राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने आज आंध्र प्रदेश के राज्यपाल के रूप में जैसे ही सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश एस अब्दुल नजीर की नियुक्ति की अधिसूचना जारी की, सोशल मीडिया पर उनके नाम की चर्चा चलने लगी। जज के रूप में सेवानिवृत्ति के बाद पद संभालने को लेकर बहस तेज हो गई। पूछा जाने लगा कि आख़िर सुप्रीम कोर्ट के सम्मानित जज की सेवानिवृत्ति के बाद की नियुक्ति आख़िर क्यों नहीं रुक रही है?
यह सवाल इसलिए कि अभी क़रीब एक महीने पहले ही सुप्रीम कोर्ट से सेवानिवृत्त हुए जस्टिस एसए नज़ीर को आंध्र प्रदेश के राज्यपाल के तौर पर नियुक्त किया गया है। न्यायमूर्ति सैयद अब्दुल नज़ीर कई ऐतिहासिक निर्णयों का हिस्सा थे, जिनमें ट्रिपल तलाक केस, अयोध्या-बाबरी मस्जिद विवाद केस, विमुद्रीकरण मामला आदि शामिल है।
इसी साल 4 जनवरी को सेवानिवृत्त हुए न्यायमूर्ति नज़ीर अयोध्या पर फ़ैसला सुनाने वाली पांच-न्यायाधीशों की खंडपीठ में शामिल रहे तीसरे न्यायाधीश हैं जिन्होंने सेवानिवृत्ति के बाद सरकार से नियुक्ति प्राप्त की। खंडपीठ का नेतृत्व करने वाले पूर्व सीजेआई रंजन गोगोई को राज्यसभा के सदस्य के रूप में नामित किया गया था, न्यायमूर्ति अशोक भूषण को उनकी सेवानिवृत्ति के चार महीने बाद 2021 में राष्ट्रीय कंपनी कानून अपीलीय न्यायाधिकरण का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था।
जस्टिस नज़ीर अयोध्या मामले में सर्वसम्मति से फ़ैसला देने वाली पाँच जजों की सुप्रीम कोर्ट की पीठ में शामिल थे जिसने हिंदुओं के पक्ष में फैसला दिया था। जबकि उन्होंने इससे पहले 4:1 के बहुमत के विचार के खिलाफ असहमति जताई थी, जिसने इस मुद्दे को एक बड़ी बेंच के पास भेजने से इनकार कर दिया था।
जस्टिस नज़ीर 2017 के ट्रिपल तलाक फ़ैसले में 3: 2 अल्पसंख्यक राय का भी हिस्सा थे जिसमें उन्होंने कहा था कि यह प्रथा क़ानूनी रूप से वैध थी।
जस्टिस नज़ीर 2017 के उस ऐतिहासिक फैसले का भी हिस्सा थे, जिसमें निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार माना गया था और 2021 के फ़ैसले में टेलीकॉम कंपनियों की दलीलों को खारिज कर दिया गया था।
बता दें कि 5 जनवरी, 1958 को जन्मे जस्टिस नज़ीर को 2003 में कर्नाटक उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त किया गया था। 2017 में उन्हें सर्वोच्च न्यायालय में पदोन्नत किया गया था। द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार अल्पसंख्यक समुदाय के एक न्यायाधीश को शामिल करने और बेंच में विविधता सुनिश्चित करने के कदम के रूप में कॉलेजियम द्वारा उनकी सीधी पदोन्नति को उचित ठहराया गया था।
इस बीच कर्नाटक उच्च न्यायालय के उनके वरिष्ठ सहयोगी न्यायमूर्ति एचजी रमेश ने मद्रास उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश बनने के क़दम को ठुकरा दिया था। न्यायमूर्ति रमेश ने भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जेएस खेहर को एक अभूतपूर्व पत्र में कहा था, 'भारत का संविधान उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में धर्म या जाति के आधार पर आरक्षण प्रदान नहीं करता है।'
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