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फाइल फोटो

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक दर्जे का क्या है मामला?

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक दर्जे का मामला फिर एक बार सुप्रीम कोर्ट पहुंच चुका है। मंगलवार को इस केस में सुनवाई हुई। इसमें जहां केंद्र सरकार की तरफ से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने दलीलें दी वहीं याचिकार्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन ने दलीलें दी। 

सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला, जस्टिस मनोज मिश्रा, जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस सूर्यकांत,जस्टिस दीपांकर दत्ता, और जस्टिस सतीश चंद शर्मा की संविधान पीठ इलाहाबाद हाईकोर्ट के 2006 के निर्णय को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई कर रही है। 

2006 के उस फैसले में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा था कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना जा सकता है। 

सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई शुरु होने के कारण फिर से यह मामला चर्चा में आ गया है। सवाल इस पर उठ रहे हैं कि क्या अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान है या नहीं? इसे अल्पसंख्यक दर्जे वाला संस्थान नहीं मानने के पीछे तर्क दिया जा रहा है कि यह केंद्र सरकार से आर्थिक सहायता लेता और यह सेंट्रल यूनिवर्सिटी है। बहरहाल इस मामले का फैसला अब सुप्रीम कोर्ट करेगा। 

अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर मंगलवार को हुई सुनवाई में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान नहीं हो सकता है। सरकार ने कहा है कि यह किसी विशेष धर्म या धार्मिक संप्रदाय की यूनिवर्सिटी नहीं है और न ही हो सकती है क्योंकि कोई भी यूनिवर्सिटी जिसे राष्ट्रीय महत्व का संस्थान घोषित किया गया है वह अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान नहीं हो सकता है। 
यह यूनिवर्सिटी हमेशा से राष्ट्रीय महत्व का संस्थान रहा है। केंद्र ने कहा है कि आजादी से पहले भी यह यूनिवर्सिटी राष्ट्रीय महत्व का शैक्षणिक संस्थान रहा है।
केंद्र ने कहा कि बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी (बीएचयू) की तर्ज पर स्थापित इस यूनिवर्सिटी का चरित्र राष्ट्रीय है और एएमयू को किसी भी धर्म या धार्मिक संप्रदाय की शैक्षणिक संस्था नहीं कहा जा सकता।  केंद्र ने 1967 के अजीज बाशा केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए कहा है कि उस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा नहीं मांग सकता है। 

सुप्रीम कोर्ट में दायर अपनी लिखित दलीलों में सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा है कि पूर्व की केंद्र सरकार का रुख 1967 में दिए गए अजीज बाशा केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के उलट था। वर्ष 2016 में केंद्र सरकार ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक दर्जे के लिए दिया गया अपना समर्थन वापस ले लिया था।  

मंगलवार को हुई इस सुनवाई में याचिकाकर्ता की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन ने दलील दी कि शुरुआत से ही अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का चरित्र अल्पसंख्यक, खास कर मुस्लिम प्रधान रहा है। उन्होंने तर्क दिया कि इस यूनिवर्सिटी के स्थापत्य से लेकर शिक्षा सिलेबस और प्रशासन, कुलपति एवं फैकल्टी में भी मुसलमान  का ही योगदान या बाहुल्य रहा है. यहां आधुनिक के साथ पारंपरिक इस्लामी शिक्षा भी दी जाती है। 

लॉ से जुड़ी खबरों की वेबसाइट लाइव लॉ के मुताबिक वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन ने कहा कि हम सिर्फ अनुच्छेद 30 की कानूनी व्याख्या की प्रक्रिया में नहीं हैं, बल्कि पूरी प्रक्रिया को देखने की प्रक्रिया में हैं। अगर बाशा सही हैं, तो कोई भी विश्वविद्यालय अल्पसंख्यक नहीं हो सकता। सभी डीम्ड विश्वविद्यालयों को वैधानिक चरित्र की आवश्यकता होती है। यह निहितार्थ अत्यंत महत्वपूर्ण है।  
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क्या है अजीज बाशा बनाम भारत संघ का मामला

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान है या नहीं इसको लेकर सबसे पहले 1967 में एस अजीज बाशा बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया था। तब इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों की पीठ ने कहा था कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना या प्रबंधन मुस्लिम अल्पसंख्यक द्वारा नहीं किया गया था। 

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में योग्य नहीं है। तब सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को केंद्रीय विधायिका द्वारा अस्तित्व में लाया गया था न कि मुस्लिम अल्पसंख्यक द्वारा लाया गया था। 
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक संस्थान मानने के पीछे तर्क दिया जाता है कि संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन करने का अधिकार प्रदान करता है। इसी अनुच्छेद के आधार पर एएमयू को भी यह दर्जा मिलने का दावा किया जाता है। 

लाईव लॉ की रिपोर्ट के मुताबिक अनुच्छेद 30(1) धर्म या भाषा के आधार पर अल्पसंख्यकों को अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और प्रशासित करने का अधिकार प्रदान करता है।  नतीजतन, अनुच्छेद 30(2) शैक्षणिक संस्थानों को सहायता देने में, राज्य को धर्म या भाषा के आधार पर ऐसे किसी भी अल्पसंख्यक संस्थान के खिलाफ भेदभाव करने से रोकता है। 

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क़मर वहीद नक़वी
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