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तालिबान ने जिस तरह बिना किसी बड़े प्रतिरोध का सामना किए ही आनन-फानन में अफ़ग़ानिस्तान पर क़ब्ज़ा कर लिया और अशरफ़ ग़नी की सरकार ने पलक झपकते ही हथियार डाल दिए, उससे कई सवाल खड़े होते हैं। किसी साजिश या गुप्त समझौते की बू तो आती ही है, तालिबान के कामकाज के तरीके पर भी सवाल उठता है।
क्या यह वह तालिबान नहीं है जो बड़े पैमाने पर ख़ून खराबे के लिए बदनाम था? क्या मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर का तालिबान मुल्ला उमर के तालिबान से अलग है? क्या यह नया तालिबान है?
सवाल यह उठता है कि क्या एक बार सत्ता पर पकड़ बना लेने के बाद तालिबान बदल जाएगा, उसका ध्यान सुशासन और बेहतर प्रशासन पर जाएगा?
हालांकि तालिबान ने बार-बार कहा है कि उनके नियंत्रण में अफ़ग़ानिस्तान में महिलाओं को कामकाज करने या बाहर जाने पर रोक नहीं होगी न ही लड़कियों के स्कूल बंद किए जाएँगे, पर उनके लड़ाकों ने काबुल में दाखिल होते ही महिलाओं को निशाने पर लेना शुरू कर दिया है।
तालिबान ने काबुल में कई जगहों पर उन पोस्टरों पर कालिख पोत दी है या उन्हें हटा दिया है, जिन पर महिलाओं की तसवीरें लगी हुई थीं। ये पोस्टर सड़कों पर लगे हुए थे।
तालिबान ने महिलाओं के इस्तेमाल में आने वाले उत्पादों के विज्ञापन में लगी महिलाओं की तसवीरें भी हटा दी हैं।
इसके अलावा तालिबान के लड़ाके बैकों, निजी व सरकारी कार्यालयों में जाकर वहाँ काम कर रही अफ़ग़ान महिलाओं से कह रहे हैं कि वे अपने घर लौट जाएँ और दुबारा यहाँ काम करने न आएँ।
समाचार एजेन्सी 'रॉयटर्स' के अनुसार, तालिबान लड़ाकों ने कंधार स्थित अज़ीज़ी बैंक जाकर वहाँ काम कर रही नौ महिला कर्मचारियों से वहाँ से चले जाने को कहा।
उन महिलाओं से यह भी कहा गया कि वे लौट कर यहाँ न आएं। इतना ही नहीं, ये बंदूकदारी लड़ाके उन महिलाओं को उनके घर तक छोड़ आए।
फिर नया तालिबान का शोर क्यों मचा हुआ है? तालिबान के प्रवक्ता लोगों की आँखों में धूल झोंक रहे हैं या उनके लड़ाके उनकी बात नहीं सुन रहे हैं?
पश्तो भाषा के शब्द तालिब का अर्थ होता है छात्र और उसका बहुवचन है तालिबान।
तालिबान सऊदी अरब के पैसे से चलने वाले मदरसों से निकले छात्र थे, जिन्हें बहावी इसलाम की शिक्षा दी जाती थी।
इसलाम की कट्टरपंथी व्याख्या पर आधारित यह शिक्षा अफ़ग़ान बच्चों को इसलाम के लिए जान कुर्बान करने के लिए तैयार तो कर ही रही थी, उनके बीच पश्चिमी सभ्यता संस्कृति के प्रति एक ख़ास किस्म की नफ़रत और ग़ैर-मुसलिमों के प्रति असहिष्णु भी बना रही थी।
यह वह समय था जब अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत संघ के समर्थन से सरकार चल रही थी और वहाँ सोवियत सेना मौजूद थी।
सोवियत संघ के ख़िलाफ़ अफ़ग़ानिस्तान के लोगों को उतारने और उन पर लगातार हमले करते रहने के लिए अमेरिका ने तालिबान का समर्थन ही नहीं किया, उन्हें सैनिक साजो- सामान से लैस किया।
अमेरिका ने सोवियत संघ के ख़िलाफ़ तालिबान का इस्तेमाल किया और अपनी रणनीति में कामयाब रहा।
लेकिन अफ़ग़ानिस्तान से रूसी सैनिकों की वापसी के बाद तालिबान पश्चिमी मूल्यों के प्रतीक और ग़ैर-इसलामी मूल्यों को बढ़ावा देने वाले अमेरिका के भी ख़िलाफ़ हो गए।
साल 1998 में अफ़ग़ानिस्तान के लगभग 90 प्रतिशत हिस्से पर तालिबान का क़ब्ज़ा था।
तालिबान का मुख्य उद्येश्य शरीअत के मुताबिक़ शासन करना हो गया। उन्होंने उन क़ानूनों को सख़्ती से लागू किया जो उनकी नज़र में सही इसलाम था।
पुरुषों को दाढ़ी-मूँछ रखना और महिलाओं को हिजाब पहनना अनिवार्य कर दिया गया, महिलाओं को घर के परिवार के किसी पुरुष के बग़ैर निकलने पर रोक लगा दी गई, लड़कियों के स्कूल कॉलेज बंद कर दिए गए, महिलाओं को नौकरी करने पर प्रतिबंध लगा दिया गया, चोरी करने पर हाथ काटने और अवैध रिश्तों पर पत्थर मार मार कर मौत की सजा देने का प्रावधान लागू कर दिया गया।
साल 1996 में हुए एक मामले में एक बार एक साथ 226 महिलाओं को घेर कर बुरी तरह पीटा गया क्योंकि उन्होंने तालिबान के ड्रेस कोड का उल्लंघन किया था।
लेकिन 9/11 को अमेरिका के ट्विन टॉवर पर हुए आतंकवादी हमले ने पूरा समीकरण बदल दिया जब वाशिंगटन ने इस हमले के लिए सऊदी मूल के ओसामा बिन लादेन को ज़िम्मेदार माना जो अफ़ग़ानिस्तान में छुपा बैठा था। वह आतंकवादी संगठन अल क़ायदा का सरगना था।
विशेषज्ञों का कहना है कि अल क़ायदा कभी भी तालिबान के बहुत नज़दीक नहीं था, दोनों के बीच कई मुद्दों पर वैचारिक समानता थी तो कुछ मुद्दों पर तीखे मतभेद भी थे।
लेकिन तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने जब तालिबान को चेतावनी दी कि वह अल क़ायदा के ओसामा बिन लादेन को उन्हें सौंप दे और दूसरे लड़ाकों को अपने देश से निकाल दे तो तालिबान ने ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया।
तालिबान प्रमुख मुल्ला उमर ने ओसामा को सौंपने और अल क़ायदा लड़ाकों को खदेड़ने से यह कह कर इनकार कर दिया कि वे इतिहास मे ऐसे व्यक्ति के रूप मे याद किया जाना पसंद नहीं करेंगे जो अपने शरणागत को बाहर निकाल दे।
जॉर्ज बुश ने अपनी सेना अफ़ग़ानिस्तान भेज दी, जिसने तालिबान प्रशासन को उखाड़ फेंका।
मुल्ला उमर छिपते रहे और समझा जाता है कि 2013 में ज़ाबुल में एक अमेरिकी ड्रोन हमले में उनकी मौत हो गई।
मुल्ला उमर के बाद मुल्ला अख़्तर मंसूर तालिबान के सरगना बने। लेकिन उनके नेतृत्व को मुल्ला उमर के बेटे मुहम्मद याक़ूब ने चुनौती दी।
एक अमेरिकी ड्रोन हमले में 2016 में मुल्ला अख़्तर मंसूर मारे गए।
तालिबान के शरीआ अदालत के प्रमुख हबीतुल्लाह अखुंदज़दा ने मंसूर की जगह ली।
मुल्ला मंसूर या हबीतुल्लाह अखुंदज़दा कभी किसी टेलीविज़न चैनल पर नहीं आए या उनकी तक़रीर या अमेरिका को चुनौती देने वाला एलान कभी टेलीविज़न चैनल पर नहीं सुना गया, इसलिए इन दोनों नेताओं के बारे में तालिबान पर नज़र रखने वाले पत्रकारों और विशेषज्ञों को भी बहुत कम मालूम है।
हबीतुल्लाह अखुंदज़दा के दो सहयोगी हैं-सिराज़ुद्दीन हक्क़ानी और मुहम्मद याक़ूब।
सिराजुद्दीन हक्क़ानी ने बाद में हक्क़ानी नेटवर्क का गठन कर लिया, जिसमें विदेशों से आए आतंकवादी बड़ी तादाद में थे। नेटवर्क के पाकिस्तान, सऊदी अरब और अल-क़ायदा से गहरे रिश्ते थे।
मुहम्मद याक़ूब का भी बहुत प्रभाव था और वे तालिबान की सेना के प्रमुख थे। उन्हें हाल फिलहाल हटा दिया गया और इब्राहिम सद्र ने उनकी जगह ली।
'इंडियन एक्सप्रेस' ने लंदन के रॉयल सर्विसेज इंस्टीच्यूट के अंतोनियो गिस्तोत्ज़ी के हवाले से कहा है कि याक़ूब और मुल्ला अब्दुल बरादर उदार तालिबान का प्रतिनिधत्व करते हैं।
अमेरिका के साथ दुबई में हुई बातचीत में इन दोनों ने ही भाग लिया था।
पश्चिमी देशों के विशेषज्ञों का कहना है कि अंतरराष्ट्रीय स्वीकृति मिलने और जनता के बीच काम करते रहने के बाद तालिबान के रवैए में बदलाव आया है। वे आधुनिक शिक्षा, प्रौद्योगिकी और मीडिया को स्वीकार करने लगे हैं। वे मानवाधिकारों को भी समझने लगे हैं।
विशेषज्ञों का कहना है कि नया तालिबान इसलामी मूल्यों को लेकर चलने के बावजूद महिलाओं, ग़ैर-मुसलमानों और आधुनिक शिक्षा के मुद्दों पर पहले की तरह कट्टर नहीं होगा। वह पश्चिमी मूल्यों का पोषक न सही, पर पहले की तरह कट्टरपंथी भी नहीं होगा।
यही वजह है कि जब तालिबान ने कहा कि वह महिलाओं की नौकरी, उनकी शिक्षा और हिजाब में उनके बाहर निकलने पर पाबंदी नहीं लगाएगा और इसलामी मूल्यों के आधार पर मानवाधिकारों का सम्मान करेगा तो पश्चिम के लोगों ने उन पर भरोसा किया।
विशेषज्ञों का मानना है कि पहले तालिबान ग़ैर मुसलमानों पर छापामार हमले करने को अपना मक़सद मानते थे, पर अब वे शासन चलाना चाहते हैं। इस कारण वे लचीला रुख अपना रहे हैं और खुद को बदल रहे हैं।
पहले तालिबान स्थानीय स्तर पर गुटों में बंटा हुआ था और स्थानीय कमान्डर ही तमाम फ़ैसले लेता था। पर अब एक केंद्रीय नेतृत्व है और यह नेतृत्व उदार है। इसलिए स्थानीय स्तर पर उदार रवैया अपनाए जाने की संभावना है।
लेकिन विशेषज्ञों का एक दूसरा समूह यह भी मानता है कि तालिबान का यह उदार चेहरा सिर्फ दिखाने और लोगों की सहानुभूति हासिल करने के लिए है।
तालिबान प्रवक्ता सुहैल शाहीन ने अल ज़ज़ीरा से कहा कि 'महिलाओं को हिजाब पहनना होगा, इसके साथ वे चाहें तो घर के बाहर निकलें, दफ़्तरों में काम करें या स्कूल जाएं, हमें कोई गुरेज नहीं होगा।'
एंकर के यह पूछे जाने पर कि 'क्या हिजाब का मतलब सिर्फ सिर ढंकने वाला हिजाब है या पूरे शरीर को ढकने वाला बुर्का' तो प्रवक्ता ने कहा कि 'सामान्य हिजाब ही पर्याप्त होगा।'
पर ज़मीनी सच्चाई यह है कि तालिबान के लड़ाके बैंक जाकर महिलाओं को निकाल रहे हैं और उन्हें उनके घर तक छोड़ कर आ रहे हैं। हद तो यह है कि उन विज्ञापनों को हटाया जा रहा है जिन पर महिलाओं की तसवीरें हैं।
तालिबान का असली स्वरूप क्या होगा और 'नया तालिबान' वास्तव में क्या है, यह जल्द ही पता चल जाएगा। शुरुआती संकेत निश्चित तौर पर अच्छे नहीं हैं, पर तालिबान को थोड़ा समय दिया जाना चाहिए और पैर जमाने के बाद वे क्या करते हैं, इसका इंतजार करना चाहिए।
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