बिहार में 24 अगस्त को दो समानांतर घटनाओं ने 2024 में विपक्षी एकता और इसे मिलने वाली चुनौतियों को चर्चा के केन्द्र में ला दिया है। एक तरफ़ विधानसभा में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार विश्वास मत की तैयारी में लगे थे तो दूसरी ओर सीबीआई उन लोगों के खिलाफ छापेमारी में लगी थी या लगायी गयी थी जिन्हें मीडिया में उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव और उनके पिता लालू प्रसाद का क़रीबी बताया गया है।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सहारे बिहार में 20 साल तक सत्ता का सुख भोगने वाली भारतीय जनता पार्टी इस समय विधानसभा में बिल्कुल अकेली है। बिहार विधानसभा के बाहर उसे शायद स्वर्गीय रामविलास पासवान की पार्टी 'लोजपा' के दोनों धड़ों का समर्थन मिल जाए लेकिन सवाल यह है कि क्या सिर्फ उनके सहारे ही वह 2024 में एनडीए 2019 का अपना प्रदर्शन दोहरा पाएगा। 2019 में एनडीए में नीतीश कुमार शामिल थे और तब स्कोर था 39-1 यानी सिर्फ एक विपक्षी दल बिहार से लोकसभा सीट जीत पाया था। वह सीट थी मुस्लिम बहुल किशनगंज जहाँ से कांग्रेस के डाॅक्टर मोहम्मद जावेद जीते थे।
9 अगस्त को जब नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर बीजेपी से अलग होने और राजद से मिलने की घोषणा की तो तेजस्वी यादव यह ऐलान कर रहे थे कि अब ईडी-सीबीआई के छापे पड़ेंगे। बिहार में एक बड़े हिस्से में इस बात की उम्मीद की जा रही थी कि ऐसा कुछ होगा। तेजस्वी ने तो ईडी-सीबीआई को अपने घर में दफ्तर खोलने की दावत भी दे दी थी।
24 अगस्त को जब विश्वास मत की बात आयी तो तेजस्वी यादव ने उसी दिन पड़ रहे सीबीआई के छापों का जिक्र किया और कहा कि वे उन छापों से डरने वाले नहीं। उन्होंने ईडी, इनकम टैक्स और सीबीआई को भाजपा के ’तीन जमाई’ की भी संज्ञा दे दी जिसपर भाजपा ने आपत्ति भी जतायी कि यह असंसदीय है।
इसके बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक महत्वपूर्ण बात कही कि 2017 में जो आरोप तेजस्वी यादव पर लगे थे उनका क्या हुआ। यानी पांच साल में नीतीश कुमार में यह बदलाव आया है कि वे अब तेजस्वी यादव का बचाव कर रहे हैं। तेजस्वी यादव ने भी नीतीश के लिए अपने सम्मान और नीतीश से खुद को मिलने वाले स्नेह की चर्चा की।
मगर 24 अगस्त वह दिन भी है जब नीतीश कुमार ने 2024 की बात की। यानी 2024 के लोकसभा चुनाव की। इससे पहले भी नीतीश कुमार कह चुके थे कि जो 2014 में आ गये वे 2024 में भी आ जाएंगे क्या!
विधानसभा में उन्होंने 2024 का लोकसभा चुनाव साथ मिलकर लड़ने की बात कही। उन्होंने यह भी कहा कि सब मिल जाएं तो ये यानी भाजपा वाले कहीं नहीं टिकेंगे।
ऐसे में यह सवाल भी चर्चा का केन्द्र बना है कि क्या नीतीश कुमार बिहार में 2024 में भाजपा के रथ को वैसे ही रोक पाएंगे जैसा कि कभी लालू प्रसाद ने लाल कृष्ण आडवाणी के रथ को रोका था।
नीतीश कुमार के पास दो चीजें खास हैं। उन पर कोई व्यक्तिगत आरोप नहीं लगे हैं और बीजेपी के लिए ऐसा कोई आरोप लगाना आसान नहीं होगा। राजनैतिक नैतिकता की बात वह करेगी लेकिन इसका जवाब भी नीतीश कुमार दे चुके हैं कि 2017 में जब उन्होंने राजद से नाता तोड़ा था तो ठीक था और अब भाजपा से अलग हो गये तो जनादेश का अपमान हो गया।
भाजपा के पास ऐसे में नीतीश को तंग करने या घुटने टिकाने का एक ही जरिया बचता है और वह है तेजस्वी यादव और लालू परिवार और राजद के प्रमुख नेताओं के पीछे सीबीआई-ईडी को लगाये रखना। ऐसा लगता है कि तेजस्वी यादव और नीतीश कुमार ने इस बार इस लड़ाई को सिर्फ अदालत में लड़ने के बजाय जनता तक ले जाने का फैसला किया है। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि भाजपा इस मामले को जनता तक कैसे पेश करती है और वह नीतीश कुमार पर हमले में किस स्तर तक उतरती है।
भाजपा के नेताओं को एक बार फिर मौका मिला है कि वे अकेले लड़कर बिहार जीत सकते हैं। भाजपा 2015 को छोड़कर नीतीश कुमार के कंधे पर बैठकर ही राजनीति करती रही है। ऐसे में उसकी तैयारी भी देखने लायक होगी और यही नीतीश कुमार के लिए चुनौती भी हो सकती है। भाजपा के पास अपने हिन्दुत्व के विवादास्पद मुद्दों को उठाने की रणनीति होगी। ऐसे में बिहार में सद्भावना बनाये रखना नीतीश कुमार सरकार के लिए आसान काम नहीं होगा।
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