अफ़ग़ानिस्तान के वर्षों विदेश मंत्री रहे डाॅ. अब्दुल्ला अब्दुल्ला आजकल अफ़ग़ानिस्तान की राष्ट्रीय मेल-मिलाप परिषद के अध्यक्ष हैं। वह अफ़ग़ानिस्तान के लगभग प्रधानमंत्री भी रहे हैं। वे ही दोहा में तालिबान के साथ बातचीत कर रहे हैं। वे भारत आकर हमारे प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री से मिले हैं। क़तर की राजधानी दोहा में चल रही इस त्रिपक्षीय बातचीत— अमेरिका, काबुल सरकार और तालिबान— में इस बार भारत ने भी भाग लिया है। हमारे नेताओं और अफ़सरों से उनकी जो बात हुई है, उसकी जो सतही जानकारी अख़बारों में छपी है, उससे आप कुछ भी अंदाज़ नहीं लगा सकते। यह भी पता नहीं कि इस बार अब्दुल्ला दिल्ली क्यों आए थे?
अफ़ग़ान-तालिबान वार्ता
अख़बारों में जो कुछ छपा है, वह वही घिसी-पिटी बात छपी है, जो भारत सरकार कुछ वर्षों से दोहराती रही है यानी अफ़ग़ानिस्तान में जो भी हल निकले, वह अफ़ग़ानों के लिए, अफ़ग़ानों द्वारा और अफ़ग़ानों का ही होना चाहिए? हमारी सरकार से कोई पूछे कि यदि ऐसा ही होना चाहिए तो आप और अमेरिका बीच में टांग क्यों अड़ा रहे हैं? मुझे डर है कि हम अमेरिका की वजह से अड़ा रहे हैं। ट्रंप ने कह दिया है कि हमारी फौजें क्रिसमस तक अफ़ग़ानिस्तान से लौट आएँगी तो फिर ट्रंप यह बताएँ कि काबुल में क्या होगा? क्या उन्होंने तालिबान से गुपचुप हाथ मिला लिया है? तालिबान तो आज तक अड़े हुए हैं। दोहा में बातें चल रही हैं तो चलती रहें। तालिबान बराबर हमला और हल्ला बोल रहे हैं। आए दिन दर्जनों लोग मारे जा रहे हैं। तालिबान अपने मालिक खुद हैं। उनके कई गुट हैं। उनमें से ज़्यादातर गिलज़ई पठान हैं। हर पठान अपना मालिक ख़ुद होता है।
ज़रा याद करें, अब से लगभग पौने दो सौ साल पहले प्रथम अफ़ग़ान-ब्रिटिश युद्ध में क्या हुआ था? 16 हज़ार की ब्रिटिश फौज में से हर जवान को पठानों ने क़त्ल कर दिया था। सिर्फ़ डाॅ. ब्राइडन अपनी जान बचाकर छिपते-छिपाते काबुल से पेशावर पहुँचा था। पठानों से भिड़कर पहले रुसी पस्त हुए और अब अमेरिकियों का दम फूल रहा है।
अमेरिका अपनी जान छुड़ाने के लिए कहीं भारत को वहाँ न फँसा दे? अमेरिका तो चाहता है कि भारत अब चीन के ख़िलाफ़ भी मोर्चा खोल दे और एशिया में अमेरिका का पप्पू बन जाए।
जब तक पाकिस्तान से अमेरिका की छन रही थी, उसने भारत की तरफ़ झाँका भी नहीं लेकिन उसके और हमारे नीति-निर्माताओं को पता होना चाहिए कि यदि भारत ने अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका की जगह लेने की कोशिश की तो हमारा हाल वही होगा, जो 1838-42 में ब्रिटेन का हुआ था। 1981 में प्रधानमंत्री बबरक कारमल ने चाहा था कि रुसी फौजों का स्थान भारतीय फौजें ले लें। हमने विनम्रतापूर्वक उस आग्रह को टाल दिया था। अब भी हमें सावधान रहना होगा। आज भी अफ़ग़ान जनता के मन में भारत का बहुत सम्मान है। भारत ने वहाँ अद्भुत सेवा-कार्य किया है। अमेरिकी वापसी के दौरान भारत को अपने क़दम फूँक-फूँककर रखने होंगे।
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