पांच अगस्त 2019 को जम्मू-कश्मीर का मानचित्र बिगड़ने और अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद जम्मू-कश्मीर के सभी पूर्व मुख्मयमंत्री या तो गिरफ्तार कर लिए गये या फिर नज़रबंद कर दिए गये। इकलौते पूर्व मुख्यमंत्री गुलाम नबी आज़ाद ही थे जो आज़ाद रहे। क्या यह घटना यूं ही घटित हो गयी? या फिर गुलाम नबी आज़ाद को आज़ाद रखने की राजनीतिक वसूली की जानी तय हुई थी?
अगस्त 2020 में जी-23 समूह बना। फरवरी 2021 में गुलाम नबी आज़ाद का राज्यसभा में कार्यकाल पूरा हो गया और विदाई भाषण में नरेंद्र मोदी खुद भी भावुक हुए और आज़ाद को भी भावुक कर दिया। 25 जनवरी 2022 को गुलाम नबी आज़ाद को पद्म भूषण देने का एलान भारत सरकार ने किया। अगस्त आते-आते गुलाम ने कांग्रेस से खुद को आज़ाद कर दिखलाया।
गुलाम नबी आज़ाद कांग्रेस से ऐसे समय में अलग हुए जब कांग्रेस अपना नया अध्यक्ष चुनने की प्रक्रिया में आ चुका था, जी-23 की प्रमुख मांग पूरी होने वाली थी। मगर, इससे भी बड़ी घटना घटने जा रही थी और वह है ‘भारत जोड़ो’ यात्रा। गुलाम नबी आज़ाद का मानना है कि ‘भारत जोड़ो’ से ज़्यादा ‘कांग्रेस जोड़ो’ ज़रूरी है। लेकिन, खुद वे अपनी मान्यता के ख़िलाफ़ क़दम उठाते दिखे। कांग्रेस जोड़ने के लिए क्या कांग्रेस छोड़ना जरूरी होता है?
राज्यसभा में होते तो क्या बगावत करते गुलाम?
गुलाम नबी आज़ाद की कांग्रेस के प्रति लंबी प्रतिबद्धता रही है। इस पर उंगली उठाना आसान नहीं है। मगर, कांग्रेस जिस वक़्त सबसे मुश्किल दौर में हो उस समय इस प्रतिबद्धता की ज़रूरत अधिक थी। कोई यह नहीं कह सकता कि गुलाम नबी आजाद की पहुँच गांधी परिवार तक नहीं थी। गुलाम नबी सोनिया गांधी, राहुल गांधी से मिलते रहे हैं। लाख टके का सवाल यह है कि अगर गुलाम नबी आजाद को राज्यसभा में बनाए रखा जाता तो क्या वह कांग्रेस में बने नहीं रहते?
कपिल सिब्बल ने राज्यसभा में बने रहने के लिए समय रहते समाजवादी पार्टी से आशीर्वाद प्राप्त कर लिया। गुलाम नबी आज़ाद का लक्ष्य क्या है? एक और कांग्रेस खड़ा करना उनका लक्ष्य दिख रहा है। क्या गुलाम नबी आजाद उसी कांग्रेस को कमजोर करने का काम करेंगे जिसके वे वफादार रहे हैं? और, ऐसा करते हुए वे किसे फायदा पहुंचाएंगे?
सोचने की जरूरत है कि कहीं कांग्रेस से बाहर कांग्रेस विरोधी शक्तियों का वे खिलौना तो नहीं बनने जा रहे हैं?
गुलाम नबी आजाद ने कांग्रेस के भीतर आंतरिक लोकतंत्र का सवाल उठाया है। यह उनका या किसी भी कांग्रेसी का हक बनता है। आजाद ने राहुल गांधी के नेतृत्व पर सवाल उठाया है। यह हास्यास्पद लगता है। 2013 में जब राहुल गांधी कांग्रेस के पदाधिकारी बनाए गये थे तब गुलाम नबी आजाद नेतृत्वकारी भूमिका में थे। वे लगातार राज्यसभा में रहे हैं और नेता प्रतिपक्ष भी रहे हैं। राहुल गांधी ने जिस कानून को फाड़ा था वह एआईसीसी से मंजूर होने के बाद संसद और राष्ट्रपति से भी मंजूर था। मगर, इस घटना को 2014 में हार की सबसे बड़ी वजह बताना क्या राहुल गांधी पर अनैतिक हमला नहीं है? उस वक्त और उसके बाद भी आज तक गुलाम नबी क्या कर रहे थे?
2019 का चुनाव क्या राहुल के कारण हारे?
2019 के आम चुनाव में हार के बाद राहुल गांधी ने कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था। क्या यह इस्तीफा गलत था? इस्तीफा तो बाकी जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों को भी देना चाहिए था। क्या राहुल गांधी ने ग़लत कहा था कि शीर्ष के नेता अपने बेटे की जीत सुनिश्चित करने में जुटे थे और पार्टी हार रही थी?
प्रश्न यह नहीं है कि आंतरिक लोकतंत्र या कांग्रेस की चुनावों में लगातार हार के लिए जिम्मेदार कौन है? व्यक्ति ज़िम्मेदार होता तो व्यक्ति से छुटकारा पा लेने के बाद पार्टी पुनर्जीवित हो जाती। गुलाम नबी आज़ाद शायद यही सोच रहे थे कि राहुल गांधी से छुटकारा पा लिया जाए तो कांग्रेस पुनर्जीवित हो जाती। फिर गुलाम नबी ने कांग्रेस में अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ने या लड़ाने के बारे में क्यों नहीं सोचा? क्यों उन्होंने राहुल गांधी को चुनौती देने के बारे में सोची?
राहुल गांधी 2014 में निर्णायक भूमिका में नहीं थे। उस वक्त कांग्रेस की हार क्यों हुई? गुलाम नबी आजाद समेत वे सारे नेता जो जी-23 में रहे हैं तब कद्दावर मंत्री हुआ करते थे। नेतृत्व उन नेताओं का ही था। क्या किसी ने कभी 2014 के हार की जिम्मेदारी ठीक वैसे ही ली जैसे राहुल गांधी ने लेकर दिखाया?
यह प्रश्न जरूर गंभीर है कि राहुल गांधी अध्यक्ष नहीं होकर भी कांग्रेस के सारे फैसले ले रहे हैं। यहाँ तक कि उनके पीए और सुरक्षा गार्ड पर उन्होंने फैसले लेने का आरोप लगाया है। यह कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी पर बहुत बड़ा इल्जाम है। मगर, संगठन के भीतर संघर्ष का रास्ता देखने के बजाए गुलाम नबी आजाद ने संगठन से बाहर होने, नयी पार्टी बनाने और कांग्रेस को नुकसान पहुंचाने का रास्ता चुना है।
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