आज जब पाकिस्तान राजनीतिक अस्थिरता और आर्थिक गिरावट की ओर बढ़ रहा है तथा इमरान को समर्थन के मुद्दे पर सेना ख़ुद बँट गई है, तब क्या सेना फिर से सत्ता अपने हाथों में लेगी? जानिए इमरान की सत्ता कैसे गई और आईएसआई की भूमिका क्या है। पहली कड़ी आप कल पढ़ चुके हैं (नहीं पढ़ी हो तो पढ़ने के लिए यहाँ टैप/क्लिक करें। आज पेश है इस सीरीज़ की दूसरी कड़ी।
पाकिस्तान में समय के साथ-साथ आर्मी के साथ-साथ इंटर सर्विसेज़ इंटेलिजेंस यानी आईएसआई के रूप में एक दूसरी ताक़त भी उभरी जिसकी भूमिका 1980 के दशक के बाद बहुत ही महत्वपूर्ण हो गई। आईएसआई का प्रदर्शन 1949 से 1971 तक कोई विशेष उपलब्धियों वाला नहीं था। शीत युद्ध में रूस के अफ़ग़ानिस्तान में प्रवेश (24 दिसंबर 1977-15 फ़रवरी 1989) के समय अमेरिका के सी.आई.ए. के साथ काम करने के दौरान जनरल ज़िया ने आई.एस.आई. को आगे किया। अमेरिका ने रूस को अफ़ग़ानिस्तान से हटाने के लिए आई.एस.आई. को पैसा और हथियार देकर मुजाहिदीन की फ़ौज तैयार की। जनरल ज़िया ने इस संगठन का इस्तेमाल अफ़ग़ानिस्तान के साथ-साथ आंतरिक मामलों में अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए किया।
जनरल ज़िया की मौत (17 अगस्त 1988) के बाद पाकिस्तान में आम चुनाव हुए। इसके बाद आर्मी और आई.एस.आई. दोनों का संचालन एक ही आर्मी प्रमुख के तहत होने के बावजूद वे दोनों अलग हो गए क्योंकि आई.एस.आई. प्रधानमंत्री को भी रिपोर्ट करती है। अपनी तरफ़ से हर सत्ताधारी दल और प्रधानमंत्री ने आर्मी और आई.एस.आई. प्रमुख पद पर अपने पसंदीदा व्यक्ति को बिठाने की कोशिश की पर परिणाम हमेशा उस राजनेता एवं दल के पक्ष में नहीं रहा। अब तक आई.एस.आई. के 26 प्रमुख हुए हैं जिनमें से तीन प्रमुखों की नियुक्ति उन्हीं राजनेताओं के सत्ता खोने का कारण बनी जिन्होंने उन्हें चुना था।
जनरल ज़िया के बाद बेनज़ीर भुट्टो ने देश की सत्ता तो सँभाली (2 दिसंबर 1988) परंतु अमेरिका ने पाकिस्तान की आर्मी से ही संबंध बनाए रखा। उसे अफ़ग़ानिस्तान में चल रहे अपने ऑपरेशन के अंतिम पड़ाव के लिए आर्मी ज़्यादा भरोसेमंद लगी। उसके कई कारण थे। बेनज़ीर राजनीति में नई थीं। वे आर्मी और आई.एस.आई. को अपने पिता की क़ानूनी तरीक़े से की गई हत्या का ज़िम्मेवार मानती थीं। उन्होंने अपने अधिकार का प्रयोग कर आई.एस.आई. के तत्कालीन प्रमुख जनरल हमीद गुल को हटाकर एक रिटायर्ड जनरल शमसूर रहमान कल्लू को नियुक्त किया। यह नियुक्ति पाकिस्तान आर्मी और अमेरिका दोनों को ही नापसंद थी। नतीजा, बेनज़ीर की चुनी हुई सरकार को जल्द ही सत्ता से हाथ धोना पड़ा (6 अगस्त 1990)।
उसके बाद पाकिस्तान इंटेलिजेंस ने अपने नुमाइंदे नवाज़ शरीफ़ को प्रधानमंत्री बनवाया। नवाज़ शरीफ़ 1990 से आज तक तीन बार पाकिस्तान के प्रधानमंत्री का पद सँभाल चुके हैं। उनके संबंध आर्मी के रिटायर्ड और कार्यरत सीनियर अफसरों से मधुर रहे हैं।
उन्होंने अपने दूसरे कार्यकाल (17 फ़रवरी 1997-12 अक्टूबर 1999) में जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ को आर्मी चीफ़ के पद पर नियुक्त किया लेकिन आई.एस.आई. प्रमुख के रूप में जनरल ज़ियाउद्दीन (अक्टूबर 1998-12 अक्टूबर 1999) की नियुक्ति कर दी बिना मुशर्रफ़ की रज़ामंदी के। इससे दोनों के रिश्तों में खटास पड़ गई। करगिल युद्ध के बाद तो नवाज़ शरीफ़ और जनरल मुशर्रफ़ के आपसी रिश्ते इतने ख़राब हो गए कि 12 अक्टूबर 1999 को नवाज़ शरीफ़ ने मुशर्रफ़ को हटाकर जनरल ज़ियाउद्दीन को आर्मी प्रमुख बना दिया। लेकिन वे कुछ ही घंटों के लिए आर्मी चीफ़ रहे क्योंकि जनरल मुशर्रफ़ जो कि उस दिन श्रीलंका से लौट रहे थे, आते ही नवाज़ शरीफ़ को सत्ता से बेदख़ल कर दिया।
जनरल मुशर्रफ़ अगले कई साल तक पाकिस्तान की सत्ता पर क़ाबिज़ रहे लेकिन जब देश में लोकतंत्र बहाली की माँग ज़ोर पकड़ने लगी तो उन्हें सत्ता छोड़नी पड़ी। उनके जाने के बाद पाकिस्तान आर्मी ने इमरान ख़ान पर दाँव लगाया और 2014 के बाद उनकी छवि को एक सोची-समझी रणनीति के तहत चमकाया। उन्होंने 'मैं ईमानदार और बाक़ी राजनेता चोर' का स्लोगन दिया और उसे घर-घर पहुँचाया। इंटेलिजेंस वालों ने 2018 के आम चुनाव और उसके परिणाम आने के बाद इमरान ख़ान की काफ़ी मदद की। इमरान की पार्टी को तब 342 सदस्यों वाली राष्ट्रीय विधानसभा में केवल 149 सीटें मिली थीं - यानी बहुमत से कुछ कम। तब आर्मी ने क्षेत्रीय दलों पर दबाव डलवाकर इमरान की सरकार बनवाई।
अपनी राय बतायें