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मोदी को क्यों याद नहीं आते जयपाल सिंह मुंडा; वजह नेहरू तो नहीं?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने झारखंड और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों के ऐन बीच में जिस तरह से आदिवासी नायक भगवान बिरसा मुंडा को उनकी 150 वीं जयंती पर याद किया है, उसे आदिवासी वोटरों को लुभाने की एक कवायद की तरह देखा जा सकता है। 2014 में सत्ता में आने के बाद से मोदी लगातार यह दावा करते आए हैं कि देश में जो कुछ भी अच्छा हो रहा है, वह उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद से है। उनकी पूरी मशीनरी यह नया कथानक बनाने में जुटी रहती है और इसका चुनावी लाभ भी भाजपा को मिला है। स्थानीय नायकों का स्मरण इसी रणनीति का हिस्सा है। और ऐसा करते हुए मोदी सहित समूची भाजपा प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को कठघरे में खड़ा करती है कि उनकी सरकार के समय से ही ऐसे नायकों की उपेक्षा की गई। मगर शायद प्रधानमंत्री मोदी की टीम ने उन्हें याद नहीं दिलाया कि झारखंड के एक और आदिवासी नायक ने राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में पंडित नेहरू का खुलकर समर्थन किया था। यह थे, जयपाल सिंह मुंडा, जिन्होंने संविधान सभा की बैठकों में आदिवासियों के मुद्दों को पुरजोर तरीके से उठाया था।

बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को बेदह गरीब आदिवासी परिवार में हुआ था। उनकी पढ़ाई मिशनरी स्कूल में हुई थी, लेकिन वहीं रहते हुए अंग्रेजों के खिलाफ उनके मन में विद्रोह भड़क उठा था। 9 जून 1900 को महज 25 बरस की उम्र में बिरसा मुंडा की रांची के जेल में बीमारी की हालत में मौत हो गई थी। इससे करीब एक साल पहले दिसंबर 1899 में बिरसा मुंडा ने जल, जंगल और जमीन पर आदिवासियों के अधिकारों का दावा करते हुए “उलगुलान” की शुरुआत की थी। यह आंदोलन अंग्रेजी राज के खिलाफ बगावत था। इस आंदोलन में ऐलान किया गया, “अबुआ राज एते जाना, महारानी राज टुंडू जाना” यानी हमारा राज आ गया है, महारानी का राज खत्म हो गया है! अंग्रेजी राज द्वारा क्रूरता से इस आंदोलन को दबाने की कोशिश की गई। बिरसा मुंडा को बहुत कम वक्त मिला, इसके बावजूद वह आदिवासी विद्रोह के एक महानायक के रूप में हमेशा के लिए दर्ज हो गए।

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बिरसा मुंडा की मौत के करीब तीन साल बाद 3 जनवरी, 1903 को बंगाल प्रेसिडेंसी के खुंटी (अब झारखंड में) जन्मे जयपाल सिंह मुंडा भी आदिवासी आंदोलन के एक बड़े नायक बनकर उभरे। उनकी पढ़ाई भी मिशनरी के स्कूल में हुई। जयपाल मुंडा शानदार छात्र होने के साथ ही हॉकी के बेहतरीन हॉकी खिलाड़ी भी थे। हॉकी की वजह से ही उन्हें मिशनरीज ने उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड भेज दिया। 1928 में एम्सटर्डम ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम ने उनकी अगुआई में पहला स्वर्ण पदक जीता था। इसके एक दशक बाद 1938 में जयपाल मुंडा ने आदिवासी महासभा की स्थापना कर बिहार से अलग होकर झारखंड के रूप में एक आदिवासी राज्य के गठन की मांग की। 

1946 में संविधान सभा का गठन होने पर वह बिहार से निर्दलीय सदस्य के रूप में चुने गए थे। स्वतंत्र भारत में आदिवासियों की स्थिति को लेकर वह बेहद स्पष्ट थे। संविधान सभा में दिया गया जयपाल सिंह मुंडा का भाषण ऐतिहासिक दस्तावेज है, जिसमें आदिवासियों के संघर्ष और उनके शोषण को लेकर उनकी पीड़ा झलकती है।  

19 दिसंबर, 1946 को संविधान सभा में जयपाल सिंह मुंडा ने जवाहरलाल नेहरू द्वारा 13 दिसंबर, 1946 को पेश उद्देश्य प्रस्ताव पर अपनी राय रखी थी। यही प्रस्ताव बाद में संविधान की प्रस्तावना बना। इसका समर्थन करते हुए जयपाल सिंह मुंडा ने कहा, 

"...अध्यक्ष महोदय, मैं यहां लाखों अज्ञात सेनानियों, स्वतंत्रता संग्राम के गुमनाम सेनानियों की ओर से बोलने के लिए खड़ा हुआ हूं। ये वे लोग हैं, जो भारत के मूल निवासी हैं, जिन्हें पिछड़ी जनजातियां, आदिम जनजातियां, अपराधी जनजातियां और जिन्हें जाने क्या कुछ नहीं कहा जाता है, लेकिन महोदय, मुझे अपने जंगली होने पर गर्व है, यह ऐसा संबोधन है, जिससे मेरे क्षेत्र में हमें जाना जाता है। हम जिस तरह जंगलों में रहते हैं, तो हमें पता है कि इस प्रस्ताव (संविधान से संबंधित) के समर्थन करने का क्या अर्थ है। तीन करोड़ आदिवासियों की ओर से (तालियां) मैं सिर्फ इसलिए इसका समर्थन नहीं कर रहा हूं, क्योंकि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक नेता ने इसे प्रस्तुत किया है। मैं इसलिए इसका समर्थन कर रहा हूं, क्योंकि यह ऐसा प्रस्ताव है, जिसने इस देश के हर व्यक्ति की भावना को अभिव्यक्त किया है। ..... महोदय यदि भारतीय लोगों के किसी समूह के साथ सबसे बुरा बर्ताव हुआ है, तो वह मेरे लोग हैं। उनके साथ अपमानजनक व्यवहार किया गया है, छह हजार वर्षों से वे उपेक्षित हैं। ...आप आदिवासियों को लोकतंत्र का पाठ नहीं पढ़ा सकते; आपको उनसे लोकतांत्रिक व्यवहार सीखने होंगे। वे दुनिया के सबसे लोकतांत्रिक लोग हैं।"

जयपाल सिंह मुंडा कांग्रेस के सदस्य नहीं थे। वह नेहरू के भक्त भी नहीं थे, लेकिन उन्हें देश के प्रथम प्रधानमंत्री पर कितना भरोसा था, यह उनके भाषण के इस अंश से समझा जा सकता हैः 

“श्रीमान जी मैं कहता हूं कि आप मेरे समाज को प्रजातंत्र की शासन विधि नहीं सिखा सकते। मैं इसको दुबारा कहूं कि यह केवल आर्यों के दलों के पदार्पण से ही है कि प्रजातंत्र-शासन विधि के चिह्न अवसान को प्राप्त हो रहे हैं। पंडित नेहरू जवाहरलाल नेहरू ने अपनी हाल की प्रकाशित पुस्तक में इस स्थिति को बड़े सुंदर ढंग से रखा है और मेरा विचार है कि मैं उसे उद्धृत करूं। अपनी पुस्तक हिन्दुस्तान की कहानी ( Discovery Of India) में सिन्ध की तराई की सभ्यता और तद्गामी शताब्दियों का उल्लेख करते हुए कहते हैं, ‘अनेक कबाइली प्रजातंत्र शासन थे, उनमें से कुछ बड़े बड़े क्षेत्रों को घेरे हुए थे।‘

श्रीमान जी अब भी, अनेक कबाइली प्रजातंत्र होंगे वे प्रजातंत्र जो कि भारत की स्वतंत्रता के युद्ध में सबसे आगे रहेंगे। मैं ह्रदय से प्रस्ताव का समर्थन करता हूं और आशा करता हूं कि वे सदस्य जो कि अभी सम्मिलित नहीं हुए हैं, देशवासियों में वैसा ही विश्वास करेंगे। आओ हम साथ साथ बैठकर साथ-साथ काम कर साथ ही साथ लड़ें। तभी हमें वास्तविक स्वतंत्रता प्राप्त होगी।“ 

यही नहीं, जयपाल सिंह मुंडा ने अपने भाषण में पंडित नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित का भी उल्लेख किया और अधिक महिलाओं की भागीदारी की वकालत की।

उन्होंने कहा,

“ … श्रीमान जी, आदिवासियों से मेरा आशय केवल पुरुषों से ही नहीं, स्त्रियों से भी है। संविधान सभा में बहुत से पुरुष हैं। हम अधिक स्त्रियां चाहते हैं- श्रीमती विजयलक्ष्मी जैसी स्त्रियां, जिन्होंने इस जाति विशिष्टता का संहार कर अमेरिका में विजय पा ही ली।...”

 संविधान सभा में आदिवासियों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व न होने पर जयपाल सिंह मुंडा क्षुब्ध थे, लेकिन उन्हें पंडित नेहरू पर भरोसा था कि वे आदिवासियों के साथ अन्याय नहीं होने देंगे। 24 जनवरी, 1947 को सलाहकार समिति के गठन के संबंध में संविधान सभा में हुई बहस में जयपाल सिंह मुंडा ने कहा, 

“ ... मैं कांग्रेस के नेताओं को बधाई देता हूं और उन अल्पसंख्यकों को भी जो अपनी जनसंख्या के अनुपात से कहीं अधिक जगह पा गए हैं। सिखों, ईसाइयों, एंग्लो इंडियन और पारसियों को उनके लिए प्राप्य जगह से अधिक जगहें दी गई हैं। मैं उनसे ईर्ष्या नहीं करता, पर यह सच है...जबकि हमारे लोगों की जो इस देश के असली और प्राचीन निवासी हैं, स्थिति भिन्न है। फिर भी मैं असंतोष प्रकट नहीं करता। मेरे उद्देश्य के लिए तो केवल पंडित जी को रखना काफी होगा, लेकिन वह सदस्य नहीं हैं। मैं इस देश के सभी आदिवासियों और कबीलों का हित पंडित जवाहरलाल नेहरू के हाथों में सौंप दूंगा और फिर मुझे भी उपस्थित रहने की ज़रूरत नहीं है।...”

विश्लेषण से और
जयपाल सिंह मुंडा को नेहरू पर कितना भरोसा था, इसका एक और प्रमाण मिला 22 जुलाई, 1947 को जब संविधान सभा में तिरंगे से संबंधित प्रस्ताव स्वीकार किया गया था।

बहस में हिस्सा लेते हुए जयपाल सिंह मुंडा ने कहा,

“महोदय, आदिवासी सबसे पहले ध्वज फहराने वाले और अपने झंडों के लिए लड़ने वाले लोग थे। तथाकथित बिहार प्रांत से आने वाले सदस्य मेरी इस बात का समर्थन करेंगे कि हर साल छोटा नागपुर में होने वाले मेलों, जात्राओं और त्यौहारों में जब भी विभिन्न जनजातियाँ अपने झंडों के साथ मैदान में उतरती हैं, तो प्रत्येक जनजाति को एक निश्चित मार्ग से ही जात्रा में आना चाहिए और कोई भी अन्य जनजाति उसी मार्ग से मेले में प्रवेश नहीं कर सकती। प्रत्येक गाँव का अपना झंडा होता है और उस झंडे की नकल कोई अन्य जनजाति नहीं कर सकती। यदि कोई उस झंडे को चुनौती देने की हिम्मत करता है, तो श्रीमान्, मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि वह जनजाति उस झंडे के सम्मान की रक्षा के लिए अपने खून की आखिरी बूँद तक बहा देगी। इसके बाद, दो झंडे होंगे, एक झंडा जो पिछले छह हजार वर्षों से यहाँ है और दूसरा यह राष्ट्रीय ध्वज होगा जो पंडित जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में हमारी स्वतंत्रता का प्रतीक है। यह राष्ट्रीय ध्वज भारत के आदिवासियों को एक नया संदेश देगा कि पिछले छह हजार वर्षों से स्वतंत्रता के लिए उनका संघर्ष आखिरकार समाप्त हो गया है और वे अब इस देश में किसी भी अन्य की तरह स्वतंत्र होंगे। महोदय, भारत के आदिवासियों की ओर से पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा हमें भेंट किए गए ध्वज को स्वीकार करते हुए मुझे बहुत खुशी है।“

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शायद ही कभी जयपाल सिंह मुंडा का उल्लेख करते हैं। आखिर इसकी वजह क्या है? क्या इसलिए कि जयपाल सिंह मुंडा प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पर भरोसा करते थे? या इसलिए कि जयपाल सिंह मुंडा ने ईसाई धर्म अपना लिया था और उस समावेशी सेकुलर विचारधारा के लिए लड़ते रहे, जो मौजूदा सत्ता की हिंदुत्व की विचारधारा का प्रतिलोम है?

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सुदीप ठाकुर
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