यह इत्तेफ़ाक़ ही था कि मिखाईल गोर्बचेव के निधन के ही समय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी लेनिनवादी) की नेता कविता कृष्णन ने पार्टी के पदों से अलग होने की सूचना सार्वजनिक की। इसका कारण व्यक्तिगत नहीं था। न ही पार्टी की कार्यशैली को लेकर कोई आपत्ति थी। इसका कारण कविता को अपने वैचारिक सवालों से जूझने के लिए पर्याप्त स्वतंत्र अवकाश की ज़रूरत था। इस प्रसंग में सबसे आश्चर्यजनक लेकिन स्वागतयोग्य बात थी पार्टी का उनके निर्णय को लेकर सम्मानपूर्ण रवैया।
कविता कृष्णन के सवालों पर क्यों नहीं होना चाहिए विचार?
- वक़्त-बेवक़्त
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- 5 Sep, 2022

कविता ने यह ग़लत नहीं कहा कि पूँजीवादी जनतंत्र की सारी ख़ामियों के बावजूद स्वीकार करना चाहिए कि साम्यवादी तानाशाहियाँ उनके मुक़ाबले कहीं अधिक दमनकारी और जनविरोधी थीं। उनके आगे साम्यवादी विशेषण लग जाने से उनके पाप धुल नहीं जाते।
हालाँकि पार्टी ने कविता को प्राथमिक सदस्यता से भी मुक्त कर दिया जो वे बनाए रखना चाहती थीं। लेकिन पार्टी ने उनके निर्णय के अधिकार को स्वीकार किया। इसके बाद कविता पर वामपंथी दलों, ख़ासकर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के सदस्यों की तरफ़ से हुए अपमानजनक आक्रमण की भी सीपीआई (एमएल) ने भर्त्सना की। वह उसे चुपचाप देखती नहीं रही।
आज भारत में जिस तरह की कटु और विषाक्त राजनीतिक संस्कृति के हम आदी हैं, उसमें यह सब कुछ किसी और दुनिया की ख़बर जैसा ही लगता है। अमूमन पार्टी से अलग होनेवाले पार्टी पर ही आक्रमण करते हैं, अपने निर्णय को सही ठहराने के लिए पार्टी-नेतृत्व की लानत मलामत करते हैं। जवाब में पार्टी भी वैसा ही करती है।