यह महज संयोग नहीं है कि 1970 के दशक में जब आज़ादी से मोहभंग की बात होने लगी थी,  छात्र-युवा ग़ुस्से में थे, सड़कों पर आंदोलन हो रहे थे, ठीक उसी समय एक नया नायक इस ग़ुस्से को रुपहले पर्दे पर उतार रहा था। आज़ादी के बाद के देश की पॉलिटिकल-इकोनॉमी ही नहीं, बल्कि सामाजिक संघर्ष के लिहाज से 1970 का दशक एक अहम मोड़ है। यह भी संयोग नहीं है कि “ग़रीबी हटाओ” के नारे के साथ सत्ता में आने वाली इंदिरा गांधी दो-तीन सालों के बाद ही जेपी की अगुआई में एकजुट हो रहे विपक्ष ही नहीं, बल्कि मध्य वर्ग के निशाने पर भी थीं। यह आज का मध्य वर्ग नहीं था, जो पहली फुर्सत में अपनी कार अपडेट करना चाहता है या टू-बीएचके से थ्री-बीएचके अपार्टमेंट में शिफ्ट होना चाहता है। वह आज जैसा आत्म केंद्रित मध्य वर्ग भी नहीं था, जो किसानों और फैक्ट्री या दिहाड़ी मजदूरों को किसी भी तरह की जायज सरकारी मदद को खैरात की तरह देखता है। वह रुपहले पर्दे पर उभरे इस नए नायक के साथ खुद को खड़ा पा रहा था। यह अमिताभ बच्चन थे, जिन्होंने ज़ंजीर के विद्रोही इंस्पेक्टर के रूप में हिन्दी सिनेमा के दर्शकों के फ़िल्म देखने के तौर-तरीक़ों में पैराडाइम शिफ्ट ला दिया।