जानना या मानना? इंसान होने की शर्त क्या है? किसी ने कहा, मैं सोचता हूँ, इसलिए मैं हूँ। यानी, इंसान होने का मतलब है सोचने की ताक़त। लेकिन क्या सोचना इतना आसान है? क्या वह अपनेआप ही हो जाता है? जैसे हम साँस लेना सीखते नहीं, वैसे ही? थोड़ा सोचने पर हमें मालूम होता है कि किसी भी विषय पर सोचने के लिए ज़रूरी है उसके बारे में जानना। सिर्फ़ उस विषय के बारे में ही नहीं, उसके दूसरे विषयों से रिश्ते के बारे में भी। इसके मायने यह हुए कि सोचनेवाले हमसे पहले भी हुए हैं और हमारे साथ भी हैं, इस बात को ध्यान में रखकर और उनसे लगातार संवाद करते हुए ही हम सोचने का काम कर सकते हैं।
यह कहा जाता है कि इंसान दरअसल ज़मीन पर नहीं खड़ा होता, वह खड़ा होता है अपने पूर्वजों के कंधों पर, जो अपने पूर्वजों के कंधों पर खड़े हैं। इसलिए जब अपनी ऊँचाई का घमंड होने लगे तो सिर्फ़ यह सोच लें हम कि अगर पूर्वजों ने अपने कंधे हटा लिए तो फिर हम धड़ाम से गिर न पड़ेंगे!
इसीलिए जानना इंसान होने की शर्त है। कुछ की समझ है कि आधुनिक युग का नारा ही है, ‘जानना पड़ेगा!’ वे कहते हैं कि आधुनिक होने के पहले के मनुष्य को कहा गया, ‘मानना पड़ेगा।’ लेकिन जिसे मध्य युग कहते हैं और आधुनिक युग से अलग करते हैं उसमें भी तो मनुष्य जिज्ञासारहित न था। वरना ज्ञान का कारोबार सबका सब उसी वक़्त शुरू होता जिसे हम आधुनिक या अपना ज़माना कहते हैं।
जानना मेहनत का काम है लेकिन उसमें मज़ा भी आता है। प्रोफ़ेसर यशपाल की भाषा में बात करें तो असल चीज़ है जानने का चस्का लगना। एक बार जानने की लत लग गई तो फिर वह छूटती नहीं।
जानना हमेशा से था, लेकिन जानना सबके लिए ही ज़रूरी है बल्कि वह सबका हक़ है, यह बात ज़रा नई है। कह सकते हैं, यह जनतंत्र की ख़ासियत है। जन होने के लिए जानना अनिवार्य है। क्योंकि जनतंत्र चलता है जन के फ़ैसले से। वह जब चुनाव में वोट देता है तो एक फ़ैसला करता है। देश कैसे चलेगा, समाज कैसे रहेगा, यह उसके वोट से तय होता है। अगर हर किसी को वोट देना है तो सबको ही सोचना है। यह नहीं कि बिरादरी का सरदार सोच ले या कोई ज्ञानी सोचकर बता दे और बाक़ी सब उसके कहे पर वोट दे आएँ। हर किसी को अपने लिए, अपने तौर पर ख़ुद सोचना है। और यह कितने मज़े की बात है कि हमारा अकेले सोचना बाक़ी सबके सोचने के साथ जुड़ा हुआ है। आप सोचें और बाक़ी सब भजन करें तो फिर आपका सोचना बेकार! कहते हैं न, ‘अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता।’
वैज्ञानिक सोच के लिए सज़ा
सोचने का इतिहास देखें तो पाते हैं कि जानना और फिर सोचना और उसके आधार पर कुछ कहना इतना भी सामाजिक काम नहीं है। एक ही हुआ, जिसने कहा कि पृथ्वी चपटी नहीं, गोल-सी है। एक ही था जिसने बताया कि धरती के चारों और हर चीज़ नहीं घूमती, यह धरती बाक़ी कई ग्रहों में एक ही है,और वह चक्कर काट रही है सूर्य के चारों ओर।
इस जानने का बाक़ियों ने मज़ाक़ उड़ाया और इसके लिए सज़ा भी मिली ऐसा जानने और सोचनेवालों को। लेकिन वह जो एक का जाना और सोचा हुआ था, वह लुप्त नहीं हुआ। जिस सर्वज्ञानी चर्च ने इस कुफ़्र के लिए सज़ा सुनाई थी, उसने सैंकड़ों साल बाद माना कि उसने ग़लती की थी सज़ा देकर। तो जानना और सोचना मेहनत का काम तो है ही, ख़तरे का भी है।
यह ख़तरा उठाते हुए हमारे पूर्वजों ने जानना जारी रखा। लेकिन जैसा हमने कहा, यह बिलकुल नई और हाल की बात है कि सबको ही जानना और सोचना है। इसमें उनकी मदद करने का काम इसलिए सरकार का काम माना जाता है। स्कूल खोलकर, कॉलेज और विश्वविद्यालय स्थापित करके, अख़बार और किताबें छापकर। सरकार तो यह करती है, बाक़ी संस्थाएँ भी करती हैं।
सरकार के साथ एक दिक़्क़त यह है कि उसे यह लालच हो सकता है कि जनता उसकी सुविधा से सोचे, ऐसे कि उसे कोई बाधा न हो। इसलिए सरकार हो सकता है, जानने और सोचने में जितनी मदद कर रही हो, वह जितना जनता के लिए हो, उससे ज़्यादा अपने लिए हो। स्कूल की किताबें बताती तो हैं लेकिन छिपाती भी हैं। इसीलिए इस जानने के काम को सरकार के नियंत्रण से बाहर करने की कोशिश आधुनिक समाज में होती रही है।
किताबें और ज्ञान
भारत के अंग्रेज़ों से आज़ाद होने के बाद जो उत्साह था, वह जानने, सोचने, बताने के इलाक़े में भी दीखता है। उस वक़्त के कुछ बेहतरीन दिमाग़ अपना वक़्त लगाते हैं, बच्चों को जानने और सोचने में सहायता करने में। प्रख्यात दार्शनिक देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय के नेतृत्व में बांग्ला में एक शृंखला तैयार की जाती है, 1954 में, ‘जानबार कथा’ शीर्षक से। दर्शन, इतिहास, भाषा और साहित्य, कला, अर्थनीति, समाज, विज्ञान के बारे में छोटी-छोटी किताबें लिखी जाती हैं। और बांग्ला की पड़ोसी हिंदी में कोई एक दशक बाद हंस कुमार तिवारी इनका अनुवाद ‘जानने की बातें’ शीर्षक से करते हैं।
पिछली सदी के साठ के दशक में राजकमल प्रकाशन ने इस शृंखला को छापा। हमारे बाबूजी जब भी सिवान से बाहर जाते, किताबें ज़रूर लाते। ये किताबें भी इसी तरह हम भाइयों और बहन के पास पहुँचीं। सालों साल शहर और मकान बदलते साथ घूमती रहीं। एक-एक करके खंड भी गुम होते गए। दिल्ली पहुँचने के बाद भाषा और साहित्य वाले बचे दीमक खाए खंड को लेकर राजकमल प्रकाशन के कर्ता अशोक माहेश्वरी से मिला। फिर से छापने का अनुरोध किया। उन्होंने अनुरोध माना।
यह शृंखला अंग्रेज़ी की मध्यस्थता के बिना दो भारतीय भाषाओं का ज्ञान का संवाद है।
थैलिस को पहले वैज्ञानिक का दर्जा क्यों?
यह आज़ादी के समय का उत्साह है जो इन किताबों में छलक-छलक पड़ता है। इनकी भाषा ज्ञान के बोझ से दबी हुई नहीं है। बल्कि यह उच्छल भाषा है। इन किताबों को पढ़ते हुए और पढ़ते जाने का ही मन करता है। जैसे ‘दर्शन’ वाले खंड का यह हिस्सा पढ़िए जिसमें इस पर चर्चा है कि थैलिस को पहला दार्शनिक क्यों कहते हैं। क्या सूर्य ग्रहण का ठीक ठीक हिसाब लगाने के लिए? यह तो पुरोहितों को भी पता था:
“सूरज ग्रहण कब होगा, किस समय होगा, उन्हें भी इसका हिसाब लगाने आता था। फिर भी ग्रहण क्यों होता है, यह तब के पुरोहित बिलकुल नहीं जानते थे। उनके लिए यह सब देवताओं के कारनामे थे, सब कुछ अलौकिक घटना थी। सूरज ग्रहण देखकर वे यही समझते थे कि अँधेरे के किसी दुष्ट देवता ने आसमान पर धावा बोल दिया है। शंख फूँककर, मंतर पढ़कर, उपवास करके उसे संतुष्ट करना चाहिए। सो जब तक ग्रहण लगा रहता, धरती के लोग मारे डर के सूखकर काँटा बने रहते।
लेकिन... थैलिस ने ग्रहण लगने का केवल दिन समय ही नहीं बता दिया था बल्कि यह भी ...कि ग्रहण लगने से देवता का तनिक भी लगाव नहीं है।
इस तरह लौकिक संसार को महज़ लौकिक संसार समझने की राह खोल देने के कारण ही थैलिस को संसार के पहले वैज्ञानिक की मर्यादा मिली।”
थैलिस को जितनी जानकारी थी, आज उससे कहीं ज़्यादा है। सूरज ग्रहण के बारे में आज के विज्ञान से थैलिस की बात पूरी नहीं मिलती। फिर भी वे क्यों पहले दार्शनिक हैं? अपने पहले के पौराणिक समाज से अलग दर्जा उन्हें क्यों है? किताब कहती है,
पहली बात तो यह कि दोनों में पूरी दुनिया की व्याख्या खोजने की है। लेकिन थैलिस का गौरव मनुष्य को एक नई राह दिखलाने का है। कौन-सी राह?
“जितने कुछ के बारे में मनुष्य को साफ़ अनुभव ही रहा है, उतने पर ही निर्मल बुद्धि से विचार करके पूरी दुनिया की व्याख्या करने की कोशिश वह करेगा। ...नित-नए अनुभव को और भी अच्छे से अच्छे तरीक़े से विचार करते हुए मनुष्य साथ को धीरे-धीरे और स्पष्ट पहचानेगा।”
एक बार जान लिया हुआ आख़िरी नहीं। जानना नित का काम है, जानना धीरे-धीरे ही होता है, एकबारगी नहीं। अपने ऊपर विश्वास ज़रूर हो, लेकिन अपने जाने हुए की जाँच करते चलने की विनम्रता के बिना जानने का व्यापार सम्भव नहीं।
‘जानने की बातें’ भी सत्य को जानने के लिए निर्मल बुद्धि से विचार करके लिखी गई हैं। इनके लिखे 60 साल हो गए हैं। जानकारियाँ बढ़ी हैं, हमारी निगाह भी और फैली है। लेकिन इन किताबों में इंसान, प्रकृति, इंसानी दुनिया को लेकर जो उत्सुकता है, उसके प्रति जो लगाव है, और जानने से जानने की राह खोलने की जो कोशिश है, वह अभी भी उतनी ही ताज़ा है। इन किताबों को पढ़कर मन ख़ुश होता है तो थोड़ा उदास भी हो जाता है कि क्यों हमारे स्कूल की किताबें इतने मज़े से बच्चों से बात नहीं कर सकतीं!
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