दुनिया भर के मानवाधिकार संगठन अफ़ग़ानिस्तान में आर्थिक संकट के कारण गंभीर मानवीय संकट की चेतावनी दे रहे हैं। समझा जाता है कि सरकार गठन में जितनी ज़्यादा देरी होगी वह संकट और बढ़ता जाएगा। यह संकट व्यक्तिगत आज़ादी और अधिकार का ही नहीं होगा, बल्कि करोड़ों लोगों के भूखे रहने का संकट होगा। यह कुपोषण का संकट होगा और सरकार की आर्थिक बदहाली का संकट होगा। तो क्या सरकार गठन के बाद यह संकट ख़त्म हो जाएगा? क्या दुनिया भर की सरकारें इसको मान्यता दे देंगी, आर्थिक सहायता देंगी और सरकार सामान्य कामकाज करने लगेगी? यह इतना आसान भी नहीं लगता है।
हालाँकि सरकार गठन के बाद एक प्रक्रिया शुरू हो जाएगी और आर्थिक गतिविधियों के लिए कुछ हलचल होगी। मौजूदा हालात ये हैं कि तालिबान द्वारा 15 अगस्त को काबुल पर भी कब्जा किए जाने के बाद से दो हफ़्तों में देश की आर्थिक हालत ख़राब होती गई है। तालिबान को पैसे की सख़्त ज़रूरत है। अफ़ग़ान सरकार के 9.5 बिलियन डॉलर के जो रिजर्व भी अमेरिकी बैंकों में पड़े हैं उसको अमेरिका ने फ्रीज कर दिया है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भी अफ़ग़ानिस्तान को आपातकालीन निधि तक पहुँचने से रोक दिया है।
संयुक्त राष्ट्र ने कुछ दिनों पहले ही कहा है कि अफ़ग़ानिस्तान की लगभग आधी आबादी यानी क़रीब 1.8 करोड़ लोगों को जीवित रहने के लिए मानवीय सहायता की ज़रूरत है। इस महीने के अंत में खाद्य भंडार समाप्त होने की आशंका है। इसने यह भी कहा है कि क़ीमतें आसमान पर हैं और कर्मचारियों को सैलरी नहीं मिल रही है।
'रायटर्स' की रिपोर्ट के अनुसार, तालिबान द्वारा नियुक्त केंद्रीय बैंक के नये प्रमुख ने बैंकों को यह आश्वस्त करने की मांग की है कि तालिबान पूरी तरह से काम करने वाली वित्तीय प्रणाली चाहते हैं। हालाँकि इस बारे में बहुत कम जानकारी दी गई है कि अर्थव्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए ज़रूरी लिक्विडिटी यानी तरलता कैसे लाई जाएगी।
रिपोर्ट के अनुसार, रेटिंग एजेंसी फिच ग्रुप की शोध शाखा फिच सॉल्यूशंस की एक रिपोर्ट में विश्लेषकों ने कहा है कि अफ़ग़ानिस्तान के सकल घरेलू उत्पाद के इस वित्तीय वर्ष में 9.7% सिकुड़ने का अनुमान है।
फिच ने कहा है कि अधिक आशावादी दृष्टिकोण का समर्थन करने के लिए विदेशी निवेश की आवश्यकता होगी। फिच ने यह उम्मीद इस संभावना में जताई है कि चीन और संभावित रूस जैसी कुछ प्रमुख अर्थव्यवस्थाएँ तालिबान को वैध सरकार के रूप में स्वीकार करेंगी।
तालिबान के साथ एक बड़ी दिक्कत यह है कि इसका अतीत इसका पीछा नहीं छोड़ता है। तालिबान अब तक जिन आर्थिक स्रोतों पर निर्भर रहा है उसको न तो अंतरराष्ट्रीय संस्थाएँ स्वीकार करेंगी और न ही पश्चिमी देश। वह अधिकतर अफीम यानी नशीली पदार्थों की तस्करी पर निर्भर रहा है। पाकिस्तान स्थित फ्रंटियर पोस्ट के एक विश्लेषण में कहा गया है कि तालिबान 'अफीम व हेरोइन की तस्करी और अपने नियंत्रण वाले क्षेत्रों पर लगाए गए करों' के माध्यम से सालाना क़रीब डेढ़ अरब डॉलर यानी क़रीब एक ख़रब भारतीय रुपये के बराबर जुटाता है।
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मई में संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि तालिबान की वार्षिक आय 300 मिलियन डॉलर और 1.6 बिलियन डॉलर के बीच थी। फ्रंटियर पोस्ट की रिपोर्ट के अनुसार, तालिबान भले ही दावा करता रहा है कि उसने अफीम से कमाई करना बंद कर दिया है लेकिन संयुक्त राष्ट्र ने ही कहा था कि अफ़ग़ानिस्तान में अफ़ीम की खेती पिछले साल की तुलना में 37 फ़ीसदी बढ़ गई थी।
पोलिटिको की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2020 में अफ़ग़ान किसानों द्वारा उत्पादित अफीम 90 प्रतिशत से अधिक अवैध वैश्विक आपूर्ति और ब्रिटेन के बाज़ार के 95 प्रतिशत के लिए ज़िम्मेदार है।
चूँकि अब तालिबान सरकार में आने वाले हैं इसलिए वे अब अफीम पर निर्भर नहीं रह सकते हैं और इसलिए वे आय के दूसरे स्रोत ढूंढ रहे हैं।
इस तरह के आर्थिक संकट से उबरने के लिए ही तालिबान अपनी उदार छवि पेश करने की कोशिश में है। लेकिन सवाल है कि तालिबान के लिए उदार छवि पेश करना क्या एक बड़ी चुनौती से कम होगा? ऐसा इसलिए कि तालिबान का अस्तित्व ही कट्टरता व दकियानूसी सोच पर टिका है, वे महिलाओं की आज़ादी के पक्षधर नहीं हैं। यदि वे इस तरह के बदलाव करेंगे तो संभव है कि उन्हें अंदरुनी तौर पर ही विरोध का सामना करना पड़े।
बहरहाल, अब तालिबान के सामने चुनाव करने की चुनौती है। यह चुनाव उसको इस तौर पर करना है कि वे अपनी उदार छवि पेश करेंगे या फिर अपने अतीत की राह पर ही चलेंगे?
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