कांग्रेस में राहुल गाँधी के इस्तीफ़े के बाद मची अफरा-तफरी के बीच अब हिमाचल कांग्रेस में भी बगावत का माहौल बनने लगा है। प्रदेश में इस बार लोकसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी की हुई शर्मनाक हार की ज़िम्मेदारी लेने को लेकर मौजूदा नेतृत्व पर दवाब बढ़ता जा रहा है। इससे मौजूदा कांग्रेस अध्यक्ष कुलदीप राठौर की कुर्सी ख़तरे में है।
लोकसभा चुनाव में हार के बाद अब हिमाचल कांग्रेस के नेताओं के ख़िलाफ़ आम कांग्रेसी कार्यकर्ताओं में गुस्सा पनपा है। हालाँकि प्रभारी रजनी पाटिल से लेकर अध्यक्ष कुलदीप राठौर तक इन दिनों खामोशी के आलम में हैं, वे किसी भी तरह अपनी-अपनी कुर्सी बचाने की जुगत में हैं। लेकिन आरोप लगाया जा रहा है कि कांग्रेस नेताओं की आपसी कलह व गुटबाज़ी की वजह से ही पार्टी को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। अब हार मिली है तो पार्टी में इसको लेकर एक-दूसरे को ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है।
चुनाव से पहले अध्यक्ष बदलना कितना सही?
जहाँ बीजेपी ने चुनाव से क़रीब तीन महीने पहले ही अपने संगठन को चुस्त-दुरुस्त करते हुए बैठकों का दौर शुरू कर दिया था वहीं कांग्रेस ने चुनाव के एन वक्त प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद से सुखविन्दर सिंह सुक्खू को हटाकर पार्टी की कमान कुलदीप सिंह राठौर को सौंप दी। पार्टी का यह फ़ैसला संगठन के लिये आत्मघाती साबित हुआ। चुनावों में सुक्खू समर्थक कांग्रेसी साइलेंट मोड में चले गये। उन्हें मुख्यधारा में लाने के लिये राठौर ने कोशिश भी नहीं की। उल्टे राठौर वीरभद्र सिंह के सामने लमलेट हो गये। राठौर का प्रदेश में कोई ठोस जनाधार नहीं है। यही नहीं, कांग्रेस का वाररूम क्या कर रहा था, इसका पता ही नहीं चला। कागजों में सब घोड़े दौड़ते रहे।
पहले से ही आंतरिक कलह
चुनावों के दौरान पहले तो कांग्रेस के कई बड़े नेता ही टिकट से दूर भाग गये और बाद में पूर्व केंद्रीय मंत्री पं. सुखराम और उनके पौत्र आश्रय शर्मा को कांग्रेस में शामिल कर मंडी का टिकट आश्रय को थमा दिया गया। इसी तरह बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष व सांसद सुरेश चंदेल को कांग्रेस में शामिल करवाया गया। अनमने भाव से वीरभद्र सिंह चुनाव प्रचार में तो आये, लेकिन आते ही कांग्रेस की रैलियों में कांग्रेस प्रत्याशियों के ख़िलाफ़ आग उगलने लगे।
शिमला के प्रत्याशी को उन्होंने पुराना पापी कह डाला, तो मंडी में सुखराम के ख़िलाफ़ जमकर भड़ास निकाली। इसी तरह कांगड़ा के प्रत्याशी को अपना बताया तो हमीरपुर के प्रत्याशी का खुलकर समर्थन ही नहीं किया। केन्द्रीय नेतृत्व ने प्रचार के लिए प्रदेश को बाकायदा हेलिकॉप्टर तक दिया था। लेकिन कुलदीप राठौर ने प्रचार के लिये पूर्व अध्यक्ष सुखविन्दर सिंह सुक्खू की मदद ही नहीं ली। यही नहीं पार्टी के स्टार प्रचारक ऐसे लोग थे, जिनमें से अधिकतर के जनाधार को लेकर अब सवाल उठ रहे हैं।
जनाधार खिसका
चुनावी आँकड़े बताते हैं कि कांग्रेस का वोट बैंक इस बार बीजेपी की ओर छिटक गया है। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को महज 27.3 प्रतिशत मत ही मिले। चार सीटों पर शर्मनाक हार पार्टी के लिये किसी सदमे से कम नहीं है। वहीं बीजेपी ने 69.1 प्रतिशत मत हासिल कर हर किसी को चौंकाया है। क़रीब 18 माह पहले प्रदेश में विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 42.32 प्रतिशत मत हासिल कर 68 में से 21 सीटें जीती थीं। तब बीजेपी को 49.53 प्रतिशत मत मिले और उसने 44 सीटों पर जीत दर्ज की थी। 2014 में हुए लोकसभा चुनावों में मोदी लहर के बीच भी कांग्रेस ने 41.07 प्रतिशत मत प्राप्त किए थे। हालाँकि तब राज्य की सत्ता में होते हुए भी कांग्रेस किसी भी सीट पर जीत दर्ज नहीं कर पाई थी। प्रदेश के छह बार मुख्यमंत्री रहे वीरभद्र सिंह का भी जनाधार खिसका है। प्रदेश की चारों सीटों पर जीत का अंतर कहीं 4 लाख से अधिक तो कहीं 3 लाख से अधिक है।
कार्यकर्ताओं में निराशा
हिमाचल में कांग्रेस पार्टी के पतन की शुरुआत तो वीरभद्र सिंह के मुख्यमंत्री के काल से ही हो चुकी थी। दरअसल, वीरभद्र सिंह ने कभी भी सुखविन्दर सिंह सुक्खू को पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर स्वीकार ही नहीं किया। हालाँकि वह छह साल तक पार्टी के प्रमुख रहे। पार्टी जब सरकार में थी तो संगठन के लोगों को सरकार में कोई ठोस हिस्सेदारी नहीं मिली। इस दौरान ज़मीनी स्तर के कार्यकर्ताओं की अहमियत को न तो वीरभद्र सिंह ने स्वीकारा और न ही सुक्खू ने कोई तव्वजो दी। इससे कांग्रेस का आम कार्यकर्ता मायूस हुआ और वह घर बैठ गया। लोकसभा चुनावों में उन्होंने पार्टी की कोई मदद नहीं की।
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