आज वसंत कुमार शिव शंकर पादुकोण यानी गुरुदत्त की जयंती है। 1925 की 9 जुलाई को उनका जन्म हुआ था। यह कहा जा सकता है कि आज से गुरुदत्त की जन्म शताब्दी का सिलसिला शुरू होता है। हिंदी सिनेमा के सुनहरे दौर में यानी चालीस से साठ के दशक में अपनी शैली की अलग चमक बिखेरने वाले गुरुदत्त की गिनती हिंदी सिनेमा के सार्वकालिक महानतम फ़िल्मकारों में होती है। उनकी फिल्म प्यासा को विश्व की सौ सबसे अच्छी, क्लासिक फिल्मों में शामिल किया गया है। गुरुदत्त अपनी तीन फिल्मों -प्यासा, काग़ज़ के फूल और साहब बीवी और ग़ुलाम - की वजह से अमर हो चुके हैं। गुरुदत्त ने एक तरफ एक शाश्वत दार्शनिक सवाल उठाया-ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है? तो दूसरी तरफ आजादी के फ़ौरन बाद के दस सालों के भीतर ही नेहरूवादी समाजवाद के टूटते तिलिस्म को उघाड़ते हुए सत्ता से तीखा सवाल पूछा- जिन्हें नाज है हिंद पर वो कहाँ हैं? जिस दौर में जवाहर लाल नेहरू नये भारत के निर्माण की अपनी नीतियों के लिए सिर्फ भारत के ही नहीं, पूरी दुनिया के नायकों में गिने जाते थे, उस समय इतना झन्नाटेदार सवाल एक फिल्म के जरिये पूछना बहुत हिम्मत का काम था।

बातों-बातों में के. आसिफ़ ने साहब बीवी और ग़ुलाम के बारे में गुरुदत्त से कहा कि फ़िल्म का अंत अच्छा नहीं है। अचकचाए गुरुदत्त ने पूछा- क्यों? के. आसिफ़ बोले अगर फ़िल्म का अंत ट्रेजेडी में न करके कॉमेडी में करते तो फ़िल्म अच्छा पैसा देती।
गुरुदत्त का सर्वश्रेष्ठ सिनेमा अवसाद भरी स्याह-सफ़ेद छवियों में डूबा हुआ है और अपने दर्शक को भी अवसाद में डुबो देता है। हालाॉकि, गुरुदत्त का यह अवसाद दिलीप कुमार के देवदास से बिल्कुल अलग है। दिलीप कुमार ने देवदास और उसके बाद निभाये तमाम मिलते-जुलते पात्रों की निजी पीड़ा, प्रेम की असफलता और निराशा के जरिये दर्शकों के लिए सम्मोहक मायालोक निर्मित किया और लाखो, करोड़ों फिल्मप्रेमी उनकी ट्रेजिडी किंग की छवि पर मुग्ध रहे जबकि गुरुदत्त उस संवेदना को एक व्यापक सामाजिक संदर्भ से जोड़कर फलसफाना अंदाज में एक अलग ऊँचाई और गहराई देने में सफल हुए। गुरुदत्त के सिनेमा में दुख की अभिव्यक्तियों में दार्शनिकता है- देखी जमाने की यारी, बिछड़े सभी बारी-बारी।