दिल्ली नगर निगम के 4 दिसंबर को होने वाले चुनावों पर पूरे देश की नजर है। क्यों न हो! दिल्ली देश की राजधानी है और यहाँ की हर राजनीतिक धमक की आवाज़ दूर तक जाती है। आज की बीजेपी और पुराने जनसंघ ने सबसे पहला चुनाव दिल्ली नगर निगम का ही जीता था और उसके बाद देश की राजनीति में एक नए दल ने कदम रखा था। 1958 की 80 सदस्यों वाली नगर निगम कभी तीन हिस्सों में बंटी और फिर अब एक हुई है। सदस्यों की संख्या 272 तक बढ़ते हुए अब घटकर 250 पर आ गई है।
दिल्ली नगर निगम ने देश की राजनीति को जनसंघ (अब भाजपा) के रूप में नई पार्टी दी और तो अब दस साल पहले बनी आम आदमी पार्टी के भविष्य को भी नगर निगम से जोड़कर देखा जा रहा है। 2013 के बाद दिल्ली की राजनीति में अपने पैर अंगद की तरह जमाने वाली आम आदमी पार्टी अब तक नगर निगम चुनाव नहीं जीत पाई। 2017 में वह बीजेपी को मात नहीं दे पाई थी। इस बार गुजरात और हिमाचल के साथ-साथ दिल्ली में भी वह अपने विस्तार की राह तलाश रही है।
दिल्ली नगर निगम के चुनाव किन मुद्दों पर लड़े जाएंगे, यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण सवाल है। महत्वपूर्ण इसलिए क्योंकि उसी से हार-जीत भी तय होने वाली है। बीजेपी नहीं चाहती कि दिल्ली नगर निगम के चुनाव नगर निगम की समस्याओं पर ही हों। वह इसलिए क्योंकि बीजेपी भी जानती है कि अगर चुनाव नगर निगम के मुद्दे पर हुए तो फिर उसकी नैया डगमगा सकती है। दिल्ली में अगर कूड़े के सवाल पर वोटिंग होगी या फिर नगर निगम के स्कूलों, अस्पतालों, गलियों-कूचों के रख-रखाव, प्रॉपर्टी टैक्स, पार्क या पार्किंग पर बात होगी तो फिर बीजेपी के लिए जवाब देना भारी पड़ सकता है।
यह सच है कि 2012 के विभाजन के बाद से ही दिल्ली नगर निगम को आर्थिक संकटों से गुजरना पड़ रहा है। शीला दीक्षित ने जब 2012 में नगर निगम को तीन हिस्सों में बाँटा था, तभी यह सवाल उठ खड़ा हुआ था कि नगर निगम को फंड कौन देगा? इससे पहले नगर निगम का फंड सीधे केंद्र सरकार से ही आता था। सभी को यह शंका थी कि उत्तरी दिल्ली नगर निगम और पूर्वी दिल्ली नगर निगम दोनों ही अपना फंड इकट्ठा नहीं कर सकते। इन दोनों नगर निगमों का ख़र्चा ज़्यादा है और आमदनी बहुत कम। शीला दीक्षित ने तब दिल्ली सरकार में स्थानीय निकाय विभाग बनाकर आश्वासन दिया था कि यह विभाग नगर निगम की तमाम ज़रूरतों को पूरा करेगा।
बीजेपी इसलिए भी नहीं चाहती कि दिल्ली का चुनाव नगर निगम के मुद्दे पर ही हो कि वह केजरीवाल को नगर निगमों को फंड न देने के सवाल पर अब तक उन्हें खलनायक के रूप में पेश ही नहीं कर सकी।
उल्टे आम आदमी पार्टी ने पिछले तीन सालों में लगातार अभियान से बीजेपी पर भ्रष्टाचार के इतने आरोप लगाए हैं कि उसके पार्षदों की छवि बहुत ज़्यादा ख़राब हो चुकी है। इसी ख़राब छवि के कारण बीजेपी को अपने 70 फीसदी उम्मीदवार बदलने पड़े हैं।
अब अरविंद केजरीवाल चाहते हैं कि किसी भी तरह नगर निगम के चुनावों को दिल्ली के मुद्दों पर लाकर ही केंद्रित कर दिया जाए। इसीलिए उन्होंने अपनी जो 10 गारंटियाँ दी हैं, वो सभी नगर निगम के अधिकार क्षेत्र में ही आने वाली समस्याएँ हैं।
दूसरी तरफ़ बीजेपी इन चुनावों को एक बार फिर 2017 के चुनावों की तरह ही अरविंद केजरीवाल की सरकार पर जनता का जनमत संग्रह बनाना चाहती है। पिछले छह महीनों में दिल्ली के नए उपराज्यपाल के आने के बाद बीजेपी ने केजरीवाल सरकार और उसके मंत्रियों पर इतने हमले बोल दिए हैं कि उनका कोई जवाब केजरीवाल के पास नहीं है। बीजेपी को यह मालूम है कि दिल्ली में अगर चुनाव जीतना है तो फिर केजरीवाल को निशाने पर रखकर ही जीता जा सकता है। दिल्ली की जनता केजरीवाल की मुफ्त की रेवड़ियों पर मंत्रमुग्ध है। 2015 में 67 और 2020 में 62 सीटें जीतने का यही मूलमंत्र है। आम आदमी पार्टी को वोट देने वाली जनता को इस बात से कोई सरोकार नहीं होता कि उसका उम्मीदवार कौन है। वे तो उस केजरीवाल पर अभिभूत हैं जिसने बिजली का बिल माफ कर दिया है, पानी का बिल तो आता ही नहीं है, बस में महिलाओ की यात्रा फ्री है और मुफ्त में तीर्थ यात्रा भी कराता है। इसलिए अगर बीजेपी केजरीवाल पर ही सीधा हमला कर रही है और यह बताने की कोशिश कर रही है कि केजरीवाल बेइमान हैं और उनके मंत्री महा बेइमान तो इसी से ही वह जनता पर छाए नशे को तोड़ने की कोशिश कर सकते हैं।
2017 के चुनाव से ठीक पहले आम आदमी पार्टी पंजाब का चुनाव हार गई थी और दिल्ली का राजौरी गार्डन उपचुनाव भी हारा था यानी एक निराशा का माहौल था। दूसरे, उस चुनाव से ठीक पहले शुंगलू कमेटी की रिपोर्ट आई थी जिसने केजरीवाल सरकार पर कई गंभीर आरोप लगाए थे।
इनमें केजरीवाल द्वारा आम आदमी पार्टी के समर्थकों की भारी वेतन में नियुक्तियों और विदेश यात्राओं पर सवाल उठाए थे। केजरीवाल के लिए उन आरोपों का जवाब देना भारी पड़ गया था। इसीलिए वह चुनाव नगर निगम में बीजेपी के कामकाज पर न होकर केजरीवाल की सरकार पर जनमत संग्रह बन गया था।
इस बार भी बीजेपी बड़ी चालाकी से चुनावों को उसी पिच पर ले जाने की कोशिश कर रही है। केजरीवाल के एक मंत्री सत्येंद्र जैन तो मनी लॉन्ड्रिंग मामले में पहले ही जेल में हैं, शराब घोटाला और शिक्षा घोटाला प्रकाश में आने के बाद मनीष सिसोदिया की छवि को भी काफी चोट पहुँच चुकी है। अब जल बोर्ड घोटाले में केजरीवाल का नाम आने और सुकेश चंद्रशेखर के सीधे आरोपों से केजरीवाल सवालों के घेरे में आ चुके हैं। बड़ी बात यह है कि इन सवालों का कोई जवाब भी नहीं आ रहा। हर सवाल के जवाब में आम आदमी पार्टी के नेता यही कहते नजर आते हैं कि आप पहले अपने ऊपर लगे आरोपों का जवाब दो तो हम जवाब देंगे। बार-बार किए गए सवालों का जवाब फिर भी नहीं आ रहा। जाहिर है कि बीजेपी लगातार सवाल भी इसलिए पूछ रही है कि पूरा चुनाव इन्हीं आरोपों के साये में लड़ा जाए और नगर निगम के मुद्दों पर कोई चर्चा ही नहीं हो।
अब देखना यह है कि नगर निगम चुनावों के मुद्दे तय करने में किसे कामयाबी मिलती है। 2017 में अगर बीजेपी कामयाब हो गई थी तो 2020 के विधानसभा चुनावों में उसे हिंदूवाद के अपने नारों के कारण मुंह की खानी पड़ी थी। केजरीवाल पर आग उगलते आरोपों का उल्टा असर हुआ था। इस बार क्या होगा, यह 7 दिसंबर को पता चलेगा जब नगर निगम चुनावों की वोटिंग होगी। बहरहाल, दोनों ही पार्टियाँ चुनावी पिच के लिए अपने-अपने मुद्दे तय कर चुकी हैं।
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