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बिहार: बक्सर दलित मर्डर-रेप केस को खा गए पटना के अख़बार!, सरकार का दबाव?

भले ही इलेक्ट्रॉनिक या डिजिटल मीडिया की पहुंच लगभग हर आदमी तक हो गई हो लेकिन गांव-कस्बों और छोटे शहरों में लोगों का भरोसा आज भी अख़बारों पर है। लोग मानते हैं कि अख़बार उनसे वो ख़बर कभी नहीं छिपाएंगे, जो उनके लिए जाननी ज़रूरी है। लेकिन अगर एक वीभत्स मामले में अख़बार ऐसा करें तो इनकी भूमिका और सरकार से साठगांठ को लेकर सवाल खड़े होने लाजिमी हैं। पढ़िए, बक्सर गैंगरेप को लेकर पटना के अख़बारों के रवैये पर यह ख़बर। 
समी अहमद

बिहार के बक्सर जिले के चैगाईं प्रखंड के ओझा गांव, थाना मुरार में बीते रविवार को एक महिला के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ और उसके बच्चे की हत्या कर दी गई। उम्मीद थी कि राजधानी पटना के अख़बार इतनी बड़ी घटना को खुलकर छापेंगे और सरकार की लानत-मलानत करेंगे। लेकिन हुआ इसके ठीक उलट। 

इस मामले में दर्ज एफ़आईआर की ख़बर पहले दिन पटना के तीन प्रमुख अख़बारों को छोड़कर सबने या तो अंदर के पन्नों पर ली या छोड़ दी। दूसरे दिन इससे जुड़ी ख़बर किसी भी अख़बार के पहले पेज पर नहीं थी।

सोमवार को पटना के एक प्रमुख अंग्रेज़ी अख़बार में यह ख़बर पहले पेज पर तीन काॅलम में लगी। इसकी लीड गया में बीजेपी के अध्यक्ष जेपी नड्डा की गया की चुनावी सभा की ख़बर रही। एक दूसरे अंग्रेज़ी के प्रमुख अख़बार ने इस ख़बर को पहले पेज के लायक नहीं समझा। यह ख़बर इसके पेज नंबर तीन पर दो काॅलम में लगी। बिहार के एक प्रमुख हिंदी अख़बार के पटना संस्करण ने  मर्डर-रेप की ख़बर पहले पेज पर तो दी है लेकिन तीसरी लेयर में और वह भी दो काॅलम में।

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एक दूसरे हिंदी अख़बार में भी यह ख़बर पहले पेज पर है लेकिन फोल्ड के नीचे दो काॅलम में लगी है। इसकी लीड बीजेपी और आरजेडी में टिकट बंटवारे से जुड़ी ख़बर रही। 

एक तीसरे प्रमुख अख़बार में यह ख़बर सत्रहवें पेज पर लगी है जबकि उस दिन का अख़बार 18 पेज का है। सबसे हैरानी की बात यह है कि एक दूसरा अख़बार जो सामाजिक समस्याओं की ख़बरों को प्रमुखता से पहले पेज पर छापता है, आश्चर्यजनक रूप से यह ख़बर उसमें कहीं नहीं दिखी। हालांकि इसके बक्सर संस्करण में यह ख़बर प्रमुखता से लगी है। तीनों प्रमुख उर्दू अख़बारों में यह ख़बर नहीं मिली।

वरिष्ठ पत्रकार और पूर्व संपादक सुकांत नागार्जुन कहते हैं कि यह जिस तरह का जघन्य मामला है, वह किसी भी हाल में इतनी कमजोर कवरेज के लायक नहीं था। अख़बारों के पास नेताओं के भाषण और चुनावी विश्लेषण के अलावा कोई ऐसी बड़ी ख़बर नहीं थी।

वे कहते हैं कि उनकी ट्रेनिंग के हिसाब से बक्सर की ख़बर पहले पेज की लीड बन सकती थी। वे बताते हैं कि लालू राज में ऐसी ख़बरें आसानी से लीड बनती थीं।

सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार निवेदिता झा कहती हैं कि यह सामान्य अपराध का मामला नहीं था, यह नारी सुरक्षा का मामला था, इसलिए इसे पहले दिन तो और प्रमुखता मिलनी ही चाहिए थी। उन्होंने कहा, ‘साथ ही इसका फाॅलोअप भी सही से होना चाहिए था। लेकिन एक अख़बार को छोड़कर किसी ने इसे आगे तवज्जो नहीं दी। पहले पेज पर तो खैर किसी ने इसमें आगे क्या हुआ, नहीं बताया।’

विज्ञापन का शिकंजा 

अख़बारों में ऐसी कवरेज का क्या कारण हो सकता है? यह पूछने पर सुकांत कहते हैं कि इसका सबसे बड़ा कारण अख़बारों पर सरकार का विज्ञापनी शिकंजा है। बिहार में अख़बारों को कॉमर्शियल विज्ञापन बहुत कम मिलते हैं। अख़बारों की पूंजी सरकारी विज्ञापन ही है। इसलिए अख़बारों के प्रबंधन को और संपादकों को इसका ख्याल रखना पड़ता है।

इस बारे में निवेदिता कहती हैं कि मौजूदा शासन में विज्ञापन के डंडे की बात सही है लेकिन राष्ट्रीय जनता दल के शासन काल में ऐसे जघन्य कांडों की कवरेज काफी विस्तृत होती थी।

अख़बार का विज्ञापन रोका 

एक प्रमुख अख़बार के सूत्र के अनुसार, कुछ दिनों पहले मुख्यमंत्री के कार्यक्रम की ख़बर लीड स्टोरी नहीं बनी तो उसका विज्ञापन रोक दिया गया। और यह विज्ञापन तब रोका गया जबकि उसके लिए रिलीज ऑर्डर जारी हो चुका था। वे कहते हैं कि यह बात किसी एक अख़बार की नहीं है, बारी-बारी से हर अख़बार के संपादक-प्रबंधक को ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ता है।

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मगर उर्दू अख़बारों ने क्यों नहीं छापी बक्सर की ख़बर?, इस पर सुकांत की राय है कि जो ट्रेंड सेटर अख़बार हैं वे इतने दबाव में हैं तो उर्दू अख़बारों की अर्थव्यवस्था तो पहले से ही खस्ताहाल है। उर्दू के एक सीनियर एडिटर ने इस सवाल के जवाब में कहा कि उर्दू अख़बारों को एक गैर तरहीरी हिदायत है कि हुकूमत और नीतीश कुमार की छवि धूमिल होने वाली कोई ख़बर अव्वल तो लगे नहीं, और लगे भी तो पता नहीं चले।

निवेदिता कहती हैं कि बक्सर ही नहीं, इससे पहले भी नारी के साथ हिंसा-बलात्कार की ख़बर अख़बारों ने उस तवज्जो के साथ नहीं छापी  जिनकी हकदार वैसी ख़बरें थीं।

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