक वे विषमलैंगिक हैं।' उन्होंने कहा कि यह यौन अभिविन्यास के आधार पर साफ़ तौर पर भेदभाव है।

बता दें कि सुप्रीम कोर्ट में पिछली सुनवाइयों के दौरान याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता राजू रामचंद्रन ने गुरुवार को तर्क दिया था कि यदि अनुच्छेद 21 यानी जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संरक्षण के तहत पसंद के व्यक्ति से शादी करने का अधिकार दिया गया है तो मेरे मौलिक अधिकार का प्रयोग करने के लिए मुझे नोटिस देने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए। विशेष विवाह अधिनियम 1954 के तहत विवाह के लिए सार्वजनिक आपत्तियों को आमंत्रित करने के लिए अनिवार्य 30 दिन का नोटिस पीरियड होता है। 

इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि विशेष विवाह अधिनियम 1954 के तहत विवाह के लिए सार्वजनिक आपत्तियों को आमंत्रित करने के लिए अनिवार्य 30-दिवसीय नोटिस 'पितृसत्तात्मक' है। कोर्ट ने यह भी कहा था कि इससे समाज द्वारा आक्रमण किया जाना आसान हो जाता है। न्यायमूर्ति भट ने कहा कि नोटिस प्रणाली केवल पितृसत्ता पर आधारित थी और ये कानून तब बनाए गए थे जब महिलाओं के पास कोई एजेंसी नहीं थी। सीजेआई चंद्रचूड़ ने कहा कि इससे आक्रमण की राह आसान हो जाती है। 

 

सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
क़मर वहीद नक़वी
सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें

अपनी राय बतायें

देश से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें