फ्रांस उबल रहा है। मुसलिम देश बेचैन हैं। अब चिंता की बात पूरी दुनिया के लिए है। फ्रांस और मुसलिम देश एक-दूसरे के ख़िलाफ़ आ गए हैं। दोनों के अपने-अपने तर्क हैं- अभिव्यक्ति की आज़ादी का और धार्मिक भावनाएँ आहत होने का। इसकी शुरुआत शार्ली एब्दो के कार्टून से हुआ था। यह एक फ्रांसीसी व्यंग्य छापने वाली साप्ताहिक पत्रिका है। इसने मुहम्मद साहब का कार्टून छापा था। क़रीब 9 साल पहले इस कार्टून के छपने का विवाद हिंसा का रूप ले चुका है। ऐसा लगता है कि अब इसलाम और ईसाई धर्म आमने-सामने आ गए हैं। आख़िर यह विवाद क्या है? क्या फ्रांस का अभिव्यक्ति की आज़ादी का तर्क सही है? क्या शार्ली एब्दो जानबूझकर मुहम्मद साहब का कार्टून छाप कर विवाद पैदा कर रहा है? फ्रांस में किस तरह की व्यवस्था है?
पत्रकार एवं फ़िल्मकार निहारिका फ्रांस में लंबे समय से रहती हैं और फ्रांस के समाज, देश और संस्कृति को अच्छी तरह से जानती हैं। वह कहती हैं कि पूरे मामले को समझने के लिए शार्ली एब्दो और फ्रांस की प्रकृति को समझना होगा।
वह कहती हैं कि फ्रांस में यह पहली बार नहीं हो रहा है। 2012 में यह हो चुका है। 2011 में शार्ली एब्दो ने मुहम्मद साहब के कार्टून छापे थे। अब फिर से यह विवाद तब बढ़ा जब इतिहास के एक प्रोफ़ेसर ने अभिव्यक्ति की आज़ादी पर लेक्चर देने के दौरान शार्ली एब्दो के कार्टून दिखाए। इसके बाद क्लास से निकलते ही प्रोफ़ेसर की हत्या कर दी गई।
निहारिका इशारों में कहती हैं कि फ्रांस में जो व्यवस्था है उसकी झलक राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों के बयान में मिल जाता है। मारे गए शिक्षक के अंतिम संस्कार में फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रों ने कहा कि देश में हर व्यक्ति को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। उन्होंने कहा कि हम किसी भी तरह के कार्टून और डिज़ाइन पर रोक नहीं लगाएँगे, यह देश का क़ानूनी अधिकार है।
फ़्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने साफ़ किया कि वह कार्टून और डिज़ाइन का त्याग नहीं करेंगे और संगीत, साहित्य, कला, व संस्कृति को लगातार इसी तरह आगे बढ़ाते रहेंगे जिस तरह से फ्रांस की संस्कृति रही है।
शार्ली एब्दो का स्वभाव
निहारिका कहती हैं कि शार्ली एब्दो का स्वभाव उत्तेजक है। यह घोर वामपंथी पत्रिका है। यह एक साप्ताहिक पत्रिका है। इसमें इसी तरह की उत्तेजक सामग्री छपती रही है। इसमें न सिर्फ़ इसलाम के लिए बल्कि कैथोलिक के लिए भी ऐसी ही सामग्री छपती रही है और मज़ाक़ भी उड़ाया जाता रहा है। जबकि फ्रांस ख़ुद एक कैथोलिक देश था। वह कहती हैं कि शार्ली एब्दो ने जब एक ख़ास समुदाय को लेकर सामग्री छापी तो इस पर बहस शुरू हुई कि आख़िर अभिव्यक्ति की आज़ादी और आक्रामकता की आज़ादी की हद क्या हो।
निहारिका कहती हैं कि फ़्रांस में टीवी, रेडियो पर इस पर चर्चाएँ बहुत आम हुईं और लोगों ने उन्हें सुना और खुले दिल से सुना। लेकिन इस पर पूर्ण विराम तब लग गया जब 12 लोगों को मारा गया। वह कहती हैं कि फिर जो लोग किसी की भावनाओं के ख़िलाफ़ कार्टून बनाने के पक्ष में नहीं थे वे भी शार्ली एब्दो के पक्ष में हो गए। 12 लोगों की हत्या के बाद यह सिर्फ़ फ्रांस में ही नहीं हुआ बल्कि पूरे विश्व भर में ऐसा हुआ और शार्ली एब्दो के पक्ष में लोग खड़े हो गए। यह मुहिम चली कि यदि यह इसका परिणाम है तो हम डरेंगे नहीं। यह इसका एक संदेश था।
वह कहती हैं,
‘आपको छूट है कि आप प्रदर्शन करिए, धरने पर बैठिए, कोर्ट में जाइए। जैसा कि पहले हुआ। 2011-12 में जब शार्ली एब्दो ने मुहम्मद साहब के कार्टून छापे थे और विश्व भर में इस पर प्रतिक्रिया हुई। यहाँ की जो मुसलिम सोसायटी है वह कोर्ट में गई। कोर्ट केस के बाद जो उस समय के राष्ट्रपति जाक शिराक थे उन्होंने कहा कि उत्तेजना वाली ऐसी कोई भी चीज किसी को नहीं छापनी चाहिए या बनानी चाहिए जो किसी व्यक्ति के विश्वास को, विशेषकर, धार्मिक भावनाओं को आहत करती हो।’
लेकिन सारकोजी और फ्रांस्वा ओलां जैसे लोगों ने अभिव्यक्ति की आज़ादी का समर्थन किया और कहा कि हम चाहते हैं कि हर किसी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की पूरी छूट मिले। यानी वे शार्ली एब्दो के पक्ष में खड़े दिखे थे। निहारिका कहती हैं कि लेकिन उन्हीं सारकोजी के बेटे का उसी शार्ली एब्दो पत्रिका ने बहुत वल्गर कार्टून छापा। इसके लिए पत्रिका के मालिक ने उस प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट को नौकरी से निकाल दिया। इसके लिए कार्टूनिस्ट कोर्ट में गए और वह कोर्ट में केस जीते। शार्ली एब्दो वह केस हारा और कार्टूनिस्ट को बाक़ायदा कोर्ट से मुआवजा दिया गया। कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में कहा कि यह उनकी अभिव्यक्ति की आज़ादी है कि वह किसी भी तरीक़े का कार्टून बनाएँ और शार्ली एब्दो उन्हें छापे।
यह सब उस फ्रांस में हो रहा है जहाँ समता, समानता और स्वतंत्रता को बड़ा मूल्य माना जाता है।
निहारिका कहती हैं कि फ्रांस में इस वक़्त कुल 37 फ़ीसदी ऐसे लोग हैं जो भगवान में विश्वास रखते हैं। इसमें सभी धर्मों के लोग शामिल हैं। 35 फ़ीसदी हैं जो भगवान को नहीं मानते हैं। 15 अज्ञातवादी हैं। 7 फ़ीसदी लोग तय नहीं कर पाते हैं कि वह भगवान को मानते हैं या नहीं मानते हैं। बाक़ी लोग अन्य मतों के हैं।
वह कहती हैं कि फ्रांस एक ऐसा देश था जो पूरी तरह कैथोलिक था। 68-69 में जब सामाजिक सुधार हुआ उसके बाद पूरा चेहरा ही बदल गया। 69 तक स्कूलों में कैथोलिक धर्म पढ़ाया जाता था। धर्म की कक्षाएँ चलाई जाती थीं। बाकायदा वहाँ बाइबल की शिक्षा दी जाती थी।
वह कहती हैं कि इसी फ्रांस में का एक नारा है- स्वतंत्रता, भाईचारा और समानता। संविधान में लिखा है कि आप किसी भी सार्वजनिक और सरकारी जगह पर धार्मिक चिह्न का प्रयोग नहीं कर सकते हैं। इसी के तहत बुर्के पहनने और पगड़ी पहनने पर रोक लगी।
वह कहती हैं कि फ्रांस के संविधान में साफ़-साफ़ लिखा हुआ है कि समानता को बनाए रखना चाहते हैं तो धर्म को देश से अलग रखना होगा। वह ज़ोर देकर कहती हैं कि हाल में जब एक बड़े गायक का निधन हुआ तो उनके शव को चर्च में ले जाया गया। सभी लोगों ने चर्च के अंदर डिस्कोर्स (संबोधन) दिया लेकिन फ्रांस के राष्ट्रपति एमैनुएल मैक्रों ने चर्च के बाहर से डिस्कोर्स (संबोधन) दिया क्योंकि सिंगर को देश की प्रॉपर्टी मानी गई और देश के राष्ट्रपति चर्च के अंदर नहीं गए।
वह कहती हैं कि ऑरिजिन मुसलिम को छोड़ दें तो फ्रांस में क़रीब 40 लाख मुसलिम हैं। देश में जो मुसलिमों की कुल जनसंख्या है उसमें 30 फ़ीसदी लोग मसजिद जाते हैं, नमाज पढ़ते हैं। बाक़ी लोग ऐसा नहीं करते हैं।
देश में क़रीब 70 फ़ीसदी लोग धर्म पर विश्वास नहीं के बराबर करते हैं। धर्म को मानने वाले लोगों की संख्या बहुत कम है।
निवेदिता एक घटना के बारे में ज़िक्र करती हैं और कहती हैं, "हम सब खाना खा रहे थे। मेरी एक दोस्त जो कैथोलिक हैं, घोर कैथोलिक, हर बात में तीन-चार बार बोली- 'अब तो भगवान ही मालिक है', 'भगवान ही ठीक करेगा'। दूसरे एक दोस्त ने उसे डाँटा कि 'अपनी बेवकूफियाँ बंद करो'। लेकिन यही बात यदि किसी इसलामिक व्यक्ति से कही जाती है तो एक तरह का यह एग्रेशन हो जाता है। लेकिन यहाँ टेबल पर यह आम बात है। इस समाज में। मैं जिस संस्था में काम करती हूँ वह एक कैथोलिक संस्था है और वहाँ आने वाले ज़्यादातर लोग मुसलमान हैं।”
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