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एंग्री यंग मैन को एक पॉलिटिकल स्टेटमेंट की तरह भी देखिए

यह महज संयोग नहीं है कि 1970 के दशक में जब आज़ादी से मोहभंग की बात होने लगी थी,  छात्र-युवा ग़ुस्से में थे, सड़कों पर आंदोलन हो रहे थे, ठीक उसी समय एक नया नायक इस ग़ुस्से को रुपहले पर्दे पर उतार रहा था। आज़ादी के बाद के देश की पॉलिटिकल-इकोनॉमी ही नहीं, बल्कि सामाजिक संघर्ष के लिहाज से 1970 का दशक एक अहम मोड़ है। यह भी संयोग नहीं है कि “ग़रीबी हटाओ” के नारे के साथ सत्ता में आने वाली इंदिरा गांधी दो-तीन सालों के बाद ही जेपी की अगुआई में एकजुट हो रहे विपक्ष ही नहीं, बल्कि मध्य वर्ग के निशाने पर भी थीं। यह आज का मध्य वर्ग नहीं था, जो पहली फुर्सत में अपनी कार अपडेट करना चाहता है या टू-बीएचके से थ्री-बीएचके अपार्टमेंट में शिफ्ट होना चाहता है। वह आज जैसा आत्म केंद्रित मध्य वर्ग भी नहीं था, जो किसानों और फैक्ट्री या दिहाड़ी मजदूरों को किसी भी तरह की जायज सरकारी मदद को खैरात की तरह देखता है। वह रुपहले पर्दे पर उभरे इस नए नायक के साथ खुद को खड़ा पा रहा था। यह अमिताभ बच्चन थे, जिन्होंने ज़ंजीर के विद्रोही इंस्पेक्टर के रूप में हिन्दी सिनेमा के दर्शकों के फ़िल्म देखने के तौर-तरीक़ों में पैराडाइम शिफ्ट ला दिया।  

जाहिर है, 'एंग्री यंग मैन' के इस किरदार को गढ़ने वाले सलीम खान और जावेद अख़्तर पर केंद्रित डॉक्यूमेंट्री का नाम “एंग्री यंग मैन” से बेहतर कुछ और नहीं हो सकता था। 

वैसे तो तीन हिस्से की यह डॉक्यूमेंट्री सलीम खान और जावेद अख़्तर के बचपन से लेकर जवानी के संघर्ष को समेटे हुए है, लेकिन इसका फोकस 1970 के दशक पर ही है, जब सलीम-जावेद की जोड़ी ने पटकथा और संवाद के ज़रिये स्टारडम का शिखर छू लिया था। दीवार के बारे में सलीम दिलचस्प बात कहते हैं। वह कहते हैं कि एक मां और दो बेटे, जिसमें एक आपराधिक दुनिया में हो और दूसरा ईमानदार, इस कहानी पर पच्चीसों फ़िल्में बनी हैं, लेकिन दीवार के संवाद और कथानक ने उसे सबसे अलग कर दिया। 

बेशक, अब तक की सबसे कामयाब फिल्म शोले भी उसी दौर में आई थी, लेकिन एंग्री यंग मैन का किरदार ज़ंजीर और दीवार से ही कहीं अधिक उभरता है। दीवार का ज़िक्र इसलिए, क्योंकि तब मध्य वर्ग खुद को उस मजदूर के साथ खड़ा पा रहा था, जो हफ्ता देने से इनकार कर देता है! उस मजदूर के साथ, जो एक दिन क़ानून तोड़ते हुए ताक़तवर आदमी बन जाता है। असल में उसके भीतर व्यवस्था के ख़िलाफ़ जो ग़ुस्सा था, उसने उसे आम लोगों से जोड़ दिया था।

वास्तव में यह डॉक्यूमेंट्री 1970 के दशक का रिफ्लेक्शन है, जब हिन्दी सिनेमा राजेश खन्ना के रूमानियत से भरे सुपर स्टार वाले दौर से बाहर निकलकर रोजमर्रा की ज़िंदगी की मुश्किलों से आमना-सामना कर रहा था। बेशक, सलीम-जावेद ने इसमें पूरी नाटकीयता भरने में कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन उनकी कामयाबी के पीछे उस दौर का ग़ुस्सा था, जो कविताओं (धूमिल से लेकर सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और विनोद कुमार शुक्ल तक की उस दौर की कविता) से लेकर सड़क (गुजरात, बिहार और असम तक हो रहे आंदोलन) तक नज़र आ रहा था। हैरत इस बात की है कि इस डॉक्यूमेंट्री में अमिताभ बच्चन बहुत कम बोलते नज़र आए। 
यह भी संयोग नहीं है कि जिस दौर में अमिताभ बच्चन एंग्री यंग मैन के रूप में उभर रहे थे, तब इंदिरा गांधी सत्ता में थीं, जिनसे बच्चन परिवार के पारिवारिक संबंध थे। यह डॉक्यूमेंट्री इस पर कोई बात करती नहीं दिखती, जबकि अमिताभ विजय के किरदार में उस समय की व्यवस्था को चुनौती देते नज़र आते हैं।
यह कहना शायद ज्यादा ठीक हो कि सलीम-जावेद का विजय व्यवस्था को बदल डालना चाहता है। दरअसल 1970 के दशक के नायक और 21 वीं सदी के तीसरे दशक के नायक में यह एक बड़ा अंतर है। सलीम-जावेद के "एंग्री यंग मैन" को एक पॉलिटिकल स्टेटमेंट की तरह भी देखना चाहिए। आखिर ऐसी पॉलिटिक्स क्यों नहीं होनी चाहिए? 
सिनेमा से और

कमाल यह है कि करीब डेढ़ घंटे की यह डॉक्यूमेंट्री सलीम-जावेद के एंग्रीयंग मैन के बहाने 1970 के दशक का एक पुनरावलोकन भी करती है। जहां तक सलीम खान और जावेद अख़्तर के इस मुकाम तक पहुंचने की बात है, तो उसके पीछे पूरा एक संघर्ष है। सलीम तो फिर भी संपन्न घर से थे, लेकिन जावेद अख़्तर ने कम उम्र में ही घर छोड़ दिया था। जावेद अख़्तर अपने शुरुआती संघर्ष के बारे में बताते हुए बहुत भावुक भी हो जाते हैं। 1960 के दशक में भीड़ भरे थर्ड क्लास डिब्बे से सफर कर बॉम्बे पहुंचे जावेद अख़्तर ने नींद और भूख को लेकर जो कहा, वह समाजविज्ञान की एक नई समझ देता है। यह कहते हुए उनका गला रुंध जाता है, “नींद और भूख का अगर आपको डिप्राइवेशन है, तो कहीं न कहीं वो ऐसा मार्क आप पर छोड़ कर जाएगा कि आप भूल नहीं सकते। मैं जाता हूं फ़ाइव स्टार होटेल्स में, सुइट्स हैं, बड़े-बड़े डबल बेड हैं, उन पर मैं लेटता हूँ कभी, तो मैं याद करता हूँ जब मैं थर्ड क्लास कंपार्टमेंट में आया था बॉम्बे.... उस दिन यार इतनी सी जगह मिल जाती! सुबह ट्रॉली पे नाश्ता आता है , ब्रेकफ़ास्ट पूरा, बटर , जैम, हाफ प्राइड एक्स, कॉफ़ी - मैं सोचता हूँ तेरी औक़ात है? अभी भी ये लगता है कि ये ब्रेकफ़ास्ट मेरा नहीं है। ये किसी और का है।“ 

पटकथा और संवाद लेखन किसी भी फिल्म की बुनियाद होते हैं, लेकिन फिल्म के पोस्टरों में पटकथा और संवाद लेखकों के नाम नहीं जाते थे। यह लीक भी सलीम-जावेद ने तोड़ी। सलीम-जावेद के रास्ते कई दशक पहले ही अलग हो चुके थे, लेकिन इस डॉक्यूमेंट्री को देखने के बाद लगता है कि उनकी इस जोड़ी पर पूरी फीचर फिल्म भी बन सकती है।

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सुदीप ठाकुर
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