सोनीलिव पर आ रही वेब सीरीज़ ‘अनदेखी’ में बरुन घोष की प्रभावकारी भूमिका से दिब्येन्दु भट्टाचार्य ने सभी का ध्यान खींचा है। बरुन घोष कोलकाता पुलिस का डीएसपी है, जो सुंदरबन से दो लड़कियों की तलाश में मनाली आया है। गुलथुल शरीर का प्रौढ़ डीएसपी सिस्टम का अपने पक्ष में इस्तेमाल करते हुए ताक़तवर जमात के ख़िलाफ़ खड़ा होता है। उस किरदार में दिब्येन्दु भट्टाचार्य की सहजता और स्वाभाविकता आकर्षित करती है। उसकी बोलती-चमकती आँखों में ईमानदारी और वर्दी का आत्मविश्वास कौंधता है।
इस दिब्येन्दु भट्टाचार्य को मैं दो दशकों से जानता हूँ। उसकी इस पहचान की तैयारी का साक्षी रहा हूँ। कुछ सालों पहले देबू को तमाम प्रतिभाशाली आउटसाइडर का प्रतिनिधि बना कर मैंने कुछ लिखा था। फ़िलहाल आउटसाइडर को लेकर चल रहे विमर्श में यह प्रासंगिक हो गया है। देबू को 20 सालों के बाद ऐसी पहचान मिली है। देबू ने बगैर शिकायत किये अभिनय का अभ्यास जारी रखा और मिले अवसरों में बेहतरीन प्रदर्शन किया। कभी निराशा और हताशा को चेहरे और बातचीत में नहीं आने दिया। क्षेत्र विशेष और रंग की वजह से मेरे परिचित निर्देशकों ने भी उसे अपने प्रोजेक्ट में नहीं लिया। वे सभी धारणाओं और चलन के शिकार रहे। अभी सुना है कि वे सभी उसे याद कर रहे हैं। उसकी तारीफ़ कर रहे हैं। साथ काम करने की इच्छा जता रहे हैं...
क्या आप देबू को जानते हैं? देबू… दिब्येन्दु भट्टाचार्य। 1997 बैच का एनएसडी ग्रेजुएट। ‘मॉनसून वेडिंग’ का लॉटरी, ‘दिव्य दृष्टि’ का जीवन सावंत, ‘ऊर्फ प्रोफ़ेसर’ का ऑटो ड्राइवर, ‘अब तक छप्पन’ का नजरुल, ‘ब्लैक फ्राइडे’ का येड़ा याकूब... जितनी फ़िल्में उतने नाम। थोड़ा पीछे चलें। 10 साल हो गए, जब देबू के बैच के सारे स्टूडेंट मुंबई की तरफ़ मुखातिब हो रहे थे तो देबू ने रेपटरी ज्वाइन कर लिया। दिल्ली में नाटक किये और काफ़ी इज़्ज़त और शोहरत बटोरी। इस दरमियान देबू के बैच का राजपाल यादव सीरियल के रास्ते फ़िल्मों में आया और उसने अपनी एक जगह बना ली। देबू एक्सेप्ट नहीं करेगा लेकिन कहीं ना कहीं राजपाल की कामयाबी ने देबू को मुंबई बुला लिया। वास्तव में एक ही बैच में दोनों थे और देबू अपने बैचमेट की तुलना में अव्वल आर्टिस्ट माना जाता था। साल 2000 में देबू मुंबई आ गया। एनएसडी के तमाम टैलेंटेड आर्टिस्ट की तरह देबू ने भी स्ट्रगल आरंभ किया। प्रोड्यूसर के ऑफ़िसों के चक्कर, डायरेक्टर से मिलना और ख़ुद के लिए काम खोजना।
मिज़ाज और टैलेंट से देबू एक्स्ट्रा या क्राउड का हिस्सा बन नहीं सकता था। वह सही मौक़े की तलाश में था और आज भी है। उसकी आँखों में ग़जब की चमक है जो कैमरा ऑन होते ही रोशन हो जाती है। महेश भट्ट ने पहली मुलाक़ात में ही उसे बताया था कि तुम्हारी आँखें ही तुम्हारा ऐसेट हैं। तुम्हारे अंदर रजनीकांत जैसी इंटेंसिटी है। कोशिश करो कामयाबी मिलेगी। विक्रम भट्ट ने ‘ऐतबार’ में मौक़ा दिया और जॉन अब्राहम का दोस्त बना दिया। तब जॉन एक्टिंग की एबीसीडी सीख रहे थे।
एक इंटरव्यू में जॉन ने मुझसे देबू की तारीफ़ की और कहा कि वह बहुत टैलेंटेड है। विक्रम भट्ट उसे अपनी फ़िल्मों में छोटे रोल देते रहे और कहते रहे कि एक दिन तुम्हारे लायक रोल दूँगा। वह दिन अभी नहीं आया है।
फ़िल्म इंडस्ट्री में बड़ी कामयाबी का एक ही फ़ॉर्मूला है कि आप की एक फ़िल्म हिट हो जाए और उसमें आपका रोल नोटिस हो। देबू आज भी उस कामयाबी के इंतज़ार में है लेकिन वह एक रत्ती भी हारा या टूटा नहीं है। अनुराग कश्यप का वह चहेता एक्टर है। अनुराग की ‘देव डी’ का वह चुन्नीलाल है। उसे आमिर ख़ान पसंद करते हैं। वह ‘मंगल पाण्डेय’ के मंगल बॉयज में से एक था। उसने आमिर की संगत से सीखा की फोकस रहो और अपने इरादों को लेकर डिटरमाइंड रहो।
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उसने मधु की कमबैक फ़िल्म ‘कभी सोचा भी ना था’ में लीड किया है। विवेक अग्निहोत्री की ‘गोल’ में उसका मेजर रोल है। ‘गोल’ की शूटिंग में अरशद वारसी दोस्त बन गए।
मैं देबू की मुस्कुराहट के पीछे छिपे दर्द को देखकर कई बार सहम जाता हूँ। एक आर्टिस्ट को ऐसे रोल नहीं मिल रहे कि वह ख़ुद को साबित कर सके। देबू अकेला नहीं है। उसके और भी हमसफर हैं। सब टैलेंट और हुनर से छलछला रहे हैं लेकिन मुंबई की हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री खुली बाहों से उन्हें नहीं बुला रही है। एक रेजिस्टेंस है, एक धक्का सारे नए आर्टिस्ट महसूस करते हैं कि कोई उन्हें बाहर धकेल रहा है। क्या कमी है उनमें? कमी है कि छोटे शहरों, दूसरे शहरों और मुंबई के बाहर से आए हैं। टैलेंटेड लड़कों की आँखों में दहकती तमन्नायें हैं। इंडस्ट्री के ख़ूबसूरत लोगों को डर लगता है कि यह आ गया और छा गया तो हमारे बच्चों का क्या होगा?
देबू सिर्फ़ एक नाम नहीं है। देबू उन सभी को रिप्रेजेंट करता है जो फ़िल्म इंडस्ट्री के दरवाज़े पर ज़ोरदार दस्तक दे रहे हैं और जब तक उन्हें भीतर आने और बैठने की जगह नहीं दी जाएगी, तब तक वे सब नहीं हटेंगे। हार मान लेने का तो सवाल ही नहीं उठता। इन पर मीडिया की नज़र भी नहीं है क्योंकि वह सब अभी सेलेबल कमोडिटी नहीं बने हैं। मीडिया के लोग इनके ख्वाबों का मज़ाक़ उड़ाते हैं और संपर्क भी बनाए रखते हैं। मालूम नहीं कब कौन चमक उठे और फिर तरजीह ही ना दे।
क्या आप देबू से मिले हैं? ज़रूरी नहीं कि उसका नाम दिब्येन्दु भट्टाचार्य ही हो। कोई भी हो सकता है... संजय, दीपक, सुशील, पंकज, रिचा, सीमा, गीता, जया कुछ भी हो सकता है।
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