जब हम ये पंक्तियां लिख रहे हैं, विपक्षी एकता की कोशिशें स्वाभाविक ही अपने चरम पर पहुंची हुई हैं और सच्चे लोकतंत्र का आकांक्षी कोई भी देशवासी शायद ही इन कोशिशों की विफलता चाहता हो। अफसोस कि इसके बावजूद वे साफ नहीं कर पा रहीं कि उन्हें विपक्ष के नेताओं की एकता, वह जैसे भी सम्भव हो, अभीष्ट है या फिर वैकल्पिक नीतियों की एकता, जो भारतीय जनता पार्टी, उसके नायकों व सरकारों की ‘दिग्विजयी’ मंसूबों से भरी प्रतिगामी व पोंगापंथी {राजनीतिक शब्दावली में साम्प्रदायिक व विघटनकारी वगैरह} नीतियों की वास्तविक विकल्प बन सके?
बेहतर होगा कि ये कोशिशें जितनी जल्दी सम्भव हो, समझ लें कि किसी भी लोकतांत्रिक देश में उसकी सरकार या सत्तारूढ़ दल को सबसे ज्यादा डर अपने नीति आधारित विपक्ष से लगता है, क्योंकि वही जनता के बीच उनकी पोल खोलकर चुनाव में उन्हें सच्ची चुनौती दे पाता है। अन्यथा मौके और दस्तूर के हिसाब से नेताओं की एकता होती, टूटती और निराश करती रहती है।
इसे यों समझ सकते हैं कि आजादी के बाद कांग्रेस के प्रति देशवासियों की ‘कृतज्ञता’ के दौर में हमारे देश में वामपंथी और समाजवादी दल उसका ऐसा ही विपक्ष हुआ करते थे। कई बार तो वे कांग्रेसी सरकारों की नीतियों के खोट गिनाकर उन्हें इस तरह कठघरे में खड़ा कर देते थे कि अपने अपार बहुमत के गुमान में फूली-फूली फिरती रहने के बावजूद वे बहुत असहज हो जाया करती थीं। यों, इसका एक कारण यह भी था कि तब देश के लोकतंत्र में थोड़ी लोकलाज बची हुई थी और वह बकौल स्मृतिशेष राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ‘टोपी कहती है मैं थैली बन सकती हूं/कुर्ता कहता है मुझे बोरिया ही कर लो/ईमान बचाकर आंखें कहती हैं सबकी बिकने को हूं तैयार/खुशी हो जो दे दो’ के दौर तक नहीं पहुंची थी।
इस लोकलाज के ही कारण विपक्ष कई बार चुनावों में हार का जोखिम उठाकर भी ‘लोकप्रिय’ सरकारी नीतियों की आलोचना करता और मानता था कि चुनाव अपनी बात जनता तक पहुंचााने के अवसर भर होते हैं, जो आते-जाते रहते हैं और उनमें हार जीत से बड़ी चीज अपनी नीतियों को जनता तक पहुंचाने के प्रयास हैं।
बाद में उपचुनाव हार जाने के बावजूद उन्होंने वैकल्पिक नीतियों की चमक और उन पर अपनी टेक बनाये रखी थी और प्रेक्षकों ने आचार्य को नहीं बल्कि कांग्रेस को ही कोसा था कि उसने अनैतिक व साम्प्रदायिक हथकंडे अपनाकर आचार्य जैसी शख्सियत को चुनाव हरा दिया।
ग़लत समझे जाने का ख़तरा उठाकर साफ़ कहें तो नीति आधारित विपक्ष की इस परम्परा को पहला बड़ा झटका 1963 में लगा, जब डॉ. राममनोहर लोहिया ने गैरकांग्रेसवाद का नारा दिया और उसके नाम पर समाजवादी, दक्षिणपंथी और वामपंथी सारे दलों को एक पाले में लाना शुरू किया। इसकी बिना पर 1967 में कई प्रदेशों में बनी संयुक्त विधायक दलों की सरकारों ने जल्दी ही अपने अंतर्विरोधों के चलते न सिर्फ ज्यादातर विपक्षी दलों का ‘कांग्रेसीकरण’ कर दिया, बल्कि चुनावों में नीतियों के बजाय समीकरणों व इमोशनल अत्याचारों की बिना पर जनता के पास जाने की लत लगा दी।
नीतिविहीनता की इसी लत के चक्कर में ये दल एक होकर भी, और तो और, देश को 1977 में हासिल हुई ‘दूसरी आजादी’ की रक्षा भी नहीं सके और बिखर गये।
नब्बे के दशक में पीवी नरसिंहराव की कांग्रेस सरकार द्वारा भूमंडलीकरण की नीतियों के प्रवर्तन के साथ सांसद व विधायक निधियों की व्यवस्था के बाद कैसे सत्ता पक्ष व विपक्ष के चेहरे एक जैसे हो गये और कैसे सत्ता में आने पर वे अपने मतदाताओं को नीतिगत बदलावों से महरूम कर सरकारें बदलकर भी हार जाने को मजबूर करते रहे, यह हम अब तक देखते आ रहे हैं। आज, जब हम विपक्ष के भी सत्ता का ही एक संस्करण हो जाने के युग में हैं, भाजपा और उसकी नरेन्द्र मोदी सरकार खुश हो सकती हैं कि उनका नीतियों पर आधारित विपक्ष से साबका ही नहीं। कभी कार्यकर्ता आधारित ‘पार्टी विद डिफरेंस’ कहलाने वाली भाजपा अब इकलौते महानायक के करिश्मे पर आधारित दल में बदल गई है तो खुद को उसका विपक्ष बताने वाले दलों का हाल भी उससे अलग नहीं है।
ताज्जुब कि कई प्रेक्षक इस स्थिति में भी, कई महानुभावों के अनुसार जो विपक्ष है ही नहीं, उसके एक न हो पाने को लेकर सिर धुनते और उसके ‘गुनहगार’ बलि के बकरे तलाशते रहते हैं! वे तीसरे मोर्चे के संदर्भ में समाजवादी विचारक सुरेन्द्र मोहन द्वारा बारम्बार कही जाती रही यह बात भी याद नहीं रख पाते कि ऐसे मोर्चे तभी लम्बी उम्र पाते हैं, जब वे नीतियों पर आधारित हों।
उनको यह भी नहीं दिखता कि विपक्ष एक नहीं हो पा रहा तो सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ही कहाँ एक रह गया है?
निस्संदेह, ऐसे में विपक्ष की एकता से कहीं ज़्यादा बड़ा सवाल यह है कि नीतिगत रूप से सत्ता दल की ही कार्बन कॉपी, अदूरदर्शिता से त्रस्त और सत्ता पक्ष जैसे ही नायकवाद व अधिनायकवाद से ग्रस्त विपक्ष जैसे-तैसे एक हो भी जाये तो भाजपा के बहुप्रचारित ‘मिथकीय हिन्दुत्व और महानायकीय विकास’ के ट्रैप में फँसने से खुद को कैसे बचायेगा? वह एक होकर भी समता, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता जैसे संवैधानिक मूल्यों के साथ अल्पसंख्यकों को ऐसे ही ‘अनाथ’ किये रखकर भाजपा से हार्ड बनाम सॉफ्ट हिन्दुत्व की लड़ाई में ही उलझा रहेगा, तो उसमें हमेशा हार्ड हिन्दुत्व की ही जीत की परम्परा क्योंकर तोड़ पायेगा?
फिर विपक्ष की एकता से भाजपा तब तक क्यों भयभीत हो, जब तक विपक्ष साफ़ नीयत और वैकल्पिक नीतियों के साथ सामने आकर उन गैरराजनीतिक व गैरदलीय जन आन्दोलनों से समन्वय न कर ले, जो अभी तक राजनीतिक विपक्ष से कोई मदद लिये बिना भाजपा की बदगुमानियों की हवा निकालते और मोदी सरकार के अहंकार पर चोट करते आये हैं। इसकी एक मिसाल किसानों का आन्दोलन भी है, जिसके चलते प्रधानमंत्री को 19 नवम्बर, 2021 को अपने तीनों विवादास्पद कृषि क़ानून वापस ले लेने पड़े थे।
हां, भाजपा को विपक्ष या उसकी एकता से नहीं तो जनता के आक्रोश से तो डरते ही रहना चाहिए। क्योंकि नाराज़ जनता सरकारों की बेदखली का हुक्म देने के लिए किसी की मोहताज नहीं होती। इसे वह 1977 में भी सिद्ध कर चुकी है, 1989, 2014 और कई अन्य मौक़ों पर भी। अभी कर्नाटक में भी जनता ने भाजपा की सरकार को बिना किसी विपक्षी एकता के ही बेदखल किया है।
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