जानेमाने अभिनेता नसीरुद्दीन शाह की एक चर्चित फ़िल्म - ‘अल्बर्ट पिंटो को ग़ुस्सा क्यों आता है’ - के शीर्षक में उनके निभाये गये पात्र की जगह पर्दे के बाहर की उनकी शख़्सियत को रख दें तो बहुत व्यापक अर्थ वाला एक सवाल बन जाता है - नसीरुद्दीन शाह को ग़ुस्सा क्यों आता है? पिछले कुछ समय से यह देखा जा सकता है कि नसीरुद्दीन शाह अपनी फ़िल्मी दुनिया के अलावा मौजूदा राजनीति और समाज के ढर्रे पर भी बहुत मुखर होकर अपनी नाख़ुशी या नाराज़गी जताते रहते हैं। वो समाज में बढ़ती असहिष्णुता की बहस हो, अल्पसंख्यकों के मसले हों, भीड़ की हिंसा का मामला हो, धर्म आधारित राजनीति की आलोचना हो, नसीरुद्दीन शाह खुल कर बोले हैं और उस वजह से उन्होंने मुख्यधारा के मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक काफ़ी हमले भी झेले हैं। लेकिन इन हमलों से डरकर वो चुप बैठ गये हों, ऐसा भी नहीं दिखता।
तो सवाल तो बनता है - नसीरुद्दीन शाह को ग़ुस्सा क्यों आता है? क्यों वह अपने तमाम नामी-गिरामी अभिनेता साथियों की तरह चुप नहीं बैठते, अपने काम से काम नहीं रखते, सरकार और व्यवस्था का समर्थन नहीं करते?
नसीरुद्दीन शाह अब सत्तर बरस के हो गए हैं। इस उम्र तक आते-आते उन्होंने अपने काम के बलबूते पर एक बहुत शानदार मुकाम हासिल किया है जो उनके लिए निजी तौर पर तो संतोष और गर्व की बात स्वाभाविक तौर पर होगी ही, उनके तमाम प्रशंसकों के लिए भी कभी न ख़त्म होने वाले एक आत्मिक आनंद का विषय हैं।
नसीरुद्दीन शाह के प्रशंसकों ने उन्हें समानांतर सिनेमा में अधिकांशतः एक ऐसे ग़ुस्सैल, दमित, शोषित, व्यथित आम आदमी की अलग-अलग यादगार भूमिकाएँ निभाते देखा है जो समूची व्यवस्था से नाराज़ रहता है। उसकी नाराज़गी की वजह व्यवस्था का शोषक चरित्र है। श्याम बेनेगल और गोविंद निहलानी जैसे फ़िल्मकारों ने सत्तर के दशक के अंतिम वर्षों से लेकर आर्थिक उदारीकरण के दौर की शुरुआत तक जो सिनेमा गढ़ा, वह मसाला हिंदी फ़िल्मों की सपनीली दुनिया से अलग, उस दौर के जीवन के यथार्थ और उसकी कठिनाइयों को दर्शाता था। ‘जूनून’ का ग़ुस्सैल क्रांतिकारी, ‘पार’ का शोषित, ‘आक्रोश’ का वकील, ‘अल्बर्ट पिंटो’, ‘स्पर्श’ का दृष्टिबाधित शिक्षक और ‘जाने भी दो यारों’ जैसी कॉमेडी फ़िल्म में अंत तक आते-आते एक ग़ुस्सैल नागरिक में बदल जाने वाले नौजवान का किरदार हो या बाद के दिनों की ‘ए वेडनेसडे’ में निभाए गए मध्यवर्गीय बुज़ुर्ग नाराज़ आम आदमी का किरदार, ग़ुस्सा नसीर की छवि का हिस्सा रहा है। नसीरुद्दीन शाह उस सिनेमा के एंग्री यंग मैन थे, जैसे अमिताभ बच्चन मसाला हिंदी सिनेमा के दायरे में एंग्री यंग मैन कहे जाते थे। कला सिनेमा या समानांतर सिनेमा कहे गये इस सिनेमा के एंग्री यंग मैन के साँचे में ओमपुरी भी नसीरुद्दीन शाह के साझेदार रहे।
नसीरुद्दीन शाह का अभिनय का सफ़र दिल्ली के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में प्रशिक्षण से शुरू हुआ और पूना फ़िल्म इंस्टीट्यूट की ट्रेनिंग के बाद ‘निशांत’ और ‘मंथन’ जैसी फ़िल्मों से लेकर ‘भूमिका’, ‘जुनून’, ‘स्पर्श’, ‘आक्रोश’, ‘भवानी भवाई’, ‘बाज़ार’, ‘पार’, ’जाने भी दो यारों’, ‘मंडी’, ‘मासूम’, ‘मिर्च मसाला’, ‘कथा’ और बहुत सी अन्य फ़िल्मों के साथ-साथ ‘जलवा’, ‘त्रिदेव’, ‘कर्मा’ होता हुआ ‘ए वेडनसडे’ और उसके बाद तक चला आता है। इसके अलावा दूरदर्शन के लिए उन्होंने ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ पर गुलज़ार के धारावाहिक में ग़ालिब का केंद्रीय चरित्र निभाया जो अदाकारी की एक अलग मिसाल है।
नसीरुद्दीन शाह ने श्याम बेनेगल के धारावाहिक ‘भारत एक खोज’ में शिवाजी की भूमिका भी निभाई थी। ग़ालिब की भूमिका में वो ग़ालिब ही लगे।
पृथ्वीराज कपूर को परदे पर देखकर जिस तरह लोगों की आँखों के आगे अकबर का अक्स उभरता था, वैसा ही कुछ कमाल नसीर ने अपने ग़ालिब के किरदार में पैदा कर दिया है। ‘भारत एक खोज’ में शिवाजी बने तो बिलकुल शिवाजी की लोकप्रिय छवि को साकार कर दिया।
सम्पूर्णता पा लेने को इंसान के जीवन का लक्ष्य माना गया है। कलाकार को इसकी कुछ ज़्यादा ही तलाश होती है। इस अर्थ में हम यह कह सकते हैं कि नसीर की जादुई अदाकारी का यह सफ़र अभी जारी है।
मूल सवाल पर लौटते हैं- नसीरुद्दीन शाह को गुस्सा क्यों आता है?
थोड़ा ठहर कर सोचें- किसी भी पेशे, काम या रोज़गार से जुड़े किसी संवेदनशील, ईमानदार, प्रतिभाशाली और प्रतिबद्ध इन्सान को अपने देश, समाज, उसकी व्यवस्थाओं, संस्थाओं आदि को लेकर ग़ुस्सा क्यों आता है, या क्यों आता होगा?
कोई भी संवेदनशील व्यक्ति शोषक व्यवस्था से और उस व्यवस्था में रहते हुए भी, ख़ुश नहीं रह सकता।
जब व्यवस्थाएँ व्यापक लोक कल्याण के उद्देश्य के बजाय सिर्फ़ चंद लोगों या समूहों के ही फ़ायदे के लिए ज़्यादा संगठित दिखती हैं तो समाज के एक बड़े हिस्से में असंतोष पैदा होता है। इस असंतोष के आधार अलग-अलग या एक साथ धार्मिक, जातीय, आर्थिक, लैंगिक और वर्गीय हो सकते हैं।
कला माध्यम हमेशा इन तमाम तरह के असंतोषों को स्पष्ट या प्रतीकात्मक तरीक़े से अभिव्यक्त करते रहे हैं। सिनेमा ने भी अपनी ईजाद से लेकर अब तक यह किया है और कर रहा है।
किसी भी अन्य कलाकार की तरह, नसीरुद्दीन शाह ने समानांतर सिनेमा में जो भूमिकाएँ निभाईं, वे सभी उन फ़िल्मों के कथा-पटकथा लेखकों और निर्देशकों द्वारा सोचे गये चरित्रों की थीं जिनको उन्होंने अपनी अभिनय प्रतिभा से गढ़ा। तो पर्दे पर नसीरुद्दीन शाह के उन किरदारों का ग़ुस्सा मूलत: लेखक-निर्देशक का था लेकिन नसीरुद्दीन ने अपनी दमदार अदाकारी से उसे ऐसी अभिव्यक्ति दी कि आम लोगों को वह उनकी शख़्सियत का ही हिस्सा लगने लगा। उन दिनों के पत्र-पत्रिकाओं में छपे साक्षात्कारों में नसीरुद्दीन शाह हिंदी फ़िल्मों के स्टार सिस्टम, बड़े-बड़े नामी-गिरामी सितारों मसलन दिलीप कुमार, अमिताभ बच्चन और राजेश खन्ना की खुलकर आलोचना करते थे। उनके अभिनय को लेकर भी और इस बात के लिए भी कि इन तमाम सितारों ने फ़िल्म इंडस्ट्री के चाल-चलन को दुरुस्त करने के लिए कुछ नहीं किया। काम किया, नाम कमाया और पैसा बनाया बस।
नसीरुद्दीन शाह ने तमाम लोकप्रिय अभिनेताओं की इस बात के लिए तीखी आलोचना की कि वो ख़ुद को कलाकार के बजाय किसी मंडी में बिकाऊ माल की तरह पेश करते हैं। यह कलाकार नसीरुद्दीन का पर्दे से बाहर का ग़ुस्सा था जो पर्दे पर निभाये जा रहे उन किरदारों के ग़ुस्से से मिलता था जो अपने इर्दगिर्द की व्यवस्था से नाराज़ थे।
इसलिए वो उस दौर में हाथों-हाथ लिए गए। लेकिन जब ख़ुद नसीरुद्दीन शाह ‘त्रिदेव’ में तिरछी टोपी पहन कर नाचते गाते, ठेठ फ़िल्मी स्टाइल में रोमांस करते हुए मसाला सिनेमा में भी अपनी जगह बनाने लगे तो चकित आलोचकों ने पूछना शुरू किया कि नसीर ये क्या कर रहे हैं और क्यों कर रहे हैं?
अभिनेता क्यों बने नसीरुद्दीन?
तब इस तरह की आलोचना पर आम तौर पर नसीर के जवाब होते थे कि उन्हें भी अपनी ज़रूरतों के लिए पैसा कमाना है और घर चलाना है। अभिनेता की सामाजिक प्रतिबद्धता के मुद्दे पर उन्होंने कहा कि दरअसल अभिनेता बनने के पीछे सबसे बड़ी वजह बचपन से ही मशहूर होने की उनकी ख्वाहिश थी। यह कहीं न कहीं एक विरोधाभास था जिसके लिए उनकी आलोचना अब भी होती है कि सारी उम्र फ़िल्मों से सारे फ़ायदे लेने के बाद भी वो फ़िल्म इंडस्ट्री पर छींटाकशी करते रहते हैं। दूसरे शब्दों में- नौ सौ चूहे खा कर बिल्ली हज को चली।
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