आजादी के अमृतवर्ष में यानी स्वतंत्रता के 75 साल बाद सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर ट्वीन टावर विध्वंस की जो घटना घटी है वह सदैव याद रखी जाएगी। विधायिका और कार्यपालिका की चुप्पी समेत विपक्ष की खामोशी भी इस विध्वंस को यादगार बनाती है। यह प्रश्न खड़ा होता है कि इस विध्वंस को सामूहिक स्वीकृति मानते हुए इसे सामाजिक, राजनीतिक और राष्ट्रीय विवेक का ही विध्वंस क्यों न माना जाए?
देश में कितनी इमारतें होंगी जो नक्शे के हिसाब से बनी होंगी? कितनी बस्तियां होंगी जो वैध करार दिए जाने से पहले अवैध होंगी? और, इसी तरह कितनी बस्तियां होंगी जो वैध करार दिए जाने का इंतज़ार कर रही होंगी? क्या ऐसी बस्तियों का भी विध्वंस कर दिया जाना चाहिए? वैध के अस्तित्व की शर्त क्या अवैध का विध्वंस हो सकता है?
इमारतें गिराना ही विकल्प रह गया था?
अवैध को वैध करने का तरीका क्या होता है? नोएडा प्राधिकरण जब नक्शे से इतर बनी इमारत के बाद बिल्डर से हर्जाना वसूल लेता है तो वह इमारत भी वैध हो जाती है। जब सरकार किसी अवैध रूप से बनी बस्तियों को मान्यता दे देती है तो वही बस्तियां वैध हो जाती हैं। ऐसे में सुपरटेक की ट्वीन इमारतें वैध हों, इसके क्या सारे विकल्प खत्म हो गये थे?
न्याय हमेशा अन्याय खत्म करने के लिए होता है। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर अमल से क्या अन्याय खत्म हुआ? क्या न्याय की प्रतिष्ठा बहाल हुई? क्या कोई और तरीका नहीं था जिससे न्याय भी प्रतिष्ठित होता और किसी किस्म के अन्याय की गुंजाइश भी नहीं होती?
ट्विन टावरों में रिहाइश की अनेकानेक संभावनाएं थीं। जरा गौर करें-
- अभी हम कोविड काल से गुजरे हैं। ट्रेन की तपती बोगियों को कोविड अस्पताल का बेड मानने को मजबूर हो रहे थे हम। सुपरटेक की विध्वंस हुई इमारतों में अस्पताल की संभावनाएं क्यों नहीं देखी जा सकीं?
- हर घर को छत देने का सपना 2022 तक पूरा होना था, नहीं हो सका। क्या इन इमारतों का इस्तेमाल सैकड़ों गरीबों को छत मुहैया कराने में नहीं हो सकता था?
- क्या इन इमारतों का इस्तेमाल सेना के जवानों को ठहराने में नहीं किया जा सकता था?
- कुछ और नहीं तो विधायक-सांसद भी इन इमारतों में रह सकते थे!
- अगर इंसान इसका उपयोग नहीं कर पा रहे थे तो यह पक्षियों के लिए भी बसेरा हो सकता था।
अवैध संतानें, ‘आवारा’ गायें क्यों बख्शी जाएं?
इन ट्वीन इमारतों में वक्त लगा था, श्रम लगा था, पूंजी लगी थी। क्या यह सब इसलिए हुआ था कि इन्हें एक दिन अवैध बताकर विध्वंस कर दिया जाएगा? वैध-अवैध का यह चक्कर क्या है? यही समाज इंसान को भी अवैध बताता है जब वह किसी अबोध को ‘अवैध संतान’ पुकारता है। गायें माता भी होती हैं और वह ‘आवारा’ भी कहलाने लगती हैं क्योंकि उसे संभालने वाला इंसान पीछे हट जाता है। इसमें गायों का क्या कसूर?
अगर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला ट्वीन टावरों के बारे में सही है क्योंकि वे अवैध थीं तो ‘अवैध संतान’ या ‘आवारा’ गायें- उनके बारे में भी समान रूप से सोचने का दुराग्रह क्यों नहीं पैदा होगा? क्या इस दुराग्रह को हमें कबूल कर लेना चाहिए? कतई नहीं। तब हमारा मानवाधिकार हमें इसकी इजाजत नहीं देता।
विध्वंस की गयी इमारतों में भी मानवाधिकार है क्योंकि ये इमारतें मानव के श्रम, उनकी पूंजी और उनके वक्त का प्रतिफल थीं और इन इमारतों में पैदा हुई उपयोगिता भी मनुष्य के लिए ही थीं। ट्विन टावर के विध्वंस से यह उपयोगिता विनष्ट हुई है।
इमारतों के विध्वंस से किसे न्याय मिला?
नोएडा के सेक्टर 93 ए स्थित जो ट्वीन टावर ज़मींदोज़ हुए, उससे 500 करोड़ रुपये मिट्टी में मिल गये। इस कार्य को अंजाम देने में कुल खर्च आया 17.5 करोड़ रुपये। मलबे की अनुमानित कीमत है करीब 15 करोड़ रुपये। लेकिन, बड़ा सवाल बना रहेगा- इलाहाबाद उच्च न्यायालय से आगे बढ़कर सर्वोच्च न्यायालय से निकले इस आदेश पर अमल के बाद न्याय मिला किसे?जिनके लिए ट्वीन टावर बने थे और जिन्होंने ट्वीन टावर बनाए- दोनों नुकसान में रहे। सुपरटेक को प्रत्यक्ष रूप से 500 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ, तो ग्राहकों को मकान नहीं मिले। मकान के बदले लागत के साथ 14 फीसदी सालाना ब्याज अगर मिल भी जाए तो मकान की वर्तमान कीमत के मुकाबले यह फायदे का सौदा कतई नहीं है। ग्राहकों को यह रकम कब तक और कैसे मिलेगी - यह भी बड़ा सवाल है।
2004 में नोएडा अथॉरिटी ने हाउसिंग सोसायटी बनाने के लिए सुपरटेक को ज़मीन का प्लॉट अलॉट किया। 2005 में बिल्डिंग प्लान मंजूर हुआ। 10 मंजिल के 14 टावर बनाने की मंजूरी मिली। 2006 में सुपरटेक ने प्लान बदला- अब 11 मंजिल के 15 टावर बनने थे। नवंबर 2009 में फिर प्लान बदला। अब 24 मंजिल के दो टावर बनने थे। मार्च 2012 में 24 मंजिल को 40 मंजिल में बदल दिया गया। लगातार प्लान बदलने के पीछे अधिक से अधिक कमाई का लालच निश्चित रूप से रहा होगा। मगर, सवाल यह है कि इस बदलती योजना में नोएडा प्राधिकरण की भी भूमिका थी। उसकी सेहत पर क्या कोई असर पड़ा है या पड़ेगा?
न्याय मांगने अदालत का दरवाजा खटखटाया था सुपरटेक के ट्वीन टावर से सटी एमराल्ड कोर्ट सोसायटी के रेजिडेन्ट वेलफेयर एसोसिएशन ने। नक्शे से अलग बहुत ऊंची इमारत बनने पर पडोसियों को एतराज था। इस एतराज को संज्ञान में लेकर दुरुस्त कदम उठाने में 500 करोड़ रुपये फूंक दिए गये। ये शिकायतकर्ता बेजुबान नहीं थे।
उन पक्षियों की तरह जो विध्वंस के वक्त जान बचाते आसमान में उड़ते नज़र आए। उन्हें इस आकस्मिक आपदा का अंदाजा तक नहीं था। ये किसी अदालत में नहीं जा सकते- चाहे जान चली गयी हो या फिर वे जिन्दा ही क्यों ना बच गये हों?
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