कई वर्षों पहले केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी जब पहली बार संघ मुख्यालय में नागपुर में मुझसे मिले थे, तब मैंने उनसे कहा था कि आप ‘गडकरी’ हैं या ‘गदगद्करी’ हैं? अख़बारों में आपकी बातें पढ़कर मेरी तबियत गदगद् हो जाती है। पिछले दो दिन से देश के अख़बारों में उनके भाषणों की रिपोर्ट पढ़कर मुझसे ज़्यादा कौन खुश होगा? उनके भाषणों का सार मेरे इन तीन शब्दों में आ जाता है। सर्वज्ञजी, प्रचार
मंत्री और भाभापा। यानी बीजेपी नहीं, भाई-भाई पार्टी!
मेरे लेख यों तो संघ और भाजपा के सभी प्रमुख लोग लगभग रोज़ ही पढ़ते हैं और जब भी कहीं मिलते हैं तो उनका जिक़्र भी करते हैं। लेकिन अकेले नितिन गडकरी की हिम्मत है कि उन्होंने मंत्री रहते हुए भी वही बात कह दी, जो एक सर्वतंत्र, स्वतंत्र, सार्वभौम नागरिक कहता है। उन्होंने क्या कहा है? उन्होंने कहा कि ‘चुनावों में जब जीत होती है तो उसके कई दावेदार बन जाते हैं लेकिन जब हार होती है तो उसके लिए कौन ज़िम्मेदार होता है? उसके लिए ज़िम्मेदार होता है - पार्टी अध्यक्ष! यदि मेरी पार्टी के सांसद और विधायक ठीक से काम नहीं करते और मैं ही पार्टी अध्यक्ष हूं तो उसके लिए मैं ही ज़िम्मेदार होऊंगा’।
गडकरी ने सिर्फ़ यही कहा है कि जब जीत होती है तो उसके कई दावेदार बन जाते हैं लेकिन जब हार होती है तो उसके लिए कौन ज़िम्मेदार होता है? उसके लिए ज़िम्मेदार होता है - पार्टी अध्यक्ष!
तीन हिंदी राज्यों में बीजेपी की हार का पत्थर किसके गले में लटकना चाहिए, यह कहने की ज़रूरत नहीं है। गडकरी ने अपने भाषणवीर और नौटंकीबाज़ नेता को भी नहीं बख़्शा। उन्होंने कह दिया कि अपने आप को सर्वज्ञ समझना भी भूल है। आत्मविश्वास और अहंकार में जमीन-आसमान का अंतर है। आप सिर्फ़ भाषणों की जलेबियाँ उतारकर चुनाव नहीं जीत सकते। कुछ ठोस करके भी दिखाइए।
गडकरी ने यह भाषण गुप्तचर विभाग की वार्षिक भाषणमाला के अंतर्गत दिया है। पता नहीं, इस भाषण की प्रतिक्रिया संघ और बीजेपी में कैसी होगी? गडकरी के विरुद्ध कार्रवाई भी हो सकती है या गडकरी इसका खंडन भी जारी कर सकते हैं। वे कह सकते हैं कि हाँ, मैंने यही कहा है लेकिन आप इसका जो मतलब निकाल रहे हैं, वह मेरा आशय था ही नहीं। मैं तो नरेंद्र मोदी और अमित शाह का भक्त हूं।
गडकरी अब जो भी सफ़ाई दें, उन्होंने पटाखों की लड़ी में बत्ती लगा दी है। गडकरी को उस आँधी का अग्रिम आभास हो गया है, जो 2019 में आनेवाली है। गडकरी पर गुस्सा होने के बजाय ज़रूरी है कि उनकी खरी-खरी बातों से सबक़ सीखा जाए और बीजेपी की इस डगमगाती नाव को डूबने से बचाया जाए ताकि अगले साल-छह महीने में देश का कुछ भला हो जाए।
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