पाकिस्तान में इमरान ख़ान के 'लॉन्ग मार्च' के बाद खलबली मची है। कयास लगाए जा रहे हैं कि कहीं पाकिस्तान में अस्थिरता तो नहीं आएगा। पाकिस्तान पर प्रकाशित पहली और दूसरी कड़ी प्रकाशित की जा चुकी है। अब पढ़िए तीसरी कड़ी।
1947 में आज़ाद होने के कुछ ही सालों बाद पाकिस्तान में राजनीतिक अराजकता शुरू हो गई जब गवर्नर जनरल ग़ुलाम मुहम्मद ने 1953 में प्रधानमंत्री ख़्वाजा नज़ीमुद्दीन की सरकार को और 1954 में संविधान सभा को ही बर्ख़ास्त कर दिया। इसके बाद 1958 में देश पहली बार सैनिक शासन के अंतर्गत आया। तब से लेकर 1971 तक पाकिस्तान 13 साल तक सैनिक शासन में रहा। 1970 के चुनावों के बाद जब देश में लोकतंत्र फिर से करवट ले रहा था, तब बहुमत पाने वाली अवामी लीग की सरकार बनने से रोकने में भी सेना का महत्वपूर्ण रोल रहा। इसलिए जब 1977 में पाकिस्तान में लोकप्रिय सरकार चुनी गई तो संविधान में ऐसी व्यवस्था की गई कि देश का प्रधानमंत्री ही योग्यता के आधार पर आर्मी प्रमुख का चयन करे। मंशा यह थी कि भारत की ही तरह वहाँ भी सेना लोकतांत्रिक तरीक़े से चुनी गई हुकूमत के नियंत्रण में रहे। पर परिणाम उम्मीद के अनुकूल नहीं रहा। पाकिस्तानी सेना ने कभी भी ख़ुद पर नकेल कसने नहीं दी। अमेरिका भी इस काम में उसकी मदद करता रहा और अधिकतर राजनीतिज्ञों ने भी सेना के साथ दोस्ती में ही अपनी भलाई समझी। लेकिन हैरत की बात यह रही कि जिन राजनीतिज्ञों ने अपनी पसंद से सेना प्रमुख का चयन किया, उनके साथ भी उनके चुने हुए सैन्य प्रमुखों ने कोई नरमी नहीं दिखाई।
पहला मामला ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो का है जिन्होंने सात सीनियर जनरलों की अनदेखी करके जनरल ज़िया का चयन किया था। वे जनरल ज़िया के छोटे क़द और नाक-नक़्श के मद्देनज़र उनको मज़ाक़ में बंदर कहते थे (that monkey general)। नतीजा - 5 जुलाई 1977 को जनरल ज़िया ने उन्हें गिरफ़्तार करवाया और 4 अप्रैल 1979 को उन्हें फांसी दे दी गई।
भुट्टो की बेटी बेनज़ीर भुट्टो भी पाकिस्तान आर्मी के निशाने पर रही। आर्मी ने बेनज़ीर के ख़िलाफ़ दुर्नीति का अभियान चलाया और 1990 के आम चुनाव को प्रभावित किया। 27 दिसंबर 2007 को बेनज़ीर भुट्टो एक आतंकी हमले में मारी गईं। उस हमले के पीछे आर्मी इंटेलिजेंस का हाथ होने की संभावना जताई जाती है।
दूसरे कार्यकाल (17 फ़रवरी 1997-12 अक्टूबर 1999) में दो सक्षम जनरलों की अनदेखी करके उन्होंने जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ को, जो मुहाजिर थे, प्रमुख बनाया। करगिल युद्ध के बाद उन्हीं जनरल मुशर्रफ़ ने मार्शल लॉ लगाकर नवाज़ शरीफ़ को गिरफ़्तार करवाया।
कैसे दो 'अ' ने मिलकर तीसरे 'अ' को हराया?
इमरान ख़ान की विचारधारा इस्लामी कट्टरवाद की है। उनके भाषणों में 'बनेगा नवा पाकिस्तान, रियासत-ए-मदीना, सादिक़ और आमीन' जैसे नारों की भरमार रहती है। इमरान 'मैं नहीं रहा तो पाकिस्तान के चार टुकड़े होंगे' जैसी चेतावनियाँ देते हैं। उनकी राजनीतिक रणनीति एक तरफ़ इस्लामी नारों से कट्टरपंथियों को लुभाने और दूसरी तरफ़ अपनी अंग्रेज़ीदाँ पहचान से पढ़े-लिखे तबक़े को साथ लाने की रही है। वे वैश्विक आतंकवाद के ख़िलाफ़ पाकिस्तान आर्मी और अमेरिका के साझा प्रयासों में रोड़ा बन रहे थे। अमेरिका उन्हें विश्वासयोग्य नहीं मानता। इंटेलिजेंस प्रमुख जनरल फ़ैज़ हमीद, जो इमरान ख़ान के करीबी थे, वे भी इस अविश्वास का एक कारण रहे।
अमेरिका ने अल क़ायदा प्रमुख अल ज़वाहिरी के अफ़ग़ानिस्तान में होने की अच्छी और पुख़्ता जानकारी हासिल कर ली थी। मगर उसे इमरान ख़ान और उनके इंटेलिजेंस प्रमुख जनरल फ़ैज़ पर भरोसा नहीं था। अमेरिकी ड्रोन मिसाइल हेलफ़ायर अगर 1 अगस्त 2022 को पूरे पाकिस्तान की यात्रा कर काबुल में अल जवाहिरी का ख़ात्मा कर सकी, तो वह केवल इस कारण कि इससे पहले ही अमेरिका ने अपने दो काँटे रास्ते से हटवा दिए थे। अमेरिका बहुत पहले से ज़वाहिरी को ख़त्म करने की योजना बना रहा था लेकिन उसे भय था कि आई.एस.आई प्रमुख जनरल फ़ैज़ हमीद इस राज़ को राज़ नहीं रहने देंगे और ज़वाहिरी को आगाह कर देंगे। इसलिए उसे ज़रूरी लगा कि पहले फ़ैज़ हमीद को और बाद में इमरान ख़ान की छुट्टी की जाए। और यही हुआ भी। नवंबर 2021 में जनरल हमीद और अप्रैल 2022 में इमरान को पद से हटना पड़ा।
इस तरह दो 'अ' ने मिलकर लोकतांत्रिक तरीक़े से चुने गए इमरान ख़ान, जिनकी कट्टरपंथी विचारधारा (तीसरा 'अ') उन्हें पसंद नहीं थी, सता से बाहर कर दिया। उनके हटने के बाद ही अगस्त 2022 में ज़वाहिरी के विरुद्ध अभियान हुआ जो कामयाब रहा।
इमरान ख़ान को पता था कि उनको हटाने में अमेरिका और सेना प्रमुख जनरल बाजवा की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इसी कारण वे सत्ता खोने के बाद उन दोनों को सीधे निशाने पर ले रहे हैं। वे सत्ता जाने के बाद अपने राजनीतिक जलसों में एक छोटी पर्ची को दिखाकर दावा करते रहे कि उन्हें हटाने में अमेरिका का हाथ है जो एक मायने में सच है।
लेकिन पिछले सेना प्रमुखों के दोनों शिकारों - भुट्टो और शरीफ़ की तरह इमरान इस बार कमज़ोर नहीं पड़ रहे हैं और इसका कारण है सेना के ही एक तबक़े का उनको समर्थन। इमरान सेना प्रमुख बाजवा को तो आडे़ हाथों लेते हैं मगर आर्मी की भूमिका को भी देश निर्माण में अहम बताते हैं। उन्हें सेना में कार्यरत उच्च अधिकारियों की सलाह भी मिल रही है।
दरअसल, जो आर्मी आज इमरान के ख़िलाफ़ खड़ी दिखती है, उसी आर्मी के लोग पिछले चार दशकों से भुट्टो और तक़रीबन दो दशकों से शरीफ़ के ऊपर करप्शन के इल्ज़ाम लगा रहे थे। इस कारण अवाम और आर्मी दोनों में इन दोनों राजनैतिक परिवारों के ख़िलाफ़ नफ़रत की भावना है। परंतु आज उसी परिवार के लोग सत्ता में बैठे हैं और आर्मी और अवाम का यह तबक़ा किसी भी क़ीमत पर उनका समर्थन करना नहीं चाहता। इमरान के समर्थक सोशल मीडिया को भी हथियार के रूप में इस्तेमाल कर शहबाज़ शरीफ़ के नेतृत्व में बनी मिलीजुली सरकार का विरोध कर रहे हैं।
26 नवंबर से इमरान का मार्च शुरू होना है और एक-दो दिन में ही नए आर्मी चीफ़ का भी फ़ैसला होना है। नया आर्मी चीफ़ कौन बनता है, इसी से तय होगा कि सेना का मूड क्या है। क्या वह इमरान से सुलह-सफ़ाई की इच्छा रखती है या उनसे दो-दो हाथ करने को तैयार है?
इस शृंखला की अगली कड़ी में पढ़ें - पाकिस्तान में अब होगी आर-पार की लड़ाई?
अपनी राय बतायें