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अपने सियासी वजूद के लिए जद्दोजहद में लगे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपने चुनावी भाषणों में जहाँ 2005 के पहले के बिहार की याद दिला रहे हैं तो वहीं वह मुस्लिम समुदाय से भी मुखातिब हो रहे हैं।
जदयू के सूत्रों का कहना है कि नीतीश कुमार को इस बात का एहसास है कि मुस्लिम समुदाय उनके भारतीय जनता पार्टी के साथ मिल जाने के कारण सशंकित है। हालाँकि, नीतीश कुमार पहले भी भारतीय जनता पार्टी के साथ रहे हैं लेकिन पिछले कई वर्षों में कई ऐसे मामले हुए जिनके कारण मुसलमानों का नीतीश कुमार से मोहभंग हुआ है।
जदयू के लोगों को लगता है कि मुस्लिम समुदाय न केवल भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवारों को वोट नहीं देगा बल्कि उनकी पार्टी जदयू समेत एनडीए के अन्य सहयोगी दलों के उम्मीदवारों से भी दूरी बनाए रखेगा।
नीतीश कुमार को मुसलमानों से ये बातें क्यों कहनी पड़ रही हैं जबकि घेराबंदी तो मठ और मंदिरों की भी हो रही है? यह सही है कि कब्रिस्तानों की घेराबंदी नीतीश कुमार के शासन की खास बात है और यह भी सही है कि इससे बड़े स्तर पर सांप्रदायिक विवाद थमे हैं।
बात 2017 से बिगड़ी जब नीतीश कुमार दोबारा भारतीय जनता पार्टी के साथ चले गए तो काफी हद तक मुसलमान उनसे मायूस होकर दूर चले गए। ऐसा समझा जाता है कि 2020 के विधानसभा चुनाव में मुसलमानों ने तो उनकी पार्टी को वोट नहीं ही दिया, अधिकतर हिंदू वोटरों ने भी उनका साथ छोड़ दिया।
यही कारण है कि 2020 के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी 43 सीटों पर सिमट गई थी।
हालाँकि नीतीश कुमार ने एनआरसी के बारे में कह रखा है कि यह बिहार में लागू नहीं होगा लेकिन उनके पलटने की आदत की वजह से उन पर भरोसे में कमी आई है। सीएए और ट्रिपल तलाक़ के अलावा अनुच्छेद 370 को हटाने का विरोध करने की घोषित नीति के बावजूद उनकी पार्टी इस मामले में भी भाजपा के साथ हो गई। ऐसे में मुसलमानों को शक हो सकता है कि एनआरसी के मुद्दे पर भी नीतीश कुमार कहीं पलट ना जाएं।
नीतीश कुमार मुस्लिम संस्थाओं के लोगों से घुलने मिलने वाले नेता के रूप में जाने जाते हैं और वह मज़ार-खानकाह भी जाते हैं। उन्हें टोपी पहनने से भी परहेज नहीं है। लोकसभा चुनाव के कारण लागू आचार संहिता की वजह से इस बार उनकी ओर से इफ्तार पार्टी का आयोजन नहीं किया गया लेकिन उन्होंने ईद के मौक़े पर नमाजियों से मुलाकात की और कई घरों में जाकर ईद की मुबारकबाद पेश की।
उदाहरण के लिए एनडीए ने जो 40 उम्मीदवार बिहार में उतारे हैं उनमें से महज एक उम्मीदवार मुस्लिम है। वह एक उम्मीदवार भी किशनगंज जैसे मुस्लिम बहुल इलाक़े से है जहाँ जदयू ने मुजाहिद आलम को अपना उम्मीदवार बनाया है। 2019 में एनडीए में जदयू की ओर से एक और रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी की ओर से एक उम्मीदवार मुस्लिम था।
कई मुसलमानों का कहना है कि ताजा जातीय गणना के अनुसार बिहार में मुसलमान की संख्या 17.7% है लेकिन नौकरी में उनकी हिस्सेदारी बहुत कम है। उद्योग धंधों के लिए भी मुसलमान के प्रोत्साहन में कमी देखी जाती है। उन्हें लगता है कि अगर नीतीश कुमार इस बारे में कोई पहल करें तो मुसलमान का समर्थन उन्हें वापस मिल सकता है। इसी तरह नीतीश कुमार पर मुसलमान की ओर से यह आरोप भी लगाया जाता है कि उनके शासनकाल में उर्दू की उपेक्षा की जा रही है। अल्पसंख्यक आयोग को भंग किए जाने के मुद्दे पर भी बिहार के मुसलमान नीतीश कुमार से नाराज बताए जाते हैं।
एक ओर जहाँ स्थानीय मुद्दों पर मुसलमानों को नीतीश कुमार से शिकायत है तो दूसरी ओर उनका यह भी कहना है कि उनकी पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर भी अपने स्टैंड पर कायम न रहकर भारतीय जनता पार्टी की नीति पर चल रही है। नीतीश कुमार जिस तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अबकी बार 400 पार के नारे को समर्थन दे रहे हैं और जिस तरह नरेंद्र मोदी के आगे झुके झुके से नज़र आते हैं वह भी मुसलमान के दिल में खटकने वाली बात है।
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