देश के 34 फ़िल्म-निर्माता संगठनों ने दो टीवी चैनलों और बेलगाम सोशल मीडिया के ख़िलाफ़ दिल्ली उच्च न्यायालय में मुक़दमा ठोक दिया है। इन संगठनों में फ़िल्मी जगत के लगभग सभी सर्वश्रेष्ठ कलाकार जुड़े हुए हैं। इतने कलाकारों का यह क़दम अभूतपूर्व है। वे ग़ुस्से में हैं। कलाकार तो ख़ुद अभिव्यक्ति की आज़ादी के अलम बरदार होते हैं। लेकिन सुशांत राजपूत के मामले को लेकर भारत के कुछ टीवी चैनलों ने इतना ज़्यादा हो-हल्ला मचाया कि वे अपनी मर्यादा ही भूल गए। उन्होंने देश के करोड़ों लोगों को कोरोना के इस संकट-काल में मदद करने, मार्गदर्शन देने और रास्ता दिखाने की बजाय एक फ़र्ज़ी जाल में रोज़ घंटों फँसाए रखा।
सुशांत ने आत्महत्या नहीं की बल्कि उसकी हत्या की गई है, इस मनगढ़त कहानी को लोक-लुभावन बनाने के लिए इन टीवी चैनलों ने क्या-क्या स्वांग नहीं रचाए? इन्होंने सुशांत के कई साथियों और परिचितों पर उसे ज़हर देने, उसे नशीले पदार्थ खिलाने, उसके बैंक खाते से करोड़ों रु. उड़ाने और उसकी रंगरलियों के कई रसीले क़िस्से गढ़ लिए। यह सारा मामला इतना उबाऊ हो गया था कि आम दर्शक सुशांत का नाम आते ही टीवी बंद करने लगा था। इन बेबुनियाद फ़र्ज़ी क़िस्सों के कारण उस दिवंगत कलाकार की इज्जत तो पैंदे में बैठी ही, फ़िल्मी जगत भी पूरी तरह बदनाम हो गया।
यह ठीक है कि फ़िल्मी जगत में भी कमोबेश वे सब दोष होंगे, जो अन्य क्षेत्रों में पाए जाते हैं लेकिन इन चैनलों ने ऐसा खाका खींच दिया जैसे कि हमारा बाॅलीवुड नशाखोरी, व्यभिचार, ठगी, दादागीरी और अपराधों का अड्डा हो। सच्चाई तो यह है कि फ़िल्मी जगत पर जैसी सेंसरशिप है, किसी क्षेत्र में नहीं है। इसीलिए भारतीय फ़िल्में राष्ट्र निर्माण में बेजोड़ भूमिका अदा करती हैं। मुंबई के कलाकार मजहब, जाति और भाषा की दीवारों को फ़िल्मों में ही नहीं लांघते, अपने व्यक्तिगत जीवन में भी जीकर दिखाते हैं।
सुशांत-प्रकरण में हमारे टीवी चैनलों ने अपनी दर्शक-संख्या (टीआरपी) बढ़ाने और विज्ञापनों से पैसा कमाने में जिस धूर्तता का प्रयोग किया है, वह उनकी इज्जत को पैंदे में बिठा रही है।
अपनी राय बतायें