लोकसभा 2019 के अंतिम चरम के मतदान की घड़ियाँ भी निकट आ गयी हैं, कुछ घंटों बाद ही प्रचार का शोर थम जाएगा। चुनावी पंडितों और पत्रकारों के आकलन आने लगे हैं। साथ ही साथ सत्ता पक्ष और विपक्ष ने भी सत्ता को लेकर अपनी-अपनी संभावनाएँ तलाशना शुरू कर दी हैं। कोई नए साथी की तलाश में जुटा है तो कोई पुराने साथियों को सहेज कर रखने में। बंगाल में बवाल के बाद भारतीय जनता पार्टी के प्रमुख अमित शाह ने पत्रकार परिषद में 300 सीटों से ज़्यादा जीतने का जो दावा किया उसे जाँचने के लिए हम पूर्ववर्ती चुनावों के आँकड़ों को देखते हैं तो तसवीर कुछ अलग ही नज़र आती है। ये आँकड़े अमित शाह के दावे के विपरीत कहानी कहते हैं।
साल 1996 से लेकर 2014 तक के चुनावों का आँकड़ा देखें तो कांग्रेस और बीजेपी दोनों को कुल मतदान का 50% से 51% वोट मिलता रहा है। इस 50 या 51 फ़ीसदी में ही जो पार्टी ज़्यादा वोट ले जाती है उसकी सीटें बढ़ जाती हैं। शेष 50 या 49% में बाक़ी पार्टियों व क्षेत्रीय दलों की हिस्सेदारी रहती है। इस बार के संघर्ष का ज़्यादा दारोमदार इसी शेष हिस्से पर निर्भर करने वाला है। साल 2014 के चुनाव में इस हिस्से का बड़ा भाग बीजेपी के साथ था, या फिर अलग-अलग राज्यों में बीजेपी के ख़िलाफ़ बिखरे हुए रूप में लड़ रहा था। मिसाल के तौर पर उत्तर प्रदेश में बीजेपी के ख़िलाफ़ कांग्रेस-समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी अलग-अलग होकर लड़ीं और बुरी तरह हारीं। बीजेपी ने 42% वोट लेकर 71 सीटें जीतीं, जबकि बसपा को 20% वोट मिलने के बाद भी शून्य सीट हासिल हुई, जबकि साल 2009 में उसे 27% वोट पर 20 सीटें मिली थीं। सपा ने 2014 में क़रीब 22% वोट हासिल किये जो 2009 के मुक़ाबले मात्र 1% ही कम थे, लेकिन 23 के मुक़ाबले 5 ही सीट मिली। वही हाल कांग्रेस का रहा उसे 2009 में 11.65% वोटों के साथ 21 सीटें मिली थीं और 2014 में 7.5 % के साथ मात्र 2 सीटें मिलीं। 2014 के ही आँकड़ों पर जाएँ तो सपा-बसपा को जितने वोट मिले थे उसे जोड़ें तो वे बीजेपी को मिले वोटों के बराबर हैं।
बीजेपी 2014 में मोदी लहर पर सवार होकर चुनाव लड़ी थी और इस बार सवालों के घेरे और वायदाख़िलाफ़ी के माहौल में लड़ रही है। ऐसे में चुनाव के नतीजे बिल्कुल अलग आ सकते हैं।
मतदान प्रतिशत से ऐसे घटती-बढ़ती हैं सीटें
राष्ट्रीय स्तर पर 1996 से 2014 का औसत निकालें तो कांग्रेस क़रीब 25 से 26% और बीजेपी 23 से 24% के आसपास वोट पाती रही हैं। साल 2014 के चुनाव में मोदी लहर ने इसका संतुलन बिगाड़ा और बीजेपी पहली बार इसमें से 31% के आसपास वोट हासिल करने में सफल रही और कांग्रेस मात्र 19.3% वोट पर सिमट गयी। इस 12% वोट का असर सीटों में बहुत ज़्यादा हुआ। इसकी वजह से सीटों में बीजेपी का हिस्सा क़रीब 52% हो गया, जबकि कांग्रेस 8% पर रह गयी। साल 2014 के चुनावों में 312 सीटें ऐसी थीं जिन पर जीत का अंतर एक लाख या उससे अधिक वोटों का था। इनमें से 207 सीटें बीजेपी ने जीती थीं, ये सीटें बीजेपी द्वारा जीती गई कुल सीटों का 75% हैं। बीजेपी ने इनमें से 75 सीटों पर 2 लाख से ज़्यादा तथा 42 सीटों पर तीन लाख से ज़्यादा मतों से विजय हासिल की थी। वहीं कांग्रेस क़रीब 220 सीटों पर दूसरे नंबर पर थी।
अब यदि कांग्रेस 1996 से 2009 तक के अपने पुराने प्रदर्शन को भी दोहरा देती है तो बीजेपी का मत औसत 23% के आसपास रहेगा। जिसका असर यह होगा कि भारतीय जनता पार्टी साल 2004 या 2009 के अपने प्रदर्शन पर पहुँच जायेगी।
वोट प्रतिशत का कैसा रहा है ट्रेंड?
बीजेपी को जब 23% वोट औसत मिलता था तब जीत का औसत प्रति 1% फ़ीसदी वोट 6 या 7 सीट रहता था। इस हिसाब से बीजेपी को 140 से 150 के आसपास सीटें मिलती थी। 1991 में 20% वोट हासिल करने पर बीजेपी को 120 सीटें मिली थीं लेकिन 2014 के चुनावों में न सिर्फ़ बीजेपी का वोट प्रतिशत बढ़ा, बल्कि उसकी प्रति 1% वोट जीतने का औसत भी 9 सीट तक पहुँच गया। यानी 31 प्रतिशत मतदान पर बीजेपी को 282 के आसपास सीटें मिल गयीं। राष्ट्रीय स्तर पर 1% वोट पर 9 सीट इससे पहले कोई पार्टी नहीं जीती थी। 1984 में कांग्रेस को क़रीब 49% वोट मिले थे और पार्टी 404 सीटें जीतने में सफल रही थी यानी प्रति 1 % वोट पर 8 सीट मिली थी। 2014 के चुनाव में बीजेपी और उसके सहयोगियों ने गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार और झारखंड की कुल 273 सीटों में से 216 जीतने में सफलता हासिल की थी।
गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड में बीजेपी की सरकारें हैं जहाँ सत्ता विरोधी मतों का लाभ विपक्षी दलों को मिलेगा। राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ की जनता ने हाल ही में बीजेपी को बाहर का रास्ता दिखाया है इसलिए इन 8 प्रदेशों में उसे बड़ा नुक़सान उठाना पड़ेगा जो उसकी सत्ता का आधार बने थे 2014 में।
नरेन्द्र मोदी और अमित शाह ने 2014 का चुनाव जीतने के बाद एक बयान दिया था कि वे प्रयास करेंगे हिन्दू वोटों के ध्रुवीकरण का और पार्टी के मतों की हिस्सेदारी 50% कर लेने का। लेकिन इन बातों का असर कहीं नज़र नहीं आ रहा। राष्ट्रवाद और सैनिक कार्रवाई के नाम पर बीजेपी बालाकोट-पुलवामा का हर संभव फ़ायदा उठाने में लगी रही। लेकिन दो महीने के प्रचार अभियान में उसने ख़ुद ही कई बार चुनाव प्रचार का लक्ष्य बदला है। कभी प्रधानमंत्री अपने ग़रीब होने का कार्ड खेलते दिखे तो कभी सैनिकों के नाम पर और कभी जय श्री राम के नाम पर वोट माँगते दिखे। इसलिए वोट प्रतिशत बढ़ाने से ज़्यादा चुनौती इस बार बीजेपी के सामने जो नज़र आयी वह थी अपने 2014 के प्रदर्शन को बरकरार रखने की, लेकिन उसमें भी वह सफल होती हुई नहीं दिख रही है।
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