एक ऐसे दौर में जब फ़िल्म इंडस्ट्री अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की संदिग्ध मृत्यु के बाद से भाई-भतीजावाद और नशे के क़ारोबार के तीखे आरोपों से घिरी है, नशीले पदार्थों के सेवन को लेकर मीडिया में मचे बवाल, नाटकबाज़ी और बदनामी का शोर इतना ज़्यादा है कि अभिनेता आयुष्मान खुराना को मिले एक अंतरराष्ट्रीय सम्मान की अहम ख़बर भी दब कर रह गई। आयुष्मान को हाल ही में टाइम मैगज़ीन ने दुनिया की सौ सबसे महत्वपूर्ण हस्तियों की सूची में जगह दी है। डोनल्ड ट्रम्प, शी जिनपिंग और नरेंद्र मोदी सरीखे राष्ट्रप्रमुखों के बीच आयुष्मान खुराना की मौजूदगी उनकी अब तक की दमदार अभिनय यात्रा की एक और सम्माननीय स्वीकृति दर्शाती है।
टाइम मैगज़ीन की इस सूची में शामिल किये जाने से पहले आयुष्मान खुराना फोर्ब्स इंडिया की 100 महत्वपूर्ण हस्तियों की लिस्ट में भी दो बार (2013 और 2019 ) जगह पा चुके हैं, चार बार फ़िल्मफेयर पुरस्कार जीत चुके हैं और सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय सम्मान भी उन्हें मिल चुका है। बहुत सफल अभिनेताओं में गिने जाते हैं।
आयुष्मान खुराना अभिनेता बनने से पहले रेडियो जॉकी भी रहे हैं, एमटीवी पर भी नज़र आ चुके हैं। गाते भी हैं और लिखते भी हैं। ‘विकी डोनर’ के गाने 'पानी दा रंग' के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ गायक का फ़िल्मफेयर पुरस्कार भी मिल चुका है। बीती 14 सितम्बर को ही उन्होंने जीवन के 36 साल पूरे किये हैं। देखा जाए तो काफ़ी कम उम्र में उन्होंने कई उपलब्धियाँ हासिल कर ली हैं।
जिस देश-समाज में फ़िल्मों के नायक की लोकप्रियता ‘हीमैन’, ‘एंग्री यंग मैन’, ‘चॉकलेटी’ , ‘रोमांटिक’ ‘लवर बॉय’ के ख़िताबों से तय होती रही है और जहाँ फ़िल्मी परदे पर हीरो खलनायकों के झुण्ड के झुण्ड को निहत्थे पीट कर या ख़ुद पिटते हुए ‘मर्द को दर्द नहीं होता’ जैसे तालीपीटू संवादों के ज़रिये मर्दानगी को परिभाषित करते आये हों, वहाँ आयुष्मान खुराना ने विकी डोनर में अपने शुक्राणु बेचने वाले एक शहरी मध्यवर्गीय युवक के किरदार से नायक का एक नया चेहरा गढ़ा था। इसके लिए निर्देशक शूजीत सरकार और कहानी लेखिका जूही चतुर्वेदी भी बराबर बधाई के हक़दार हैं।
लेकिन चंडीगढ़ से दिल्ली के रास्ते मुंबई की मायानगरी पहुँचे आयुष्मान खुराना ने दिल्ली के एक निम्नममध्यम वर्गीय नौजवान की भूमिका में अपने बेहद सहज अभिनय से आलोचकों और प्रशंसकों सबको चौंका दिया था। फ़िल्म ने कमाई भी ख़ूब की। और जब कोई फ़िल्म पैसा कमा कर दे दे तो नया चेहरा भी रातोंरात सबका चहेता स्टार बन जाता है और उसकी गाड़ी फर्राटे भरने लगती है। आयुष्मान खुराना के साथ वही हुआ।
आयुष्मान खुराना की कहानी इस मायने में अलग है कि उन्होंने अपने अब तक के सफर में जाने-पहचाने रास्तों पर चलने के बजाय नयी राहों पर चलने का हौसला दिखाया है और इस चुनौती को निभाते हुए कामयाब भी रहे हैं।
सेक्स से जुड़ी समस्याएँ शर्मिंदगी और चकल्लस का समाजशास्त्र रचती हैं और लोग इनके बारे में खुल कर बात करने से बचते हैं, घबराते हैं। आयुष्मान खुराना ‘शुभ मंगल सावधान’ और ‘शुभ मंगल ज़्यादा सावधान’ के ज़रिये शीघ्रपतन और समलैंगिकता जैसे विषय को हंसी मज़ाक के बीच संवेदनशीलता के साथ उठाते हैं और हीरो बन जाते हैं। आयुष्मान खुराना ने अपनी अब तक निभाई भूमिकाओं के चुनाव की वजह से जमाये सुपर सितारों शाहरुख़ ख़ान, सलमान ख़ान, आमिर ख़ान, अक्षय कुमार और अजय देवगन के साथ-साथ फ़िल्मी परिवारों से आये रणबीर कपूर, वरुण धवन जैसे युवा कलाकारों के बीच अपनी एक अलग पहचान बनायी है, अच्छे और कामयाब अभिनेता का एक अलग साँचा गढ़ा है।
लेकिन क्या वह साँचा जिसकी हम बात कर रहे हैं, सचमुच बिलकुल नया है?
आयुष्मान एक्टिंग
दरअसल, देखा जाए तो आयुष्मान खुराना हिंदी सिनेमा में फ़ारूक़ शेख़ और अमोल पालेकर जैसे सामान्य, मध्यवर्गीय दिखते नायकों की अनुपस्थिति से ख़ाली हुई जगह के लिए एक अच्छे विकल्प की तरह उभरे हैं। अमोल पालेकर की फ़िल्मों ‘चितचोर’, ‘छोटी सी बात’, ‘रजनीगंधा’, ‘बातों-बातों में’ और ‘गोलमाल’ को याद कीजिये। इसके साथ-साथ फ़ारूक़ शेख की ‘चश्मेबद्दूर’, ‘कथा’, ‘साथ-साथ’, ‘नूरी’, ‘अब आएगा मज़ा’, ‘रंग बिरंगी’ को भी रख लीजिये। 70 के दशक के उत्तरार्ध से लेकर 80 के दशक तक के मध्यमार्गी सिनेमा का मध्यवर्गीय नायक आपकी आँखों के आगे पुनर्जीवित हो जायेगा। यहाँ फ़ारूक़ शेख की ‘गर्म हवा’, ‘गमन’, ‘बाज़ार’, ‘शतरंज के खिलाड़ी’, ‘उमराव जान’ जैसी फ़िल्मों का ज़िक्र जानबूझ कर छोड़ दिया है। अमोल पालेकर की भूमिका और अनकही जैसी फ़िल्मों को भी।
वजह यह कि आयुष्मान को अभी फ़ारूक़ शेख़ और अमोल पालेकर दोनों के इस तरह के काम की गहराई तक पहुँचना बाक़ी है लेकिन अपनी फ़िल्मों के चुनाव और अभिनय से वो उसी तरह के मुहावरे को आगे बढ़ाते दिख रहे हैं। चाहे ‘विकी डोनर’ हो, ‘शुभ मंगल सावधान’, ‘दम लगा के हइशा’ या ‘बरेली की बर्फ़ी’, ‘अंधाधुन’ और ‘बधाई हो’ आयुष्मान खुराना ने नये दौर के शहरी कस्बाई मध्यवर्गीय युवा के अलग-अलग शेड्स अब तक सफलतापूर्वक दर्शाए हैं।
‘बधाई हो’
मिसाल के तौर पर उनकी एक बहुत कामयाब और तारीफ़ बटोर चुकी फ़िल्म ‘बधाई हो’ को ही ले लें। मध्यवर्गीय परिवार में शादी लायक बेटे वाले घर में जब 'नये मेहमान' के आने की ख़बर मिलती है तो परिवार से लेकर समाज तक में किस तरह की प्रतिक्रियाएँ होती हैं, ‘बधाई हो’ फ़िल्म का विषय मोटे तौर पर यही है। ‘बधाई हो’ हमारे पारम्परिक मध्यवर्गीय मूल्यों वाले समाज में एक धाँसू, पैसा वसूल फ़िल्म साबित हुई। निम्न मध्यमवर्गीय महानगरीय परिवेश में अधेड़, बुढ़ाते हुए पति-पत्नी के बीच सेक्स और बड़ी उम्र में संतानोत्पत्ति को लेकर बनी ‘बधाई हो’ में तारीफ़ का बड़ा हिस्सा नीना गुप्ता, गजराज राव और सुरेखा सीकरी जैसे मंझे हुए कलाकारों के हिस्से में आया जो कहानी में इनकी भूमिका और शानदार अभिनय के मद्देनज़र ठीक भी था लेकिन आयुष्मान की काबिलियत इस बात में थी कि वो इनके बीच अपनी अलग हैसियत और मौजूदगी असरदार तरीक़े से दर्ज करा ले गए।
आयुष्मान खुराना ने ऐसी लकीर खींच दी है जो शाहरुख़ ख़ान सरीखे सुपरस्टार के लिए भी एक कड़ी चुनौती है।
अपने करियर के बहुत चुनौतीपूर्ण मोड़ पर शाहरुख ने पिछले दिनों अपनी तमाम फ़िल्मों में लगातार एक अभिनेता के तौर पर अपनी सीमाओं के भीतर अपनी भूमिकाओं के साथ प्रयोग किये लेकिन उनकी फ़िल्मों के निर्देशकों और पटकथा लेखकों की कमज़ोरियों ने उनके सारे किये-धरे पर पानी फेर दिया। ‘रईस’ और ‘डियर ज़िन्दगी’ को छोड़कर पिछले कुछ सालों में आयी उनकी तमाम फ़िल्मों में एक अजीब सा पैचवर्क हावी दिखता है। टुकड़ों में दुरुस्त, पैबंद लगे हुए चमकीले वस्त्र की तरह। उनसे हमदर्दी होने लगती है। ‘ज़ीरो’ जैसी फ़िल्म में मेरठ जैसे शहर दिखाने का सलीका आयुष्मान खुराना की ‘बरेली की बर्फी’ और ‘बधाई हो’ जैसी फ़िल्मों से सीखना चाहिए था।
हालाँकि ऐसा भी नहीं है कि आयुष्मान खुराना अपनी बनायी नयी लीक पर ही चलते जा रहे हों। उन्होंने प्रयोग करने की हिम्मत भी दिखाई है और सफल भी रहे। ‘अंधाधुन’ में उन्होंने तब्बू और राधिका आप्टे जैसी शानदार और काबिल अभिनेत्रियों के साथ एक सस्पेंस थ्रिलर में काम किया और अपने अभिनय के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार भी हासिल किया।
‘आर्टिकल 15’ भी आयुष्मान की फ़िल्मों की सूची में एक अलग मुकाम रखती है।
‘गुलाबो सिताबो’ में मिर्ज़ा चुन्नन नवाब यानी अमिताभ बच्चन के सामने अपने किरदार के दायरे में मज़बूती से खड़े रह कर बांके रस्तोगी बने आयुष्मान ने यह भी दिखा दिया कि उनमें आत्म विश्वास कूट कूट कर भरा है। यह बात अलग है कि एक पुरानी हवेली पर कब्ज़े के लिए किरायेदार और मकान मालिक के बीच लालच और स्वार्थ की खींचतान और दाँवपेंच की कहानी कहने के लिए शूजीत और उनकी कहानी लेखिका जूही चतुर्वेदी ने कठपुतलियों के खेल गुलाबो सिताबो का जो रूपक इस्तेमाल किया है, वह तमाम समीक्षकों की राय में ठीक तरह से उभर कर नहीं आ पाया। लेकिन आयुष्मान के अभिनय में कोई खोट नहीं दिखता।
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