23 मई की दोपहर से अब तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी की अभूतपूर्व जीत पर काफ़ी कुछ लिखा और कहा जा चुका है। टिप्पणीकारों/व्याख्याकारों का एक हिस्सा इस शानदार जीत की व्याख्या जश्नी अंदाज में कर रहा है। यह उसे ‘भारत की आत्मा की जीत’ नज़र आ रही है, मानो जो नहीं जीते, वे ‘भारत की आत्मा’ का हिस्सा ही न हों! व्याख्याकारों का दूसरा हिस्सा इस जीत पर रुदन कर रहा है, मानो इस जीत से ‘भारत की मूल संकल्पना’ ही ख़त्म हो जाएगी या कि भारत की जनता अपने सारे दुख-दर्द और अपने वास्तविक मसलों को हमेशा के लिए भूल जायेगी और जनतंत्र बचाने के लिए आगे नहीं आयेगी!

मोदी की अगुवाई में बीजेपी ने 2014 का संसदीय चुनाव ‘भ्रष्टाचार-मुक्ति’, ‘कालाधन-वापसी’ और ‘सबका साथ-सबका विकास’ जैसे तीन प्रमुख एजेंडे पर लड़ा और जीता। लेकिन इस चुनाव में इन तीनों में किसी को भी बीजेपी या मोदी ने अपने चुनाव अभियान में ख़ास तरजीह नहीं दी। इसके उलट कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी की अगुवाई में विपक्षी दलों के बड़े हिस्से ने मोदी सरकार को ही भ्रष्टाचार के मामले में घेरने की भरपूर कोशिश की। लेकिन नतीजे साफ करते हैं कि विपक्ष को ज़्यादा कामयाबी नहीं मिली।