'तेरे बचपन को जवानी की दुआ देती हूँ, और दुआ दे के परेशान सी हो जाती हूँ'- 'मुझे जीने दो' की ये लोरी फिल्मों में आम तौर पर इस्तेमाल की गयी मीठी, मासूम, लाड़ जगाती और गुनगुनाने लायक लोकप्रिय लोरियों की तरह नहीं है। डाकुओं के अड्डे पर उनके बीच अपने बच्चे के भविष्य को लेकर चिंतित एक मां का दर्द लता की आवाज़ में क्या खूब उतरा है और परदे पर वहीदा रहमान ने उसे बेजोड़ अभिव्यक्ति दी है। 'मुझ सी मांओं की मुहब्बत का कोई मोल नहीं'- एक तो साहिर की कलम और उस पर जयदेव की बनायीं तर्ज़ -एक अजीब, गहरी सी उदासी घेर लेती है। इसे सुनकर, आंखें डबडबा जाती हैं। एक थरथराहट सी होती है कि ऐसी भी लोरी लिखी जा सकती है, धुन में ढाली जा सकती है और खूबसूरती से गायी जा सकती है।
3 अगस्त 1919 को नैरोबी में जन्मे जयदेव के बचपन का एक बड़ा हिस्सा लुधियाना में बीता, जहाँ से आने वाले साहिर लुधियानवी के साथ बाद में उनकी जुगलबंदी ने वह गीत-संगीत रचा, जिसे हम हर अर्थ में क्लासिक कह सकते हैं। 'मुझे जीने दो' उसी की एक कड़ी है। उसी फ़िल्म में साहिर का लिखा एक और गाना है जो 15 अगस्त और 26 जनवरी को खूब सुनाई देता था- ‘अब कोई गुलशन न उजड़े अब वतन आज़ाद है’।
70 के दशक का सिनेमा
यह आज़ादी के बाद की तरक्की को लेकर वह आशावाद था, जिसे 70 के दशक का सिनेमा जिलाये रखने की कोशिश कर रहा था। लेकिन ज़मीनी सियासी और समाज की हक़ीक़त इस सपने को हर पल कुचलती दिख रही थी। रफ़ी की आवाज़ के उतार-चढ़ाव ने जयदेव की संगीत रचना को एक अद्भुत स्थायी उठान दी है।साहिर के शब्द- शेख का धर्म और दीने बरहमन आज़ाद है- जिस सांप्रदायिक सद्भाव की बात करते हैं वो तब से कहीं ज़्यादा आज के दौर की ज़रूरत है।
जयदेव और साहिर की जोड़ी ने 'हम दोनों' फ़िल्म के माध्यम से हिंदी सिनेमा और हमारे समाज को 'अल्ला तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान' जैसा भजन दिया है, जो भारत जैसे देश के लिए एक सार्वकालिक सामाजिक, सांस्कृतिक सन्देश भी है।
'अल्ला तेरो नाम'
'हम दोनों' देव आनन्द की अभिनय यात्रा का एक बेहद अहम पड़ाव तो है ही, संगीतकार के रूप में जयदेव की प्रतिभा की श्रेष्ठता और विविधता की बेहतरीन मिसाल है। देव आनन्द ने अपनी आत्मकथा में ‘हम दोनों’ के संगीत को बड़े लगाव और सम्मान के साथ याद किया है।
हम दोनों ने 'अल्ला तेरो नाम' के ज़रिये गांधीवादी सोच की झलक देता हुआ गीत दिया, जो गाँधी जी की प्रार्थना सभाओं में गाए जाने वाले भजन 'रघुपति राघव राजा राम, ईश्वर अल्ला तेरो नाम' की याद दिलाता है।
हिंदी फ़िल्म संगीत के ख़ज़ाने में इस बेशकीमती नगीने के लिए साहिर लुधियानवी के शब्दों के साथ- साथ जयदेव की धुन और लता मंगेशकर की गायिकी की भी बराबर की हिस्सेदारी है।
'मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया'
इसी फ़िल्म का दूसरा भजन याद करिये- ‘प्रभु तेरो नाम’। आवाज़ लता की ही है जिन्होंने एक कठिन संगीत रचना को दैवीय उठान दे दी है। मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ में गाया हुआ गाना - ‘मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया’ - तब भी युवा पीढ़ी की बेफिक्री को अभिव्यक्त करता था और आज के युवा वर्ग के मिज़ाज से भी मेल खाता है। प्रेमी जोड़ों के लिए तो जयदेव ने आशा भोंसले और मोहम्मद रफ़ी के गाए 'अभी न जाओ छोड़कर' के ज़रिये प्यार- मुहब्बत में शिकवे-शिकायत, मनुहार, इसरार और इक़रार की मिठास का जैसे एक स्थायी भाव ही रच दिया है जो स्थान, काल, पात्र की सीमाओं से परे है।
फ़िल्म अभिनेता देव आनन्द के साथ संगीतकार जयदेव।
वहीदा रहमान ने अपनी अभिनय यात्रा में जिन फ़िल्मों को उल्लेखनीय माना है, उनमें ‘मुझे जीने दो’ और ‘रेशमा और शेरा’ का भी ज़िक्र आता है। दोनों फ़िल्मों का संगीत जयदेव ने दिया है। ‘रेशमा और शेरा’ के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था- उनका पहला। दूसरा ‘गमन’ के लिए और तीसरा ‘अनकही’ के लिए।
'एक अकेला इस शहर में'
जयदेव के निजी जीवन का अकेलापन उनके संगीत में जब - जब उतरा, पीड़ा के अत्यंत गहन, गंभीर लेकिन बड़े मोहक स्वर सृजित हुए। ‘घरौंदा’ फ़िल्म में भूपिंदर का गाया 'एक अकेला इस शहर में' जयदेव की इसी महारत की एक शानदार मिसाल है।
मुजफ्फ़र अली की ‘गमन’ फ़िल्म में सुरेश वाडकर की आवाज़ में गाया 'सीने में जलन' महानगरीय जीवन की जकड़न में फंसे इंसान की तकलीफ़ की अभिव्यक्ति है, जो सार्वभौमिक है। उसी फिल्म में 'आपकी याद आती रही रात भर' के लिए छाया गांगुली को सर्वश्रेष्ठ गायिका का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। जयदेव के संगीत निर्देशन में इस फिल्म से हरिहरन की फ़िल्मी गायकी की शुरुआत हुई थी ।
जयदेव पहले फ़िल्म संगीतकार थे, जिन्हें संगीत निर्देशन के लिए तीन बार राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। उनके बाद इलैयाराजा और ए आर रहमान को यह गौरव मिला।
जयदेव को तीन-तीन राष्ट्रीय पुरस्कार मिले, लेकिन फ़िल्मी दुनिया में तो कामयाबी को ही सलाम किया जाता है। इसलिए जयदेव को उतना काम मिला नहीं जितना उनके जैसे आला दर्जे के संगीतकार को मिलना चाहिए था।
कम फ़िल्में
इस लिहाज से जयदेव की त्रासदी मदनमोहन से मिलती जुलती है। तीस साल से थोड़ा ऊपर का समय बिताया उन्होंने संगीत रचते हुए, लेकिन फिल्मों की गिनती पचास से भी कम। लेकिन एक बात ज़रूर है कि उनका एक भी गाना ऐसा नहीं है जिसे संगीत की किसी भी कसौटी पर साधारण कहा जा सके। बल्कि फ़िल्मी दुनिया के संगीतकारों की भीड़ में जयदेव ऐसे विरल संगीतकार नज़र आते हैं जो अपने लिए खुद फ़िल्म दर फ़िल्म ही नहीं एक ही फ़िल्म में एक से बढ़कर एक वाली चुनौती पेश करते हैं। ‘रेशमा और शेरा’, ‘मुझे जीने दो’, ‘हम दोनों’, ‘गमन’, ‘परिणय’, ‘आलाप’ इसकी कुछ बेहतरीन मिसालें हैं।
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भजन तो उन्होंने जो रचे, वो हमारी रोज़मर्रा की प्रार्थनाओं में, धार्मिक सभाओं में संगीत सम्मेलनों में कहीं भी, अपनी आध्यात्मिकता का अलग उजाला बिखेरते हैं।
'ग़ैर-फ़िल्मी संगीत'
जयदेव इस अर्थ में भी विलक्षण और संभवतः अकेले संगीतकार हैं, जिन्होंने ग़ैर-फ़िल्मी संगीत रचने में अपनी महारत एकाधिक बार सिद्ध की है। मन्ना डे की आवाज़ में गायी ‘मधुशाला’ अकेली इसकी गवाही के लिए काफी है। चाँद ग्रहण में उन्होंने मुकेश से कैफ़ी आज़मी की कुछ ग़ज़लें गवायी हैं, जो मुकेश की गायकी की एक अलग तस्वीर पेश करती हैं, मसलन, ‘तुझको यूँ देखा है यूँ चाहा है यूँ पूजा है, तू जो पत्थर की भी होती तो खुदा हो जाती’। वैसे ही आशा भोंसले की आवाज़ में जय शंकर प्रसाद का गीत- 'तुमुल कोलाहल कलह', यह दिखाता है कि उनमें साहित्य की गहरी समझ भी थी और लगाव भी।
इसे फ़िल्मी दुनिया की नाकामी और खुदगर्ज़ी ही कहा जायेगा कि उसने जयदेव को उनका जायज़ हक़ नहीं दिया। और यह जयदेव के सुरों की ताक़त ही है, जो इस उपेक्षा के बावजूद उन्हें लोकप्रिय संगीत की दुनिया में हमेशा ज़िंदा रखेगी।
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