शौकत अली को इसका अफ़सोस है कि वह पहली बार वोट नहीं दे सके। मतदाता पहचान पत्र होने के साथ ही भारतीय शहरी होने का हर सबूत उनके पास है। वह सिर उठाकर हर बार वोट देते आए हैं लेकिन इस बार हिंसा ने उन्हें मतदान के अधिकार से वंचित कर दिया।
चुनाव आयोग के पास इस तरह के एक इच्छुक लेकिन लाचार मतदाता के लिए अलग से कोई प्रावधान नहीं है कि वह उसका मत ले सके। चुनाव आयोग चुनाव के दौरान सबसे ताक़तवर संस्था है लेकिन अगर किसी को मतदान से रोका जाए तो इस अपराध के लिए उसके पास दंड का कोई प्रावधान है या नहीं, इसका हमें पता नहीं।
शौकत अली भारत के नागरिक तो हैं लेकिन उन्हें नागरिकता के कर्तव्य निर्वाह से वंचित किए जाने पर किसी संवैधानिक संस्था की ओर से रोष तो छोड़िए, अफ़सोस का एक लफ़्ज़ भी नहीं सुनाई पड़ा।
‘द टेलीग्राफ़’ अख़बार ने बताया कि शौकत अली की बीवी ने इसके बावजूद मतदान किया। जैसे शौकत के लिए कोई दुःख या सहानुभूति नहीं देखी गई, वैसे ही शौकत की बीवी की इस जीवट के लिए कहीं से अभ्यर्थना का एक शब्द भी न उठा।
लेकिन हमें भारत की ओर से शौकत अली की बीवी का शुक्रिया अदा करना चाहिए। इसलिए कि उन्होंने अपने शौहर के हमलावरों का एक इरादा नाकाम किया। वह इरादा बहुत साफ़ है कि शौकत अली जैसे नामवाले हर शख़्स को अपमानित करके और डरा कर घर में बैठा देना। उन्हें नागरिकता के अधिकार का इस्तेमाल करने से हतोत्साहित करना। यह अहसास दिलाना कि उनके अख़्तियार में किसी तरह जिंदगी जीने के अलावा और कुछ नहीं बचा है। उन्हें सिमट कर रहना है और अपनी सिकुड़ती जा रही जगह में बस पाँव टिकाए रहना है।
नागरिकता देश पर अपना दावा पेश करते रहने और उसके हर प्रसंग में हस्तक्षेप करते रहने से ही निर्मित होती है। और लोकसभा का चुनाव ऐसे हस्तक्षेप का सबसे बड़ा मौक़ा है। तो शौकत अली की बीवी ने अपने पति के घायल होने और अस्पताल में होने के बावजूद अपना यह फ़र्ज़ निभाया। यह कहीं बताया नहीं गया, लेकिन हमें उम्मीद करनी चाहिए कि शौकत के परिवार के बाक़ी सदस्यों ने भी ऐसा ही किया होगा।
इस एक ख़बर से हमारा ध्यान उस हर परिवार और नागरिक की ओर जाना चाहिए जो इस तरह की हिंसा की वजह से विस्थापित होता है और अपने बुनियादी अधिकार, मताधिकार से वंचित कर दिया जाता है। क्या अख़लाक़ का परिवार वोट दे पाया? पहलू ख़ान और अलीमुद्दीन का परिवार वोट दे पाया?
वोट डालना साज़िश है क्या?
क्या चुनाव के इस दौर में हर क़िस्म की अजीबो-ग़रीब कहानियाँ खोजते पत्रकार इसे ख़बर मानते हैं? इसका एक दूसरा पहलू भी है। शौकत की बीवी के वोट देने के बारे में आप यह भी सुन सकते हैं कि अरे, ये मुसलमान कुछ भी हो, वोट ज़रूर डालेंगे! मानो, वोट डालना कोई साज़िश हो। ऐसा कहने के पीछे यह धारणा है कि मुसलमान अपने इस तरह के हर अधिकार को लेकर हिंदुओं के मुताबिक़ अधिक सचेत होते हैं।
बच्चों के एक डॉक्टर ने अपने तजुरबे से बताया कि मुसलमान माएँ अपने बच्चों की सेहत के बारे में हिंदू माओं के मुक़ाबले अधिक सावधान होती हैं। इसके चलते उनके बच्चे अधिक स्वस्थ रहते हैं।
क्या इसके लिए उन मुसलमान माओं की तारीफ़ की जानी चाहिए या इसे मुसलमानों की अपनी तादाद बनाए रखने और बढ़ाने की साज़िश का हिस्सा मानना चाहिए? जो मुझे यह बता रहे थे, वे क़तई साम्प्रदायिक नहीं हैं लेकिन उनके कहने में हिंदुओं की लापरवाही को लेकर एक खीझ तो थी ही। लेकिन यह तुलना ही क्यों? क्या इसमें एक तरह का अफ़सोस है कि मुसलमानों की तादाद बढ़ती जाती है? या, यह कि वे तो इसे लेकर सचेत हैं, हिंदू नहीं।
एक दूसरे व्यक्ति ने बताया कि जब उन्होंने मुसलमानों के बेसहारा बच्चों के आश्रय की जगह को देखा, तो वहाँ सफ़ाई और सेहत को लेकर अधिक सावधानी दिखलाई पड़ी। वे इससे ख़ुश थे और यह बताना चाहते थे कि मुसलमानों के बारे में जो आम राय प्रचारित की गई है, उनका अपना अनुभव उससे ठीक उलट है।
इसके साथ आप बिलकीस बानो के इंसाफ़ के लिए किए गए संघर्ष की याद करें जो उसने सालों-साल लगातार अपनी जगह बदलते हुए और पोशीदा रह कर चलाया और जीत हासिल की। यह भी नागरिकता पर बिलकीस का दावा ही है। आप समझौता एक्सप्रेस मामले में अभियुक्तों के छूट जाने पर मारे गए लोगों के परिजनों के बयान को भी याद करें। वे सरकार के विरोधी रवैए के बावजूद इंसाफ़ हासिल करने के लिए आख़िरी दम तक लड़ने को तैयार हैं।
जुनैद की अम्मा से आप मिलें, वह न सिर्फ़ अपने बेटे के क़त्ल का हिसाब लेना चाहती हैं, बल्कि उस राजनीति को भी परास्त करना चाहती हैं जो जुनैद या अलीमुद्दीन के क़ातिल पैदा करती है।
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