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क्या अरविंद केजरीवाल को छोड़ना पड़ सकता है सरकारी बंगला?

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को अपना घर फिर बदलना पड़ सकता है। वह 6 फ्लैगशिप रोड के इस सरकारी बंगले में मार्च 2015 में आए थे तो शायद यह नहीं सोचा था कि यह बंगला जल्दी ही खाली भी करना होगा।
साल 2015 में आम आदमी पार्टी की 67 सीटों की जीत के बाद उन्होंने साफ़-साफ़ कहा था कि अभी वह 15 साल दिल्ली की गद्दी से हटने वाले नहीं हैं। दिल्ली की गद्दी के साथ-साथ इस सरकारी बंगले के बारे में उन्होंने यही सोचा होगा। जिस रफ्तार और अंदाज में वह चल रहे हैं, उसे देखकर 15 साल का लक्ष्य हासिल करना बहुत कठिन नहीं  लगता।

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80 साल पुराना यह बंगला अब जिस हालत में है और जिस तरह जर्जर होता जा रहा है, उसे देखते हुए लगता है कि केजरीवाल को यह बंगला छोड़ना पड़ सकता है।

जर्जर बंगला

पिछले दिनों इस बंगले के एक कमरे की छत जिस तरह गिरी और उसकी मरम्मत के प्रयास में बाथरूम की छत भी धराशायी हो गई, उसे देखते हुए भविष्य में बड़ी दुर्घटना की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। दिल्ली का लोक निर्माण विभाग इस बंगले की सुरक्षा की समीक्षा कर रहा है।
आमतौर पर ऐसे बंगलों की उम्र 50 साल ही होती है जो कब की पूरी हो चुकी है। अब इसकी या तो पूरी तरह मरम्मत हो या फिर इसे गिराकर नई बिल्डिंग बनाई जाए। दोनों ही हालात में केजरीवाल को यह बंगला छोड़ना पड़ सकता है। वैसे भी, कोई नहीं चाहेगा कि दिल्ली का सीएम इस तरह की असुरक्षित बिल्डिंग में रहे। 

बंगलों पर रहती है नज़र

दिल्ली ऐसा राज्य नहीं है जहाँ मुख्यमंत्रियों या विधायकों के रहने के लिए स्थायी रूप से बंगले बने हों। सरकारी मकानों का दिल्ली में वैसे ही टोटा रहता है। चूंकि दिल्ली बहुत छोटा राज्य है, इसलिए यहाँ सिर्फ मुख्यमंत्री और मंत्रियों या फिर विधानसभा अध्यक्ष को रहने के लिए सरकारी बंगला दिया जाता है। विपक्ष के नेता को भी सरकारी कोठी मिलती है और उसके लिए विपक्ष का नेता बनने की होड़ लगी रहती है। बाकी विधायक इन सरकारी बंगलों की तरफ रश्क से देखते रहे हैं।
एक बार कांग्रेस के विधायक मुकेश शर्मा ने विधानसभा में यह निजी बिल पेश किया था कि सारे विधायकों को भी फ़्लैट अलॉट किए जाएं ताकि वे अपनी सरकारी ज़रूरतों को पूरा कर सकें, लेकिन वह माँग नहीं मानी गई।

मदन लाल खुराना

जब मदन लाल खुराना 1993 में  दिल्ली के पहले मुख्यमंत्री बने थे तो उन्होंने अपना घर कीर्ति नगर में ही रखा था। उन्हें 33 शामनाथ मार्ग की कोठी अलॉट हुई थी, लेकिन वह अपने परिवार के साथ उसमें रहने कभी नहीं आए। इस कोठी को उन्होंने मेहमानों की आवभगत के लिए ही रखा हुआ था। 

इस कोठी के बारे में यह कहा जाता था कि इसमें जो भी रहने आता है, वह बर्बाद हो जाता है। खुराना इस कोठी में रहने नहीं आए, फिर भी वह अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सके। जैन हवाला कांड में इस्तीफ़ा देने के बाद वह दोबारा दिल्ली का सीएम बनने का सपना कभी पूरा नहीं कर सके।

साहिब सिंह वर्मा

उनकी जगह साहिब सिंह वर्मा मुख्यमंत्री बने, लेकिन वह मंत्री के रूप में मिले बंगले 9 शामनाथ मार्ग से ही राजकाज चलाते रहे। ये दोनों ही बंगले ओल्ड सेक्रेटेरियट के इतने पास हैं कि सीएम को अपने घर पर अलग से कैम्प ऑफिस बनाने की ज़रूरत ही नहीं थी। उन दिनों दिल्ली सरकार ओल्ड सेक्रेटेरियट से ही चला करती थी। आईटीओ के पास नए सचिवालय में तो यह 2001 के बाद आई। नया सचिवालय असल में 1982 एशियाड में एक होटल प्रस्तावित था, लेकिन समय पर होटल नहीं बन सका और सरकार को कई साल बाद यह सचिवालय के रूप में पसंद आ गया। 

शीला दीक्षित

1998 में दिल्ली में बीजेपी की हार, कांग्रेस की जीत और शीला दीक्षित का मुख्यमंत्री बनना एक बड़ी राजनीतिक घटना थी। शीला दीक्षित ने शुरू में जंगपुरा के अपने घर से ही सरकार चलाई, लेकिन जल्दी ही वह प्रगति मैदान के सामने एबी-17 की कोठी में शिफ्ट हो गई थीं जहाँ अब उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया रहते हैं।
इस कोठी में उनका अपना पहला कार्यकाल पूरा किया था, लेकिन दूसरे कार्यकाल में उन्हें मोतीलाल नेहरू मार्ग का एक नंबर बंगला अलॉट हो गया था, जहां वह 2013 का चुनाव हारने तक रहीं। इस बंगले में अब पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह रहते हैं।

2013 में चुनावों से पहले अरविंद केजरीवाल जनता को यह समझाने की कोशिश करते थे कि कांग्रेस सरकार जनता के पैसे पर सरकारी बंगलों में ऐश करती है। उन्होंने सरकारी बंगला, गाड़ी और बाकी सुविधाएं न लेने का वादा किया।

छोटा घर, मेट्रो की सवारी

यही वजह है कि उन्होंने जब पहली बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली तो मेट्रो में सवार होकर आए थे ताकि आम आदमी की छवि को जनता के मन में उतार सकें। शपथ लेने के बाद उन्होंने छोटा घर लेने की बात यह कहते हुए मानी थी कि यह सरकारी कामकाज का तकाजा है। इसीलिए उन्हें तिलक लेन पर 4 कमरों का फ्लैट मिला था। वह जनता को यह दिखाना चाहते थे कि मैंने जो कहा, उसी पर कायम हूं।
लेकिन जब 49 दिन की सरकार ने इस्तीफ़ा दे दिया तो केजरीवाल को वह घर छोड़ना पड़ा। वह बेटी के 12वीं की परीक्षा के कारण वह कुछ दिन वहां टिके रहे, लेकिन बाद में कौशांबी में गिरनार अपार्टमेंट चले गए थे।
फरवरी 2015 में जब केजरीवाल दोबारा मुख्यमंत्री बने तो सरकारी बंगला, गाड़ी और बाकी सुविधाएं न लेने का वादा भूल गए। यह वादा उन्हें इसलिए भी भूलना पड़ा कि 49 दिनों की सरकार में उन्हें यह अहसास हो गया कि राजकाज चलाने के लिए यह सब भी ज़रूरी होता है।

बंगले की क्या ज़रूरत?

मुख्यमंत्री कोई आम आदमी नहीं होता। वह पद पर आते ही ख़ास हो जाता है। उससे मिलने देशी-विदेशी मेहमान आते हैं। अगर वह पार्टी का सर्वेसर्वा हो तो पार्टी की भी मीटिंग करनी होती हैं। निगम पार्षदों और विधायकों को भी बुलाकर बात करनी होती है। अपने घर पर अफ़सरों की मीटिंग भी करनी होती हैं। लोग बधाई देने और मांग पत्र देने भी आते हैं। इसलिए लॉन की भी ज़रूरत होती है।
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खैर, इन सब जरूरतों को पूरा करने के लिए केजरीवाल को सिविल लाइंस जैसे पॉश इलाके में 6 फ्लैगशिप रोड वाला बंगला पसंद आ गया और 2015 में वह तामझाम के साथ उसमें शिफ्ट भी हो गए। पसंद की वजह यह भी थी कि इसमें चार बेडरूम, एक डाइनिंग, एक ड्राइंग रूम, दो सर्वेंट रूम और दो बड़े लॉन थे। केजरीवाल ने इसमें बदलाव करते हुए अपने लिए एक बड़ा हॉल बनवा लिया था, जिसमें मीटिंग कर सकें। 

अब अगर लोक निर्माण विभाग इस बंगले को असुरक्षित कह देता है तो बंगले को खाली करना लाज़िमी होगा। ऐसी हालत में केजरीवाल इस बंगले को असुरक्षित मानकर खाली करते हैं तो उनके लिए नया बंगला ढूंढना आसान काम नहीं होगा।
दिल्ली के बंगलों पर केंद्र का कब्जा है और केंद्र में बैठी बीजेपी सरकार उनके मनमाफ़िक या पसंद का बंगला आसानी से नहीं देगी। आम आदमी पार्टी को केंद्र पर आरोप लगाने का एक मुद्दा भी मिल जाएगा। अब देखना यह है कि केजरीवाल का न्यारा बंगला कौन-सा होता है और कहाँ होता है।

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दिलबर गोठी
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