“नाबालिग बच्ची के स्तनों को दबाना, उसके पाजामे के नाड़े को
तोड़ना बलात्कार की कोशिश नहीं है।“
यह फैसला इलाहाबाद हाईकोर्ट का था जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने
रोक लगा दी है। इन दिनों बहुत कम मौके ऐसे होते हैं जब देश का सर्वोच्च न्यायालय
कोई नज़ीर पेश करता है। सुप्रीम कोर्ट का यह ताजा फैसला ऐसा ही एक विरल मौका है।
नाबालिग लड़की के साथ बलात्कार से जुड़े एक मामले पर आए
इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक बुरे फैसले को सर्वोच्च न्यायालय ने खुद संज्ञान लेते हुए
रोक दिया है। इतना ही नहीं सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट को कड़ी फटकार भी लगाई है।
मामला उत्तर प्रदेश के कासगंज जिले से जुड़ा है। तीन
आरोपियों—पवन,
आकाश और अशोक—ने एक 11 वर्षीय बच्ची को जबरन अपनी बाइक पर बैठाया, उसके
स्तन दबाए, उसके पजामे की डोरी तोड़ी। इसके बाद तीनों आरोपियों ने उसे पुलिया के नीचे
खींचने की कोशिश की।
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मामला दर्ज होने के बाद ट्रायल कोर्ट ने आरोपियों के खिलाफ
भारतीय दंड संहिता (IPC)
की धारा 376
(बलात्कार) और पोक्सो एक्ट (POCSO) के
तहत मुकदमा चलाने का आदेश दिया।
हालांकि,
इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस राम मनोहर नारायण मिश्रा ने इस
मामले पर यह फैसला सुनाया कि "महज़ स्तन दबाने और पजामे की डोरी तोड़ने"
को बलात्कार या बलात्कार की कोशिश नहीं कहा जा सकता है। इसे गंभीर प्रकृति का यौन
उत्पीड़न जरूर कह सकते हैं। इस आधार पर,
उन्होंने बलात्कार की धारा हटाकर आरोपियों को हल्की धाराओं
के तहत मुकदमे का सामना करने का आदेश दिया।
इस फैसले के खिलाफ देशभर में हंगामा खड़ा हो गया। वरिष्ठ अधिवक्ता शोभा गुप्ता ने इस फैसले पर आपत्ति जताते हुए सुप्रीम कोर्ट को पत्र लिखा। इस पत्र के मिलने के बाद सर्वोच्च अदालत ने मामले पर स्वतः संज्ञान लिया। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश ‘बी.आर. गवई’ और ‘ए.जी. मसीह’ की पीठ ने इस फैसले को ‘असंवेदनशील और अमानवीय’ करार दिया।
कोर्ट ने कहा कि यह फैसला झटपट नहीं लिया गया था। सुनवाई के
बाद फैसले के लिए समय लिया गया था। चार महीने तक विचार करने के बाद यह फैसला दिया
गया था। इसलिए यह कहना गलत होगा कि यह गलती से हुआ। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि
न्यायाधीश को यह समझना चाहिए कि ऐसे फैसले समाज में खतरनाक संदेश भेज सकते हैं। ये
फैसले महिलाओं की सुरक्षा को खतरे में डाल सकते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने साफ तौर पर कहा कि यह फैसला ‘कानूनी
सिद्धांतों के खिलाफ’ है। इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता।
हाई कोर्ट के जजमेंट पर
यह थी सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी – “ये पैराग्राफ कानून के सिद्धांतों के विरुद्ध
हैं और पूरी तरह से असंवेदनशील और अमानवीय नजरिए को दर्शाते हैं। इस निर्णय पर रोक
लगाई जा रही है।”
हाई कोर्ट फैसले पर बहुत हुआ था हंगामाः इलाहाबद हाई कोर्ट के फैसले पर कानून विशेषज्ञों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और राजनीतिक नेताओं ने कड़ी आपत्ति जताई थी। केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री अन्नपूर्णा देवी ने इस निर्णय को ‘अस्वीकार्य’ बताया था। साथ ही उन्होंने यह भी कहा था कि ऐसे फैसलों का सभ्य समाज में कोई स्थान नहीं होना चाहिए।
शिवसेना (यूबीटी) की राज्यसभा सांसद प्रियंका चतुर्वेदी ने
भी इस मामले को लेकर मुख्य न्यायाधीश और केंद्रीय कानून मंत्री को पत्र लिखा था।
प्रियंका चतुर्वेदी ने जस्टिस मिश्रा को उनके पद से हटाने की मांग भी की थी।
उन्होंने कहा था कि इस फैसले ने महिलाओं की सुरक्षा और न्याय प्रणाली पर गंभीर
सवाल खड़े कर दिए हैं।
जस्टिस राम मनोहर नारायण द्वारा हाईकोर्ट में दिए गये फैसले पर कानून विशेषज्ञों ने खुलकर विरोध किया था। उनकी राय थी कि यह फैसला न्यायिक व्यवस्था की विश्वसनीयता को ठेस पहुंचाता है। लॉ एक्स्पर्ट्स ने इस बात पर भी ज़ोर दिया था कि जस्टिस मिश्रा का फैसला महिलाओं के खिलाफ अपराधों को कम गंभीरता से लेने की प्रवृत्ति को दर्शाता है।
क्या है सुप्रीम कोर्ट का आदेश?
बहरहाल इस चौतरफा विरोध के बाद सुप्रीम कोर्ट ने न केवल इस फैसले पर तत्काल रोक लगा दी है, केंद्र सरकार और उत्तर प्रदेश सरकार को भी लपेटे में लिया है। उन्हें नोटिस जारी कर उनसे जवाब मांगा है। अदालत ने यह भी निर्देश दिया है कि इस फैसले की कॉपी को इलाहाबाद हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल को भेजी जाए। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से उचित कार्रवाई करने को कहा है। मामले की अगली सुनवाई चार हफ्ते बाद रखी है।इसके अलावा, सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि न्यायाधीशों को संवेदनशील मामलों में फैसले देते समय ज्यादा सतर्कता बरतनी चाहिए। अदालत ने कहा कि ऐसे फैसले महिलाओं की सुरक्षा के लिए खतरा बन सकते हैं और न्यायपालिका की निष्पक्षता पर सवाल खड़े कर सकते हैं।
इस मामले में ‘राइट्स फॉर चिल्ड्रन अलायंस संस्था’ को भी
कोर्ट की कार्यवाही में एक पक्ष बनाया गया है। इस
संस्था ने उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देते हुए विशेष अनुमति याचिका
दायर की थी।
गौरतलब है कि यह मामला न्यायपालिका की संवेदनशीलता और समाज
में महिलाओं की सुरक्षा से जुड़ा हुआ है। सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद अब यह देखना
होगा कि इलाहाबाद हाईकोर्ट और न्यायपालिका इस तरह के फैसलों से बचने के लिए क्या
कदम उठाती है?
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इस पूरे वाकये ने एक बार और ज़ाहिर किया है कि न्यायिक
प्रक्रिया में स्त्री अधिकारों और सुरक्षा के पार्टी संवेदनशीलता कितनी जरूरी है।
एक ग़लत फैसला न केवल नकोर्ट पर सवाल उठती है, अपराधों को बढ़ावा भी दे सकती है।
रिपोर्टः अणुशक्ति सिंह
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