कोरोना से बचने के लिए लगाए गए लॉकडाउन का मनोवैज्ञानिक असर बच्चों और किशोरों पर पड़ा है, इससे तो किसी को इनकार नहीं है, पर विशेषज्ञ यह देख कर परेशान हैं कि यह असर आशंकाओं से बहुत अधिक है।
बच्चों-किशोरों पर लॉकडाउन का असर दूरगामी हो सकता है, जिससे उनकी मानसिकता बदल सकती है, उनके पूरे जीवन पर इसका असर दिख सकता है। सबसे बुरी बात तो यह है कि उनमें कई तरह के मनोविकार देखने को मिल रहे हैं। और तो और, अभिभावक, शिक्षक और माता-पिता इसे पूरी तरह समझ भी नहीं पा रहे हैं।
इस विषय पर शोध व अध्ययन सिर्फ अमेरिका और ब्रिटेन ही नही, भारत में भी हुआ है और इन सब अध्ययनों का कुल मिला कर लब्बोलुबाव यह है कि लॉकडाउन बच्चों के पूरे जीवन को प्रभावित करने जा रहा है।
ब्रिटेन की संस्था 'मेन्टल हेल्थ फ़ाउडेशन' ने अपने शोध में पाया है कि कोरोना और लॉकडाउन की वजह से बच्चों में कई तरह के मनोविकार देखने को मिले हैं। उनमें 'पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (पीटीएसडी)' पाया गया है, यह देखा गया है कि जो बच्चे लंबे समय तक लॉकडाउन में रहे हैं, उनमें स्ट्रेस का स्तर दूसरे बच्चों के स्ट्रेस से चार गुणा अधिक है।
भारत और चीन में लॉकडाउन में पड़े बच्चों में भी यह पाया गया है। इन बच्चों में अवसाद और एंग्जाइटी के लक्षण पाए गए।
एकाकीपन
ब्रिटेन में अध्ययन से यह पता चला है कि कोरोना और लॉकडाउन के पहले किशोरों में तनाव का जो स्तर था, लॉकडाउन के बाद उससे बहुत अधिक स्तर का तनाव था। इसमें भी यह पाया गया है कि काले व एशियाई मूल के बच्चों में तनाव दूसरे बच्चों से अधिक था। सहपाठियों, दूसरे बच्चों और मित्रों के संपर्क में जो बच्चे रहे, उनमें तनाव कम पाया गया।
एकाकीपन पहले बुजुर्गो में अधिक पाया जाता था। पर लॉकडाउन के असर में आए बच्चों व किशोरों में यह ज्यादा देखा जा रहा है। अध्ययन से पता चला है कि 18 से 24 साल की उम्र के 50 प्रतिशत से अधिक लोगों में तनाव का स्तर सामान्य से बहुत ऊपर है।
भविष्य की चिंता
मेन्टल हेल्थ फ़ाउडेशन का कहना है कि स्कूली बच्चों में कोर्स पूरा करने, अच्छे नंबर लाने, परीक्षा पास करने से जुड़ी चिंताओं को लेकर तनाव बढ़ा है। कक्षा में नहीं बैठने और दूसरे बच्चो से नहीं मिलने से जुड़ी चिंताएं भी इस स्तर पर पाई गई हैं।
सेकंडरी स्कूल के बच्चो को भविष्य, करियर व आगे के कोर्स से जुड़ी चिंताएं सताती हैं तो हायर सेकंडरी स्तर के किशोरो में पैसे की चिंता ज्यादा परेशान करने वाली है।
इस उम्र के बच्चे अपने अभिभावकों व माता-पिता के स्वास्थ्य व उनकी स्थिति को लेकर अधिक परेशान पाए गए हैं। इसका कारण यह है कि उनके सामने उनके माता-पिता कोरोना से जूझ रह हैं या आर्थिक संकटों का सामना कर रहे हैं।
3-6 साल के बच्चों पर असर
विश्व स्वास्थ्य संगठन, अमेरिकन साइकिएट्रिक एसोसिएशन, ब्रिटेन के नेशनल हेल्थ सर्विस और भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय के आँकडों का अध्ययन व विश्लेषण कर एल्सवेयर पब्लिक हेल्थ इमर्जेंसी कलेक्शन में छपे शोध पत्र छापे गए हैं।इन शोध पत्रों के अनुसार, बच्चों पर लॉकडाउन का असर पड़ा है, यह तो साफ है, लेकिन अचरज की बात तो यह है कि तीन साल से 6 साल के बच्चों पर भी यह असर देखा गया है।
छह में से एक बच्चे में मानसिक विकास और भावनात्मक विकास की प्रक्रिया प्रभावित हुई है। लॉकडाउन में लंबे समय तक रहने वाले इन बच्चों में मनोविकास नहीं हुआ, वे सामान्य निर्देशों का पालन भी नहीं करते।
ग़रीब बच्चों पर दुहरी मार
भारत में हुए शोध से पता चला है कि ग़रीब बच्चों में लॉकडाउन के दूसरे किस्म के असर भी देखे गए हैं। भारत में क़रीब चार करोड़ बच्चे ऐसे हैं, जो ग़रीब घरों से हैं, उन्हें आर्थिक दिक्क़तों का सामना करना पड़ा और इससे उनके मनोविज्ञान पर अलग असर पड़ा।
लॉकडाउन के दौरान इन ग़रीब बच्चों के साथ दुर्व्यवहार, उनके शोषण की आशंका बढ़ गई। उनमें हताशा और निराशा बढ़ी। इनमें से कई बच्चों को खुद काम करना पड़ा और उनमें कुंठा की भावना घर कर गई।
डब्लूएचओ का अध्ययन
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2020 में हुए लॉकडाउन के दौरान इटली में बच्चों व माता-पिता पर अध्ययन कर रिपोर्ट दी और कहा कि माता-पिता ही नहीं, बच्चे भी लॉकडाउन से बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। इसने फरवरी-मार्च में इटली में हुए लॉकडाउन का अध्यययन किया। इसके मुताबिक स्कूल बंद होने, घर से बाहर निकलना बंद होने, खेल-कूद पर रोक लगने का बुरा असर पड़ा।
माता-पिता के साथ दिक्क़त यह थी कि वे चौबीसों घंटे पर रहे, ज़्यादातर लोगों ने घर से ही ऑफिस का काम किया, उन्हें अपने बुजुर्गों का ख्याल रखना पड़ा और कई लोगों को रिश्तेदारों की मौत का भी सामना करना पड़ा। इन सबका बच्चों पर मिला जुल असर काफी बुरा रहा।
बच्चों पर इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव हुआ। वे एकाकी हो गए, चुपचाप रहने लगे, उनका मानसिक संतलन गड़बड़ होने लगा और उनमें कई तरह के मनोवैज्ञानिक मनोविकार देखा गया।
अवसाद
यूरोपियन पेडिएट्रिक एसोसिएशन का कहना है कि इन बच्चो में डर, चिंता, अवसाद बढ़ गया, उनमें दूसरे तरह के मनोविकास विकसित होने लगे। वे पूरी तरह अभिभावकों पर निर्भर हो गए और अभिभावकों की अपनी समस्याएं थीं, इसका नतीजा यह हुआ ये बच्चे बिल्कुल बेसहारा की तरह व्यवहार करने लगे।
किशोरों व बच्चों के साथ दिक्क़त यह है कि जिस उम्र में उनका मानसिक विकास तेज़ी से होता है, उसी उम्र में उन्हें कोरोना के कारण कई तरह की मानसिक समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है और यह अधिक चिंता की बात है।
इस समय कई तरह के अहम हार्मोनल बदलाव होते हैं, जिनका असर ज़िन्दगी भर रहता है।
कैंब्रिज विश्वविद्यालय की प्रोफेसर सारा जेन ब्लेकमोर ने 'बीबीसी' से कहा कि लॉकडाउन की वजह से ज़्यादातर बच्चे दूसरों के संपर्क में नहीं हैं, जिसका असर उनके मानसिक विकास पर पड़ेगा। एक दूसरे शोध में देखा गया है कि जो बच्चे इंस्टाग्राम या सोशल मीडिया के दूसरे माध्यमों से दूसरे बच्चों के संपर्क में रहे, उन पर लॉकडाउन का कम असर पड़ा।
ब्रिटेन के कई शिशु रोग विशेषज्ञों ने शिक्षा मंत्री ने गेविन विलियमसन को चिट्ठी लिख कर कहा था कि वे जल्द से जल्द स्कूल खुलवाने व लॉकडाउन में छूट दिलवाने की व्यवस्था करें।
ब्रिटेन के ही नॉटिंगम विश्वविद्यालय की प्रोफेसर एलन टाउनसेन्ड ने 'बीबीसी' से कहा कि बच्चों पर सबसे ज़्यादा असर उनके एकाकीपन का पड़ रहा है। वे सबसे अलग-थलग पड़ गए हैं, जो बहुत ही बुरा है क्योंकि इसके बेहद बुरे दूरगामी असर होंगे। उन्होंने इस पर चिंता जताते हुए कहा कि 19 साल से कम उम्र तक के लोगों में आत्महत्या की वारदात भी देखी जा रही है, जो निश्चित रूप से मनोवैज्ञानिक कारणों से है।
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