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जस्टिस खानविलकर के कुछ फैसले इंसाफ के तराजू पर

सुप्रीम कोर्ट के तमाम फैसलों पर देश में सवाल हो रहे हैं। 17 राजनीतिक दलों ने जिस तरह बुधवार को मात्र एक फैसले को खतरनाक घोषित किया, लेकिन कुछ अन्य फैसलों को नजरन्दाज किया, उस पर भी देश में बात होनी चाहिए, चर्चा होनी चाहिए और सवाल पूछे जाने चाहिए।

Justice Khanwilkar and his some supreme decisions - Satya Hindi
विपक्ष ने बुधवार को जिस फैसले को खतरनाक बताया, उस फैसले को सुप्रीम कोर्ट के सीनियर जज खानविलकर की बेंच ने सुनाया था। जस्टिस खानविलकर के कुछ फैसलों पर हम यहां बात करेंगे। खानविलकर पर इसलिए बात करना है कि कैसे एक जज का दर्शन (फिलॉसफी) किसी मामले का नतीजा बदल देता है और देश के विपक्षी दलों को उस फैसले को खतरनाक बताना पड़ता है।
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जस्टिस अजय माणिक राव खानविलकर उनका पूरा नाम है। खानविलकर की बेंच ने जब पिछले हफ्ते प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) की अनियंत्रित जांच शक्तियों को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर फैसला सुनाया था, तो देश के सीनियर वकीलों और टिप्पणीकारों को आश्चर्य नहीं हुआ। उन्हें अंदाजा था। खानविलकर के नेतृत्व वाली बेंच ने पूरी तरह से जांच एजेंसी के पक्ष में फैसला सुनाया। एजेंसी की निरंकुशता पर अदालत की मुहर लग गई।

जस्टिस खानविलकर की बेंच का यह फैसला उनके रिटायरमेंट से ठीक दो दिन पहले आया था। इस फैसले में वही एक निश्चित पैटर्न था, जिस पैटर्न के तहत उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में बिताए पिछले छह वर्षों में कई फैसले दिए। अगर इस बात को एक लाइन में बताना हो तो आधार (Aadhaar) के बारे में गोपनीयता की चिंताओं को खारिज करने से लेकर जमानत को मुश्किल बनाने तक, स्टेट की पावर और नागरिकों की आजादी के बीच विकल्प के मुद्दे पर जस्टिस खानविलकर ने लगातार राज्य (स्टेट या सरकार) का पक्ष लिया है। सुप्रीम कोर्ट को जनता के बीच जिस तरह आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा, उनके फैसलों का उसमें बड़ा योगदान है। उनके फैसले केंद्र सरकार पर एक नियंत्रण के रूप में काम करने में नाकाम रहे।

ईडी को ज्यादा पावरः जस्टिस खानविलकर की बेंच ने पिछले हफ्ते धन शोधन निवारण अधिनियम यानी पीएमएलए की कई विवादास्पद धाराओं और ईडी की व्यापक जांच शक्तियों की संवैधानिकता को बरकरार रखते हुए निर्णय दिया। इस आपराधिक कानून में कई बुनियादी सिद्धांतों का पालन करने में विफल रहने के लिए करीब 250 से अधिक याचिकाकर्ताओं द्वारा कानून को चुनौती दी गई थी: मसलन आरोपी व्यक्ति को फैसला आने से पहले दोषी मान लेना, ऐसे मामलों में जमानत के प्रावधान लगभग असंभव है। ईडी को यह पावर भी मिल गई कि वो किसी की औपचारिक शिकायत के बिना संपत्ति की तलाशी और जब्ती कर सकता है। जस्टिस खानविलकर की बेंच ने जब यह फैसला सुनाया तो उसी समय ये आरोप लगे कि मोदी सरकार विपक्षी नेताओं को निशाना बनाने के लिए इस कानून को राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रही है।
जस्टिस खानविलकर के फैसले ने एक कठोर कानून को मंजूरी देते हुए उस कानून को पूरी तरह से बरकरार रखा। ईडी को ज्यादा पावर मिल गई। ईडी अब सबसे ज्यादा राजनीतिक लोगों या सरकार को चुभने वाले लोगों को चुन-चुन कर निशाना बना रहा है। 17 राजनीतिक दलों ने बुधवार को इसीलिए इस फैसले को खतरनाक घोषित करते हुए नामंजूर कर दिया। यह ऐतिहासिक है। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के किसी फैसले का इस तरह विरोध विपक्ष ने एकजुट होकर पहली बार किया है। काश, वो पहले ही जाग जाते।

जमानत को असंभव बनाया

इससे पहले, अप्रैल 2019 में, दो जजों की बेंच का नेतृत्व करते हुए, उन्होंने एक फैसला लिखा, जिसने भारत में राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ अक्सर इस्तेमाल किए जाने वाले एक आतंकी कानून, गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के तहत जमानत प्राप्त करना लगभग असंभव बना दिया। आसान भाषा में इस कानून को यूएपीए कहा जाता है। उन्होंने माना कि गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के मामलों में जमानत पर फैसला सुनाते समय अदालतें सरकारी पक्ष के सबूतों की गंभीर जांच नहीं कर सकती हैं। जमानत पर निर्णय लेते समय, अदालत को इसके बजाय एक व्यापक मूल्यांकन करने की आवश्यकता होती है कि क्या किसी आरोपी व्यक्ति के खिलाफ आरोप प्रथम दृष्टया सच हैं। यानी जज साहब को अगर यह लग गया कि फलाना जरूर आतंकी गतिविधि में शामिल रहा होगा तो फिर उसकी जमानत नामुमकिन कर दी गई। सारी बहसें एक तरफ, भले ही अभियोजन पक्ष के पास सबूत तक न हों।

इस फैसले की आलोचना करने वालों ने पाया कि इस फैसले ने एक नया सिद्धांत बनाया और व्यावहारिक रूप से यह तय कर दिया गया कि एक आरोपी को पूरे मुकदमे की सुनवाई के दौरान हिरासत में रहना चाहिए, भले ही उस व्यक्ति के खिलाफ सबूत अस्वीकार्य थे। उमर खालिद, खालिद सैफी, इशरतजहां, शरजील इमाम, समेत असंख्य लोगों पर यूएपीए लगा है और उनकी जमानत हर बार रिजेक्ट हो जाती है। पत्रकार मोहम्मद जुबैर के केस में मीडिया का दबाव नहीं होता तो उनकी जमानत भी नहीं हो पाती।

तीस्ता सीतलवाड़ क्या विलेन हैं

यह फैसला तो गजब ही था। जिन लोगों ने गुजरात दंगों को अदालत में चुनौती दी, उन्हीं याचिकाकर्ताओं को जस्टिस खानविलकर की बेंच के फैसले के आधार पर गिरफ्तार कर लिया गया। सुप्रीम कोर्ट या जस्टिस खानविलकर के इस फैसले ने स्टेट या सरकार की शक्तियों का विस्तार किया, मजबूत किया और यह ध्वनि गई कि सरकार के सही-गलत फैसलों को अदालत में चुनौती देने वालों का यही अंजाम होगा। जस्टिस खानविलकर की बेंच ने नागरिकों को केवल राज्य को जिम्मेदार ठहराने के प्रयास के लिए दंडित किया है।

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तीस्ता सीतलवाड़
24 जून को उन्होंने फैसला लिखा, जिसमें उन्होंने 2002 के गुजरात दंगों के संबंध में नरेंद्र मोदी को दी गई क्लीन चिट पर सवाल उठाने वाली एक याचिका को खारिज कर दिया, जब मोदी राज्य के मुख्यमंत्री थे। फैसले ने याचिकाकर्ताओं के अदालत जाने की मंशा पर सवाल खड़े किए और लिखा कि उन्हें "कठोर दंड" मिलना चाहिए।

इस फैसले के ठीक एक दिन बाद ही गुजरात पुलिस ने इसी फैसले का हवाला देते हुए एफआईआर दर्ज की और जानी-मानी सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ और गुजरात के पूर्व पुलिस महानिदेशक आरबी श्रीकुमार को गिरफ्तार कर लिया। देश के लोग इस फैसले पर की गई कार्रवाई से स्तब्ध रह गए। तमाम पूर्व पुलिस अधिकारियों तक ने इस पर टिप्पणियां कीं और अदालत के फैसले के आधार पर कार्रवाई को गलत बताया।

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हिमांशु कुमार, सामाजिक कार्यकर्ता

हिमांशु कुमार का कसूर क्या है

14 जुलाई को, खानविलकर और जस्टिस जे.बी. पारदीवाला ने छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में 17 आदिवासियों की हत्याओं की जांच की मांग वाली याचिका को खारिज करते हुए फैसला सुनाया। याचिकाकर्ताओं ने आरोप लगाया था कि हत्याओं के पीछे सुरक्षा बलों का हाथ है।

यहां भी इसी कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं को सजा दी। इसने कहा कि सुरक्षा बलों पर संदेह करने के लिए कोई सबूत नहीं है और सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार पर 5 लाख रुपये का जुर्माना लगाया। इसने यह भी कहा कि जांच एजेंसियां उन लोगों की पहचान करने और उन्हें दंडित करने के लिए एक जांच शुरू कर सकती हैं जिन्होंने यह साजिश रची थी ...(यानी याचिका दायर करने के लिए गढ़े हुए सबूतों के लिए)।
भीमा कोरेगांव याद है क्या: जस्टिस खानविलकर ने कई फैसलों में स्टेट यानी सरकार से लड़ने वाले नागरिकों की जांच का आदेश दिया, तो दूसरी तरफ सरकार के कार्यों की जांच के लिए जांच के अनुरोधों को नामंजूर कर दिया। सितंबर 2018 में, उन्होंने महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव में 2018 की हिंसा के संबंध में कई कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी की स्वतंत्र जांच से इनकार करते हुए बहुमत का निर्णय लिखा। इसी बेंच के एक अन्य जज, जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ ने असहमतिपूर्ण राय देते हुए कहा कि मामले में पुणे पुलिस के आचरण ने इसकी निष्पक्षता पर संदेह पैदा किया है।

...और जस्टिस लोया

 खानविलकर उस बेंच का भी हिस्सा थे जिसने सोहराबुद्दीन शेख मुठभेड़ मामले की अध्यक्षता कर रहे जज बी. एच. लोया की मौत की जांच के लिए दायर याचिकाओं को खारिज कर दिया था, जिसमें केंद्रीय मंत्री अमित शाह मुख्य आरोपी थे। जस्टिस लाया का बाद में निधन हो गया। लेकिन उस मौत पर भी काफी विवाद हुआ।

एनजीओ पर शिकंजा

2014 में जब केंद्र में बीजेपी सरकार आई तो उसका नजरिया तमाम एनजीओ के प्रति अच्छा नहीं था। उसने तरह-तरह के कानून बनाकर इन पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मशहूर एमनेस्टी जैसी संस्था के दफ्तर पर छापे पड़े, उनका दफ्तर बंद हो गया। राष्ट्रीय से लेकर अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संस्थाओं के लिए इतना बुरा कभी नहीं आया।

इन परिवर्तनों के लिए संगठनों को भारतीय स्टेट बैंक की एक विशिष्ट शाखा के साथ अनिवार्य रूप से खाता खोलने की जरूरत थी। उन्हें ग्रांट लेने से मना किया गया। इस बात पर रोक लगा दी गई वे बाहर से पैसे कैसे जुटा सकते हैं और उनका उपयोग कर सकते हैं। कई टिप्पणीकारों ने नागरिकों के मौलिक अधिकारों को असमान रूप से प्रभावित करने के लिए इस फैसले की आलोचना की।

तीन कृषि कानूनों का केस देखिए

अक्टूबर 2021 में केंद्र द्वारा पारित तीन कृषि कानूनों के विरोध में अनुमति मांगने वाली एक याचिका पर निर्णय लेते हुए, दो जजों की पीठ की अध्यक्षता करते हुए, खानविलकर ने याचिकाकर्ताओं को विरोध करने के लिए फटकार लगाई। फिर, उन्होंने आदेश दिया कि अदालत तय करेगी कि क्या नागरिक उन विषयों पर विरोध कर सकते हैं जिनमें मामले पहले से ही लंबित हैं। विरोध करने के लोकतांत्रिक अधिकार को प्रतिबंधित करने के प्रयास के लिए इस आदेश की व्यापक रूप से आलोचना की गई थी।
आधार पर क्या किया थाः जस्टिस खानविलकर के फैसलों ने कई विवादास्पद सरकारी योजनाओं को भी अदालत की सहमति दी। 2018 में, वह उस बेंच का हिस्सा थे जिसने आधार की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा। उनकी बेंच ने उस समय कहा था कि आधार निजता के अधिकार का उल्लंघन नहीं करता है। इसने सरकार को सब्सिडी और लाभों के लिए आधार को अनिवार्य करने की भी अनुमति दी। यहां भी जस्टिस चंद्रचूड़ ने आधार को असंवैधानिक बताते हुए असहमतिपूर्ण फैसला सुनाया था। बाद में तमाम रिपोर्टें आईं जिनमें बताया गया कि आधार का डेटा किस तरह लीक हुआ या बेचा गया। आम जनता की सारी जानकारियां कंपनियों के पास पहुंच गईं।
जनवरी 2021 में, खानविलकर ने सेंट्रल विस्टा परियोजना को चुनौती देने वाली याचिका को खारिज करते हुए फैसला लिखा - एक पहल जिसे मोदी सरकार ने 2020 में संसद और उसके आसपास के क्षेत्र में सुधार के लिए शुरू किया था।

फैसले के अलावा, कानूनी टिप्पणीकारों ने भी जिस तरह से मामला पहली बार सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा, उसकी आलोचना की थी। फरवरी 2020 में, दिल्ली हाईकोर्ट ने एक आदेश पारित किया जिसमें कहा गया था कि निर्माण योजनाओं के लिए अदालत की मंजूरी की आवश्यकता होगी। इसी कोर्ट की दो जजों की बेंच ने इस पर रोक लगा दी थी।
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जब इसे खानविलकर की अगुआई वाली पीठ के समक्ष चुनौती दी गई, तो स्टे पर निर्णय लेने के बजाय, एक चौंकाने वाले कदम में, अदालत ने पूरी याचिका को अपने आप में ट्रांसफर कर दिया, एक आदेश जो वकीलों का तर्क है कि ट्रांसफर की संवैधानिक शक्तियों का उल्लंघन है।

सबरीमाला प्रकरण

खानविलकर 2018 में मासिक धर्म वाली महिलाओं को सबरीमाला मंदिर में प्रवेश करने की अनुमति देने वाली पीठ का हिस्सा थे, उन्होंने एक साल बाद अपना विचार बदल दिया और कहा कि सबरीमाला मुद्दे पर एक बड़ी पीठ द्वारा पुनर्विचार किया जाना चाहिए। रेफरल की अनुमति देने में उनका विचार बदलना महत्वपूर्ण था, क्योंकि 2018 बेंच के दो अन्य जजों ने माना कि उनके फैसले पर पुनर्विचार की आवश्यकता नहीं थी जिसके परिणामस्वरूप 3: 2 का विभाजन हुआ। उन्होंने माना कि निर्णय में कोई नई सामग्री या कोई स्पष्ट गलती नहीं थी जो कि समीक्षा के योग्य थी।

सबरीमाला फैसले पर पुनर्विचार करने के आदेश की इस आधार पर भारी आलोचना की गई कि इसने निर्णयों की समीक्षा करने पर कानून का पूरी तरह से उल्लंघन किया।जस्टिस खानविलकर के ये तमाम फैसले भविष्य में भी बहस का विषय रहेंगे। कानून के विद्यार्थी इन फैसलों को किस रूप में लेंगे और वे आने वाले समय में कोर्ट रूम की बहसों को क्या दिशा देंगे, ये फैसले उस समय भी याद किए जाएंगे। 
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