पाकिस्तान में इमरान ख़ान के 'लॉन्ग मार्च' के बाद खलबली मची है। कयास लगाए जा रहे हैं कि कहीं पाकिस्तान में अस्थिरता तो नहीं आएगा। पाकिस्तान पर प्रकाशित पहली और दूसरी कड़ी प्रकाशित की जा चुकी है। अब पढ़िए तीसरी कड़ी।
पाकिस्तान- भाग 3 : ऐसा कोई सगा नहीं, जिसको पाक सेना ने ठगा नहीं
- दुनिया
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- 24 Nov, 2022

पाकिस्तान में कहा जाता है कि सत्ता में कोई भी दल हो, चलती तो सेना की है! सरकारों का गठन भी जब सेना की मर्जी से ही होता है तो फिर सेना ही उनको बेदखल क्यों कर देती है?
1947 में आज़ाद होने के कुछ ही सालों बाद पाकिस्तान में राजनीतिक अराजकता शुरू हो गई जब गवर्नर जनरल ग़ुलाम मुहम्मद ने 1953 में प्रधानमंत्री ख़्वाजा नज़ीमुद्दीन की सरकार को और 1954 में संविधान सभा को ही बर्ख़ास्त कर दिया। इसके बाद 1958 में देश पहली बार सैनिक शासन के अंतर्गत आया। तब से लेकर 1971 तक पाकिस्तान 13 साल तक सैनिक शासन में रहा। 1970 के चुनावों के बाद जब देश में लोकतंत्र फिर से करवट ले रहा था, तब बहुमत पाने वाली अवामी लीग की सरकार बनने से रोकने में भी सेना का महत्वपूर्ण रोल रहा। इसलिए जब 1977 में पाकिस्तान में लोकप्रिय सरकार चुनी गई तो संविधान में ऐसी व्यवस्था की गई कि देश का प्रधानमंत्री ही योग्यता के आधार पर आर्मी प्रमुख का चयन करे। मंशा यह थी कि भारत की ही तरह वहाँ भी सेना लोकतांत्रिक तरीक़े से चुनी गई हुकूमत के नियंत्रण में रहे। पर परिणाम उम्मीद के अनुकूल नहीं रहा। पाकिस्तानी सेना ने कभी भी ख़ुद पर नकेल कसने नहीं दी। अमेरिका भी इस काम में उसकी मदद करता रहा और अधिकतर राजनीतिज्ञों ने भी सेना के साथ दोस्ती में ही अपनी भलाई समझी। लेकिन हैरत की बात यह रही कि जिन राजनीतिज्ञों ने अपनी पसंद से सेना प्रमुख का चयन किया, उनके साथ भी उनके चुने हुए सैन्य प्रमुखों ने कोई नरमी नहीं दिखाई।
राजीव श्रीवास्तव रक्षा विश्लेषक हैं। रोहित शर्मा अंतरराष्ट्रीय संबंध विश्लेषक हैं।