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फोटो साभार: ट्विटर/@astropierre

ऐसी तकनीक जो दिमाग पढ़कर कर देगा लकवे का इलाज!

एक चौंकाने वाला शोध सामने है। 12 साल से एक लकवाग्रस्त शख्स अब स्वाभाविक रूप से फिर से चल सकता है। ऐसा वैज्ञानिकों के एक शोध से संभव हुआ। यह शोध है मस्तिष्क और स्पाइनल कोड प्रत्यारोपण का। इस नए अध्ययन में शोधकर्ताओं ने एक ऐसा उपकरण बनाया है जो लकवाग्रस्त रोगी के मस्तिष्क को पढ़कर यानी उसके इरादों को समझकर उसके शरीर के अंगों को हरकतें करने का संकेत देता है। इससे शख्स शरीर के लकवाग्रस्त हिस्से को भी सामान्य तौर पर हिला-डुला सकता है और काम कर सकता है।

यह कैसे काम करता है और इससे दुनिया भर में किन-किन लोगों को फायदा होगा, यह जानने से पहले यह समझ लें कि आख़िर लकवा बीमारी क्या है और इसमें शरीर के अंग कैसे काम करने बंद कर देते हैं। इसे आसान भाषा में समझें तो शरीर एक मशीन या कम्प्यूटर की तरह है। इंसान का दिमाग कम्प्यूटर के सीपीयू की तरह है जो शरीर का सबसे जटिल हिस्सा है और जो पूरे शरीर को नियंत्रित करता है। दिमाग के निर्देशों के अनुसार शरीर के हिस्से- हाथ, पैर, अंगुलियाँ, आँखें आदि हिलते-डुलते या काम करते हैं। 

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तो सवाल है कि दिमाग जो कहता है या चाहता है, वह शरीर के इन अंगों को पता कैसे चलता है यानी उन्हें निर्देश कैसे मिलते हैं? इसे कम्प्यूटर के सीपीयू से समझ सकते हैं कि जब वहाँ की-बोर्ड से कुछ निर्देश दिए जाते हैं तो वे चीप और उन्हें जोड़ने वाले तारों के माध्यम से कम्प्यूटर के एक से दूसरे हिस्से में जाते हैं। और फिर कम्प्यूटर के दूसरे हिस्से अपना काम करते हैं जो मॉनिटर पर सब दिखता है। कुछ ऐसा ही शरीर के साथ भी होता है। हमारे दिमाग का भाग है नर्वस सिस्टम, जिसमें स्पाइनल कोड भी शामिल है। ये स्पाइनल कोड ही वह तार का काम करता है और दिमाग के निर्देशों को शरीर के अंगों तक ले जाता है। यदि दिमाग और स्पाइनल कोड के बीच का संपर्क टूट जाए तो फिर शरीर के अंग हिलने-डुलने या काम करने बंद कर देते हैं। यानी दिमाग का नियंत्रण अपने ही शरीर के अंगों पर नहीं रहता है। यही लकवा है।

एक दशक से भी अधिक समय से गर्ट-जान ओस्कम कमर से निचले हिस्से में लकवाग्रस्त हैं। गर्ट-जान ओस्कम 2011 में चीन में रह रहे थे जब एक मोटरसाइकिल दुर्घटना में उन्हें कूल्हों से नीचे लकवा मार गया था। न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार बुधवार को वैज्ञानिकों ने उन प्रत्यारोपणों की जानकारी दी जो उनके मस्तिष्क और उनकी स्पाइनल कोड के बीच एक 'डिजिटल पुल' का काम करते हैं। और इस वजह से जो संदेश या निर्देश दिमाग देता है उसे ये डिजिटल पुल शरीर के क्षतिग्रस्त हिस्से को पहुँचाते हैं और उन्हें चलने में सक्षम बनाते हैं। अब उपकरणों की सहायता से वैज्ञानिकों ने उन्हें फिर से अपने शरीर के निचले हिस्से पर नियंत्रण हासिल करने में मदद की है।

अख़बार की रिपोर्ट के अनुसार, जर्नल नेचर में बुधवार को इसका शोध प्रकाशित हुआ है। इसमें स्विट्ज़रलैंड के शोधकर्ताओं ने उन प्रत्यारोपणों के बारे में बताया है जो ओस्कम के मस्तिष्क और उनके स्पाइनल कोड के बीच 'डिजिटल ब्रिज' का काम करते हैं। इन प्रत्यारोपणों के एक साल से अधिक समय बाद भी ओस्कम ने इन क्षमताओं को बरकरार रखा है और वास्तव में उन्होंने न्यूरोलॉजिकल रिकवरी के लक्षण दिखाए हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि इन प्रत्यारोपणों के बंद होने पर भी उन्होंने बैसाखी के सहारे चलना शुरू कर दिया है।
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आख़िर यह कैसे संभव हुआ?

सवाल है कि वैज्ञानिकों ने ऐसा क्या तरीक़ा अपनाया कि मस्तिष्क और स्पाइनल कोड के बीच में वे संदेशों का आदान-प्रदान कर सके। स्विस फेडरल इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी, लुसाने में स्पाइनल कोड के विशेषज्ञ और इस अनुसंधान का नेतृत्व करने वाले ग्रेजायर कोर्टाइन ने प्रेस ब्रीफिंग में कहा, 'हमने गर्ट-जन के विचारों को पकड़ा, और इन विचारों को स्पाइनल कोड के माध्यम से शारीरिक अंगों में स्वैच्छिक हलचल को फिर से स्थापित करने के लिए इसको ट्रांसलेट किया।' 

इसे आसान भाषा में समझें तो वह कहते हैं कि हम जो सोचते हैं उसको पढ़ने वाला यंत्र विकसित किया और दिमाग की सोच को स्पाइनल कोड को समझने वाली भाषा में ट्रांसलेट कर भेजा और उसके अनुसार शरीर के उस अंग ने हरकतें करनी शुरू कीं।

शोधकर्ताओं ने इस प्रक्रिया को ब्रेन-स्पाइन इंटरफ़ेस नाम दिया है। उन्होंने कहा कि एक आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस थॉट डिकोडर की सहायता ली गई जो ओस्कम के इरादों या उनकी सोच को पता लगाने योग्य उनके मस्तिष्क में विद्युत संकेतों को पढ़ सके और वे उनकी मांसपेशियों की गतिविधियों से मेल खाएं।' ये जो पूरा संपर्क स्थापित किया गया इसे ही डिजिटल ब्रिज कहा गया।

इस परिणाम को प्राप्त करने के लिए शोधकर्ताओं ने सबसे पहले ओस्कम की खोपड़ी और स्पाइन में इलेक्ट्रोड लगाए। टीम ने तब एक मशीन-लर्निंग प्रोग्राम का उपयोग किया, यह देखने के लिए कि जब उन्होंने अपने शरीर के विभिन्न हिस्सों को हिलाने-डुलाने की कोशिश की तो मस्तिष्क के कौन से हिस्से सक्रिए थे। यह थॉट डिकोडर ओस्कम के विशेष इरादों के साथ कुछ इलेक्ट्रोड की गतिविधि से मेल खाने में सक्षम था। 

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फिर शोधकर्ताओं ने ब्रेन इम्प्लांट को स्पाइनल इम्प्लांट से जोड़ने के लिए एक और एल्गोरिदम का इस्तेमाल किया, जो उनके शरीर के विभिन्न हिस्सों में विद्युत संकेतों को भेजने के लिए सेट किया गया था। इस प्रक्रिया में मस्तिष्क और स्पाइनल कोड के बीच संकेत हर 300 मिलीसेकंड पर भेजे जा रहे थे, और इस वजह से ओस्कम के अंग तेजी से काम करने में सक्षम थे। धीरे-धीरे वह हर गतिविधि को सिखते रहे और अब उनके शरीर के अंगों की गतिविधि में काफ़ी सुधार आया है। रिपोर्ट के अनुसार अब ओस्कम अपने घर के चारों ओर एक सीमित रास्ते में चल सकते हैं, एक कार में आ-जा सकते हैं। 

न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, ओस्कम में इम्प्लांट करने वाले लॉज़ेन विश्वविद्यालय के एक न्यूरोसाइंटिस्ट जॉक्लीने बलोच ने कहा, 'शुरुआत में यह मेरे लिए काफी साइंस फिक्शन था, लेकिन आज यह सच हो गया।' 

शोधकर्ताओं की टीम को उम्मीद है कि आगे की प्रगति उपचार को और अधिक सुलभ और अधिक व्यवस्थित रूप से प्रभावी बनाएगी।

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