जेएनयू में हुई हिंसा को लेकर दिल्ली पुलिस लगातार सवालों के घेरे में है। अंग्रेजी न्यूज़ चैनल ‘इंडिया टुडे’ के स्टिंग ऑपरेशन ने उसकी भूमिका को लेकर उठ रहे सवालों में कई और सवाल जोड़ दिये हैं। स्टिंग ऑपरेशन में एबीवीपी का कार्यकर्ता होने का दावा करने वाला अक्षत अवस्थी नाम का शख्स चैनल के अंडर कवर रिपोर्टर से साफ़-साफ़ कह रहा है कि ड्यूटी में मौजूद पुलिस अफ़सर ने उसे वामपंथी छात्रों को मारने के लिए कहा था। अवस्थी ने यह भी कहा कि पुलिस कैंपस के अंदर थी न कि बाहर।
अक्षत अवस्थी का स्टिंग ऑपरेशन निश्चित रूप से बेहद चौंकाने वाला है। जब उससे पूछा जाता है कि क्या पुलिस ने उन लोगों की, एबीवीपी की मदद की। इस पर अवस्थी ने कहा, ‘पुलिस किसकी है सर।’
समाज, राजनीति के बारे में सामान्य सी जानकारी रखने वाला भारत का कोई आम शख़्स भी इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रहा है कि देश की राजधानी में स्थित और दुनिया में प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी, जहां सुरक्षा के बेहद पुख़्ता इंतजाम हैं, वहां लगभग 50 नक़ाबपोश गुंडे आए, तीन घंटे तक छात्राओं और टीचर्स को पीटते रहे लेकिन पुलिस को भनक तक नहीं लगी।
पुलिस से सवाल यह है कि जेएनयू के अंदर जब तक ये नक़ाबपोश गुंडे कहर मचाते रहे तब तक कैंपस के अंदर और जेएनयू की ओर जाने वाली सड़कों की लाइट स्विच ऑफ़ रही। यह लाइट किसने स्विच ऑफ़ की?
सीबीआई करे जांच: पूर्व डीजीपी
स्टिंग सामने आने के बाद पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह ने ‘इंडिया टुडे’ से कहा कि इस मामले में पुलिस की भूमिका संदेहपूर्ण है और सीबीआई को इसकी जांच करनी चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि इस मामले में सबसे पहले विभागीय जांच होनी चाहिए और आला अफ़सरों को एक्शन लेना चाहिए। पूर्व डीजीपी ने जोर देकर कहा कि दोषी पाये जाने वाले पुलिसकर्मियों के ख़िलाफ़ सख़्त एक्शन होना चाहिए।
अब फिर से पढ़िए कि अक्षत अवस्थी ने क्या कहा। अवस्थी ने कहा था कि ड्यूटी में मौजूद पुलिस अफ़सर ने उन्हें वामपंथी छात्रों को पीटने के लिए कहा था और यह भी कहा कि पुलिस ने एबीवीपी की मदद की। इसके बाद पुलिस की भूमिका पर तो सवाल खड़े होंगे ही होंगे।
भाग गए पुलिसकर्मी: सिक्योरिटी गार्ड
पुलिस की भूमिका को लेकर स्टिंग ऑपरेशन में जेएनयू के सिक्योरिटी गार्ड ने जो कहा है, उन सवालों का जवाब पुलिस कैसे देगी। हिंसा वाले दिन 5 जनवरी को सिक्योरिटी गार्ड जीवी थापा कैंपस में तैनात थे और उस शाम उनकी ड्यूटी सरस्वतीपुरम गेट पर थी। थापा ने अंडर कवर रिपोर्टर से कहा कि 5 जनवरी को शाम 7 बजे के आसपास 10-15 लड़के आए और गेट तोड़कर धमकी देकर कैंपस में जबदस्ती घुस गए। गार्ड ने कहा, ‘लड़कों ने मुझसे कहा कि क्या तू भी मार खाना चाहता है? कई लोगों ने शॉल ओढ़ा हुआ था।’ मैंने पुलिसकर्मियों को बताया लेकिन वे भाग गए। एक पुलिसकर्मी को बुलाया तो उसने कहा कि मेरी ड्यूटी नहीं है। मेरे सीनियर को बताओ।’
जेएनयू में हुई हिंसा के बाद दुनिया भर के लोगों ने सोशल मीडिया पर देखा कि किस तरह नक़ाबपोश गुंडे हाथ में डंडे लिये हुए कैंपस से बाहर निकले। वे बेख़ौफ़ थे और डंडे लहरा रहे थे। जबकि तब तक पुलिस कैंपस में पहुंच चुकी थी। पिटाई में घायल हुईं टीचर्स का भी कहना है कि उस दौरान पुलिस कैंपस में थी और अक्षत अवस्थी तो साफ़ कह चुका है कि पुलिस कैंपस के अंदर थी।
इस तरह ये सारी बातें पुलिस के ख़िलाफ़ जाती हैं। वह इस बात का जवाब नहीं दे सकी है कि वह 23 बार कॉल करने के बाद भी कैंपस में क्यों नहीं गई। जेएनयू छात्रसंघ की अध्यक्ष आइशी घोष ने पुलिस को 3 बजे वॉट्सऐप किया कि कुछ लोग डंडों और हथियारों के साथ एडमिनिस्ट्रेटिव ब्लॉक के पास इकट्ठा हो गए हैं लेकिन पुलिस ने कुछ नहीं किया। शाम को 5.47 बजे आइशी ने फिर वॉट्सऐप किया कि आरएसएस से जुड़े लोग कैंपस से अंदर घुस गए हैं लेकिन पुलिस ने कुछ नहीं किया। जबकि पुलिस की ओर से इन सभी मैसेज को देख भी लिया गया था।
ख़ामोश क्यों है पुलिस?
शक की सुई घूम-फिर के फिर से पुलिस पर ही आकर टिक जाती है। पुलिस बजाय इसके कि वह उस पर खड़े हो रहे सवालों का ख़ुलासा करे, वह यह कहानी बता रही है कि 1 से 5 जनवरी तक रजिस्ट्रेशन हो रहा था, वामपंथी छात्र संगठन छात्रों को धमका रहे थे, 4 जनवरी को सर्वर रूम में तोड़फोड़ हुई लेकिन वह इसे लेकर ख़ामोश है कि ये नक़ाबपोश गुंडे कौन थे, किसने उन्हें एक बेहद प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी के कैंपस के अंदर लाठी-डंडों के साथ घुसने दिया, कैसे वे 3 दिन घंटे तक उत्पात मचाते रहे और आसानी से निकल गए।
पुलिस ने अपनी एफ़आईआर में लिखा है कि जेएनयू प्रशासन ने उसे 3.45 बजे पेरियार हॉस्टल में मारपीट की सूचना दी और दख़ल देने की अनुमति दी। दिल्ली पुलिस के डीसीपी देवेंद्र आर्य ने 'हिंदुस्तान टाइम्स' से कहा है कि 40-50 अज्ञात लोग जिन्होंने मुंह ढका हुआ था, वे हॉस्टल में घुसकर तोड़फोड़ कर रहे थे और छात्रों पर हमला कर रहे थे। उन्होंने कहा कि पुलिस को देखकर ये नक़ाबपोश भाग गए।
सवाल यह है कि पुलिस ने हिंसा होने के बाद यह क्यों कहा कि उसके पास जेएनयू प्रशासन की अनुमति नहीं थी, इसलिए वह अंदर नहीं गई और उसे यह अनुमति 7.45 पर मिली जबकि पुलिस की एफ़आईआर में लिखा है कि उसे 3.45 पर कैंपस के अंदर मारपीट की सूचना मिल गई थी और ख़ुद डीसीपी कह रहे हैं कि 7 बजे पुलिस कैंपस के अंदर थी।
दिल्ली देश की राजधानी है और पूरे देश से लोग यहां रोजी-रोटी कमाने, व्यवसाय करने आते हैं। पुलिस पर जिम्मा है कि वह क़ानून व्यवस्था को बनाए रखे। लेकिन पहले वकीलों के साथ मुठभेड़ होने और फिर जेएनयू में हिंसा होने को लेकर दिल्ली पुलिस सवालों के घेरे में आ गई है। शायद दिल्ली पुलिस को यह पता होना चाहिए कि जेएनयू के प्रकरण से उसकी छवि को कितना गहरा नुक़सान हुआ है। पुलिस का आम लोग इसलिए सम्मान करते हैं कि वह न्याय व्यवस्था को बनाए रखेगी और आम लोगों की सुरक्षा करेगी। लेकिन यहां तो एबीवीपी का कार्यकर्ता होने का दावा कर रहा छात्र कह रहा है कि पुलिस ने उससे कहा कि वामपंथियों को पीटो। ऐसे में दिल्ली पुलिस ने अपने अच्छे कामों से जो प्रतिष्ठा कमाई है, वह तो चली ही जाएगी, आम लोगों का भरोसा भी उससे हमेशा के लिए उठ जाएगा, इसलिए ज़रूरी है कि वह समय रहते चेत जाए।
अपनी राय बतायें