जब 7 फ़रवरी, 2019 को समाजवादी पार्टी और बहुजन पार्टी के नेताओं सहित विपक्षी दल के नेता राज्यसभा में विश्वविद्यालयों में आरक्षण को लेकर संसद में क़ानून बनाए जाने या तत्काल अध्यादेश लाए जाने की बात कर रहे थे तो सरकार ने उच्चतम न्यायालय में रिव्यू पिटीशन दायर करने की बात कही। केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने राज्यसभा में कहा, ‘महोदय, कोर्ट का फ़ैसला आया कि डिपार्टमेंट वाइज अप्वाइंटमेंट करें। यह सरकार को मंज़ूर नहीं है। इसलिए हमने एसएलपी दायर की है और अभी फिर एसएलपी ख़ारिज़ हुई है। फिर उसके ख़िलाफ़ रिव्यू पिटीशन डाल रहे हैं। हम किसी भी प्रकार से शेड्यूल्ड कास्ट्स, शेड्यूल्ड ट्राइब्स और ओबीसी के आरक्षण पर आँच नहीं आने देंगे। यह हमारा निर्णय है। इसलिए हम रिव्यू करेंगे और हमें पूरा विश्वास है कि हमें न्याय मिलेगा। हमने बहुत तैयारी की है और हम अच्छा पक्ष रखेंगे। हमें पूरा विश्वास है कि हमें न्याय मिलेगा।’
जावड़ेकर का संसद में दिया गया बयान लहूलुहान है। न्यायालय ने सरकार की रिव्यू पिटीशन ख़ारिज़ कर दी। उच्चतम न्यायालय के जस्टिस यू.यू. ललित और इंदिरा बनर्जी के पीठ ने 22 जनवरी के आदेश के ख़िलाफ़ दायर की गई याचिका ख़ारिज़ कर दी है, जिसमें शीर्ष न्यायालय ने केंद्र की स्पेशल लीव पिटीशन (एसएसपी) ख़ारिज़ करते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 2007 के फ़ैसले को बरकरार रखा था। पीठ ने कहा, ‘हमने रिव्यू पिटीशन को देखा है और कोई ऐसी त्रुटि नहीं पायी जिससे कि पहले के फ़ैसले पर फिर से विचार किया जाए।’ आदेश में यह भी कहा गया है कि रिव्यू पिटीशन में जो आधार बताए गए हैं, उस पर एसएलपी के दौरान चर्चा की गई थी।
जावड़ेकर के संसद में भाषण को सुनकर कोई भी यह सोचने को विवश हो सकता था कि सरकार वंचित तबक़े के अधिकार को लेकर कितनी चिंतित है। यह भी लग सकता है कि सरकार याचिका को लेकर कितनी गंभीर है। सरकार ने बहुत तैयारी की है। लेकिन अब सरकार की सारी तैयारियों का जनाज़ा निकल चुका है।
राज्यसभा में राष्ट्रीय जनता दल के सांसद मनोज कुमार झा ने 27 फ़रवरी को पत्र लिखकर जावड़ेकर को याद दिलाया है कि वह अपने वादे के मुताबिक़ इस मसले पर अध्यादेश लाएँ और उसे कैबिनेट की मंज़ूरी के लिए भेजें। साथ ही झा ने यह भी माँग की कि सरकार विभागवार और विषयवार आरक्षण के आधार पर हुई सभी नियुक्तियों पर रोक लगाए। इसकी जानकारी उन्होंने ट्विटर पर भी साझा की।
क्या सरकार ने संसद में झूठ बोला?
नरेंद्र मोदी और उनके मंत्रिमंडल में बैठे लोग जिस तरह से निजीकरण, कुछ उद्योगपतियों को लाभ पहुँचाने और रफ़ाल के मामले में देश को गुमराह कर रहे हैं, वही काम इन लोगों ने वंचित तबक़े के आरक्षण के मामले में भी किया है। सरकार ने आश्वासन दिया कि जब तक न्यायालय का फ़ैसला नहीं आ जाता है, विश्वविद्यालयों में नयी भर्तियाँ नहीं होंगी, उसके बावजूद देश भर के विश्वविद्यालयों में नियुक्तियाँ आती रहीं। 7 फ़रवरी को राज्यसभा में हुई चर्चा के दौरान समाजवादी पार्टी के सांसद राम गोपाल यादव ने विस्तार से साक्ष्य के साथ सरकार को बताया था कि किन-किन विश्वविद्यालयों में नए नियम के मुताबिक़ रिक्तियाँ आई हैं, जबकि सरकार ने सदन में आश्वस्त किया था कि नए नियम के मुताबिक़ कोई भी रिक्ति नहीं आएगी। इससे संसद में सरकार की ओर से बोले गए झूठ का ख़ुलासा हुआ और सरकार का चेहरा बेनकाब हुआ था। सरकार के झूठ को देखते हुए ही सांसद यह माँग कर रहे थे कि वह संसद में क़ानून बनाकर वंचित तबक़े का संविधान के मुताबिक़ दिया गया आरक्षण सुरक्षित करे।
इलाहाबाद हाई कोर्ट का फ़ैसला
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने विवेकानंद तिवारी बनाम केंद्र सरकार के मामले में 7 अप्रैल, 2017 को दिए गए फ़ैसले में यूजीसी के 25 अगस्त, 2006 की अधिसूचना की धारा 6 सी और धारा 8 (ए) (5) को ख़ारिज़ कर दिया था। धारा 6 (सी) के मुताबिक़ विश्वविद्यालय को इकाई मानकर आरक्षण दिया जाता था, जबकि धारा 8 (ए) (5) के मुताबिक़ आरके सब्बरवाल बनाम पंजाब राज्य के फ़ैसले के मुताबिक़ कुल पदों की संख्या के आधार पर रोस्टर लागू किया जाना था।
यूजीसी के नये नियम और सरकार की जल्दबाज़ी
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जब विभाग को इकाई मानकर आरक्षण करने का आदेश सुनाया था तो आनन-फानन में यूजीसी ने नए नियम तैयार करके विश्वविद्यालयों को भेज दिए। उसमें केंद्र सरकार ने जरा-सी भी देरी नहीं की थी। लोगों को तब सूचना मिली, जब इंडियन एक्सप्रेस में कई हफ़्ते बाद ख़बर छपी। ओबीसी विद्यार्थियों के चेहरे की हवाइयाँ तब उड़ने लगीं, जब देश भर के इंजीनियरिंग कॉलेजों, विश्वविद्यालयों में विभाग को इकाई मानकर भर्तियाँ निकाली जाने लगीं, जिसमें ओबीसी, एससी, एसटी आरक्षण पूरी तरह ग़ायब थे।
सरकार लंबे समय से धूर्तता कर रही है। जब विभागवार रोस्टर पर बवाल हुआ तो केंद्र ने इस पर एसएलपी दायर कर दी। उच्चतम न्यायालय ने साल भर बाद उस पर सुनवाई की तो सरकार का कोई पक्ष सुनने लायक ही नहीं समझा गया और पीठ ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश को बहाल रखा।
सरकार की नीयत में खोट
सरकार की नीयत में खोट है। सीधा-सा हिसाब तो यह होना चाहिए कि ओबीसी को 27 प्रतिशत, एससी को 15 प्रतिशत और एसटी को 7.5 प्रतिशत आरक्षण दिया गया है तो हेड काउंट हो जाए और जब तक विश्वविद्यालय में इतना आरक्षित कोटा पूरा न हो जाए, कोई सामान्य नियुक्ति न हो। क्या मानव संसाधन विकास मंत्री अब यह बता पाएँगे कि उन्होंने अध्यादेश का विकल्प क्यों नहीं अपनाया, जबकि राज्यसभा में विपक्ष के सांसद पहले ही कह चुके थे कि रिव्यू पिटीशन का कोई मतलब नहीं है और सरकार को अध्यादेश लाना चाहिए? किस आधार पर मंत्री कह रहे थे कि उन्होंने तैयारियाँ पूरी कर ली हैं और उन्हें भरोसा है कि न्यायालय में फ़ैसला उनके पक्ष में आएगा?
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