सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट के उस निर्देश पर रोक लगा दी, जिसके आधार पर विधायकों की मुख्य संसदीय सचिव यानी सीपीएस के रूप में मिली मंत्री स्तर की सुविधाएँ ख़त्म हो जातीं। विधायकों को जिस अधिनियम के आधार पर मुख्य संसदीय सचिव बनाया गया था उसको ही हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने असंवैधानिक घोषित कर दिया। इसी को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई।
सीजेआई संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति पीवी संजय कुमार की पीठ ने सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार की अपील पर नोटिस जारी करते हुए आदेश दिया कि अगली सुनवाई की तारीख तक, पैराग्राफ 50 के अनुसार आगे कोई कार्यवाही नहीं होगी।
दरअसल, दिसंबर 2020 में बनी सुखविंदर सिंह सुक्खू सरकार ने छह विधायकों को सीपीएस नियुक्त किया था और उन्हें राज्य मंत्रियों के बराबर सुविधाएं दी थीं। इसके ख़िलाफ़ हाईकोर्ट में याचिकाएँ लगाई गईं। इनमें 12 भाजपा विधायकों की याचिकाएं भी शामिल हैं। उन्होंने राज्य विधानसभा की इस कानून को पारित करने की क्षमता को चुनौती दी।
द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट ने 13 नवंबर को हिमाचल प्रदेश संसदीय सचिव (नियुक्ति, वेतन, भत्ते, शक्तियां, विशेषाधिकार और सुविधाएं) अधिनियम 2006 को असंवैधानिक क़रार देते हुए कहा था कि यह संविधान के अनुच्छेद 164 (1-ए) का उल्लंघन करता है। यह अनुच्छेद राज्य मंत्रिमंडल के आकार को विधानसभा की क्षमता के 15 प्रतिशत से अधिक नहीं होने का आदेश देता है।
उनकी नियुक्तियों को असंवैधानिक ठहराते हुए हाईकोर्ट ने निर्णय के पैराग्राफ 50 में कहा कि 'हिमाचल प्रदेश विधान सभा सदस्य (अयोग्यता निवारण) अधिनियम, 1971 की धारा 3 के साथ खंड (घ) के अनुसार मुख्य संसदीय सचिव/या संसदीय सचिव के पद पर ऐसी नियुक्ति को दी गई सुरक्षा भी अवैध और असंवैधानिक घोषित की जाती है...।'
शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने पूरे हाईकोर्ट के आदेश पर रोक नहीं लगाई, बल्कि केवल पैराग्राफ 50 में दिए गए निर्देशों के बाद आने वाले परिणामों पर रोक लगाई। राज्य सरकार की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल और ए एम सिंघवी ने निर्देश पर रोक लगाने का अनुरोध किया। प्रतिवादियों की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता मनिंदर सिंह ने बताया कि 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने मणिपुर द्वारा पारित एक समान कानून को रद्द कर दिया था।
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