नरेंद्र मोदी ने 2014 के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान मध्य उत्तर प्रदेश में हुई एक जनसभा में, 'मैं नीची जाति से आता हूँ' बोलकर मजमा लूट लिया था। इसका व्यापक असर हुआ और राज्य में मुलायम सिंह यादव और सोनिया गाँधी परिवार के 7 सदस्यों को छोड़कर पूरा विपक्ष धराशायी हो गया।
भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की अदर बैकवर्ड क्लास (ओबीसी) की यह पॉलिटिक्स नई नहीं है। बीजेपी में सोशल इंजीनियरिंग की शुरुआत पार्टी महासचिव रहते हुए के. एन. गोविंदाचार्य ने कर दी थी और उन्होंने उत्तर से लेकर दक्षिण तक इसे सफलतापूर्वक लागू किया। गोविंदाचार्य के ही ब्रेन चाइल्ड उत्तर प्रदेश के कल्याण सिंह, मध्य प्रदेश की उमा भारती, झारखंड के रघुवर दास और कर्नाटक के बीएस येदियुरप्पा थे।
मंडल कमीशन की रिपोर्ट आने के बाद के. एन. गोविंदाचार्य ने भाँप लिया था कि ओबीसी एक बड़ा राजनीतिक फ़ैक्टर है और इस तबक़े को अपने पाले में मोड़ा जाए।
कौन हैं ओबीसी
ओबीसी का इतिहास जानने के लिए 18वीं सदी में ज्योतिबा फुले के आंदोलन तक जाना पड़ेगा, जब विभिन्न जातीय समूह अंग्रेज़ों से अपने लिए विशेष सुविधा माँग रहे थे। कुछ जातियाँ ख़ुद को मार्शल जाति कहकर सेना में अपने लिए अलग रेज़िमेंट की माँग कर रही थीं। वहीं, प्रेशर ग्रुप के रूप में सामने आई ब्राह्मण बहुलता वाली कांग्रेस के नेता अलग-अलग इलाक़ों में अपने लिए विशेष सुविधाओं की माँग कर रहे थे। अंग्रेजों से अपना रिश्ता जोड़ने के लिए बाल गंगाधर तिलक ने ‘आर्कटिक होम ऑफ़ द वेदाज’ लिखकर ख़ुद को उस इलाके़ का मूल निवासी होने का दावा किया, जिसे अंग्रेज़ अपना जन्मस्थल बताते थे।इसके विपरीत धारा भारत के मूल निवासियों की चली और बैकवर्ड क्लास (बीसी) समूह बना। इसमें गैर ब्राह्मण, गैर क्षत्रिय और गैर वैश्य जातियाँ शामिल हुईं। इन जातियों के पठन-पाठन और सुविधाओं के साथ नौकरियों की माँग भी अंग्रेज़ों से की गई।
बाद में जब अंग्रेज़ों ने अछूतों को अलग कर उन्हें शेड्यूल कास्ट्स और शेड्यूल्ड ट्राइब्स में डाल दिया तो वे बीसी से अलग हो गए और ओबीसी यानी अन्य पिछड़ा वर्ग सामने आया। इस ओबीसी में वे जातियाँ बचीं, जो खेती-बाड़ी से तो जुड़ी थीं, लेकिन उन्हें अछूत नहीं माना जाता था।
इस वर्ग के बड़े पैरोकारों में बैरिस्टर पंजाब राव देशमुख प्रमुख थे, जिन्होंने ऑल इंडिया बैकवर्ड क्लास फ़ेडरेशन की स्थापना की। देश स्वतंत्र होने के बाद इस वर्ग के लिए अलग आरक्षण व सुविधाएँ देने पर ख़ूब चर्चा हुई। इस वर्ग को आरक्षण देना मूल अधिकार के ख़िलाफ़ बताया जाने लगा तो तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में संविधान में पहला संशोधन कर यह साफ़ किया गया कि वंचित तबके़ को सरकार सुविधाएँ दे सकती है, यह मूल अधिकार के ख़िलाफ़ नहीं होगा।
उसके बाद काका कालेलकर की अध्यक्षता में पहला पिछड़ा वर्ग आयोग बना और उस पर बवाल हो गया। उस समय नेहरू ने कहा कि राज्य अपने स्तर पर सुविधाएँ देने को स्वतंत्र हैं। फिर कई राज्यों ने आयोग बनाकर अपने-अपने राज्य में अपने हिसाब से अन्य पिछड़ा वर्ग चिह्नित किया और उन्हें आरक्षण सहित तरह-तरह की सुविधाएँ प्रदान कीं।
स्वतंत्रता के समय देश विभाजन, सांप्रदायिक दंगों, सवर्णों के वर्चस्व सहित ढेरों समस्याओं से जूझ रहा था। कांग्रेस उस समय समावेशी राजनीति के तहत हर जाति, वर्ग को साधने की क़वायद कर रही थी। उस समय की स्थिति सरदार बल्लभ भाई पटेल के 5 जनवरी 1948 को कलकत्ता क्लब में दिए गए भाषण से समझी जा सकती है, जिसमें उन्होंने भारत के प्रमुख उद्यमियों को संबोधित किया था।
“
आपको याद दिलाना चाहता हूँ कि अब हमारे वित्त मंत्री आप ही के वर्ग के हैं। उनके विचार स्पष्ट हैं। हमने उनको इसीलिए नियुक्त किया कि भारत के उद्योगों के भविष्य के बारे में विश्वास पैदा हो।
सरदार पटेल के इस भाषण के पहले के वित्त मंत्री मुसलिम थे, जो विभाजन के बाद पाकिस्तान चले गए थे। उस दौर में देश के संपन्न कारोबारियों को संतुष्ट करने के लिए उनकी जाति का वित्त मंत्री नियुक्त करना पड़ा था। उस दौर में यह मुमकिन नहीं था कि पटेल या नेहरू कोई क्रांतिकारी क़दम उठाते हुए बौद्धिकता और उच्च प्रशासनिक पदों पर क़ब्जा जमाए ब्राह्मणों, 550 के आसपास देसी राजाओं और कारोबार पर कब्जा जमाए वैश्य वर्ग को नाराज़ कर दलितों-पिछड़ों के लिए कुछ कर सकें।
शायद यही वजह थी कि संविधान में व्यवस्था करने के बाद ओबीसी को सुविधाएँ देने का काम राज्यों और बदलते वक़्त पर छोड़ दिया गया था।
ग़ैर द्विज जातियाँ हुईं कांग्रेस से अलग
मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद कांग्रेस के साथ जुड़ीं तमाम ग़ैर द्विज जातियाँ अलग हो गईं। गुजरात के पटेल, महाराष्ट्र के मराठा, आंध्र प्रदेश के कापू (नायडू) और रेड्डी, हरियाणा के जाट सहित अनेक ऐसी जातियाँ ओबीसी के दायरे से बाहर हो गईं, जो कांग्रेस के शासनकाल में राजनीतिक पैठ मजबूत कर चुकी थीं। इससे एक नया ओबीसी वर्ग बन गया, जिसमें से सशक्त जातियाँ बाहर हो गईं और वे अब उसी तरह से अलग आरक्षण की माँग कर रही हैं, जैसे बैकवर्ड क्लास में से अनुसूचित जाति और जनजाति को अलग किए जाने के बाद अदर बैकवर्ड क्लास सामने आया था।ओबीसी वर्ग में बहुत विरोधाभासी जातियाँ हैं। मुगलों व अंग्रेज़ों के समय में ज़मींदारी, रजवाड़े और ताल्लुकेदारी, इन तमाम ओबीसी से जुड़ी जातियों के लोगों को मिली। प्राचीन व्यवस्था में भूमि के शासक को राजा या क्षत्रिय कहा जाता था और ज़मींदारियाँ व खेत पाकर यह जातियाँ ख़ुद के क्षत्रिय होने का दावा करने लगीं।
दूसरी ओर कुछ नाई, बरई, बढ़ई, लोहार जैसी कुछ जातियों ने ख़ुद को ब्राह्मण बताना शुरू कर दिया था। इन जातियों का विपन्न तबक़ा बुरे हाल और निचली सामाजिक हैसियत में जीने को विवश रहा। संभवतः ओबीसी में उच्च जाति बन जाने की उत्कंठा को मंडल कमीशन रिपोर्ट लागू होने के बाद गोविंदाचार्य ने पकड़ा था।
पिछड़े वर्ग में जो जातियाँ क्षत्रिय या ब्राह्मण होने के दावे में व्यस्त थीं और क्षेत्रीय स्तर पर उन जातियों का नेता नहीं था, उनमें से गोविंदाचार्य ने नेतृत्व उभारा और उन्हें बीजेपी के साथ जोड़ा।
ओबीसी का वह तबक़ा बीजेपी से चिपक गया, जिसे लगने लगा कि आरक्षण की वजह से वह निम्न जातियों की श्रेणी में शामिल हो गया है, इस तबक़े को आरक्षण से कुछ ख़ास लेना-देना नहीं है। ओबीसी में यह वह तबक़ा है, जो आरक्षण को अपनी जाति के नीचे जाने की वजह मानता है।
यह वह तबक़ा है, जो अपनी जाति छिपाकर और ख़ुद को उच्च जाति का बताकर समाज में रहता है और कहता है कि समाज में जाति व्यवस्था है ही नहीं। इस तबक़े के बीजेपी के साथ जुड़ने का परिणाम यह हुआ कि मध्य प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक और गुजरात जैसे राज्यों में बीजेपी का लंबा कब्जा हो गया। बीजेपी की सत्ता उन्हीं राज्यों में डगमगाई, जहाँ आरएसएस से जुड़े बीजेपी के अपर कास्ट नेताओं ने ओबीसी से सत्ता छीनने की क़वायद की।
मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद सिर्फ़ दो राज्यों बिहार और उत्तर प्रदेश में जनता दल से वैचारिक रूप से जुड़े दल सत्ता में आए। उत्तर प्रदेश भारत का एकमात्र राज्य बना, जहाँ दलितों के वर्चस्व वाली बहुजन समाज पार्टी को सत्ता सुख मिला। इसके अलावा अन्य हिंदी भाषी राज्यों में बीजेपी ने ओबीसी मतदाताओं को अपने पक्ष में मैनेज कर लिया।
यूपी में सपा, बसपा मुसलिम-यादव और दलित-ब्राह्मण समीकरण बनाने लगीं और ओबीसी हाशिये पर चला गया। परिणाम यह हुआ कि बीजेपी ने इसे अपने पाले में करके यूपी में बहुमत हासिल कर लिया।
सभी दल लुभाने में जुटे
2014 के बाद बदली राजनीति में सभी दलों को देश की 60 प्रतिशत से ऊपर आबादी वाले पिछड़े वर्ग की याद सताने लगी है। सभी दल इस तबके़ को लुभाने की क़वायद में हैं। सपा-बसपा को जहाँ अपने यादव और दलित मतों के गठजोड़ पर अति आत्मविश्वास है, वहीं उन्हें अन्य पिछड़े वर्ग पर भी डोरे डालने पड़ रहे हैं।कांग्रेस अपने पूरे संगठनात्मक ढाँचे को तब्दील कर रही है। कांग्रेस मध्य प्रदेश में कमलनाथ (संभवतः सोनार), छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल (कुर्मी), राजस्थान में सचिन पायलट (गुर्जर) और अशोक गहलोत (माली) को चुनाव में आगे करके बीजेपी का अजेय दुर्ग जीतकर पिछड़े वर्ग के नेताओं के हाथ में सौंप चुकी है।
वहीं, दूसरी ओर बीजेपी अब समझ चुकी है कि उसे सांप्रदायिक उन्माद से भरी कथित देशभक्ति ही बढ़त दिला सकती है।
नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने साढ़े चार साल के कार्यकाल के दौरान खेती-किसानी, लघु एवं कुटीर उद्योगों को बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है, जिसने इस क्षेत्र में लगे ओबीसी वर्ग की कमर तोड़ दी है।
ऐसे में उसे सिर्फ़ ओबीसी के उस खाते-पीते तबके़ से ही भरोसा बचा है, जो क्षत्रिय बन जाने के लिए संघर्षरत है। साथ ही बीजेपी ने 10 प्रतिशत सवर्ण आरक्षण देने के बाद अपर कास्ट वोट को अपनी ओर लुभाने के लिए अन्य दलों से उच्च जाति के नेताओं को जोड़ना शुरू कर दिया है।
अपनी राय बतायें