ग़ज़ल फ़ारसी का शब्द है जिसका मतलब होता है ऐसी कविता जिसमें स्त्री की सुंदरता और उसके प्रति प्रेम का वर्णन किया गया हो। लेकिन उर्दू ग़ज़ल ने आरंभ से ही स्त्री की सुंदरता और प्रेम के दायरों को तोड़ दिया। ग़ज़ल लेखकों ने सामाजिक सरोकार से लेकर सत्ता से बग़ावत तक को अपना विषय बनाया।
ग़ज़ल की इसी यात्रा को नाटक “दाखिल ख़ारिज” में समेटने की कोशिश की गयी है। ग़ज़ल की यात्रा शुरू होती है प्रारंभिक लेखक मीर तक़ी मीर, ज़ौक़, और ग़ालिब जैसे लेखकों से।
फ़ैज अहमद फ़ैज, अहमद फ़राज (दोनों पाकिस्तान), फ़िराक गोरखपुरी, साहिर लुधियानवी और मज़ाज लखनवी तक आते आते ग़ज़ल में आम आदमी का दर्द और सत्ता की नाइंसाफ़ी से विद्रोह का स्वर तेज होता जाता है। हालांकि स्त्री और प्रेम की धारा भी बरकरार रहती है। लेखक ईशान पथिक ने इस जटिल यात्रा को काफ़ी बारीकी से समेटने की कोशिश की है।
क़रीब दो सौ सालों में पसरी इस यात्रा को मंच पर उतरना आसान नहीं है। लेकिन निर्देशक साजिदा साज़ी ने बड़ी कुशलता पूर्वक कई पीढ़ियों के सफ़र को सहज ढंग से पेश किया। ख़ास बात ये है कि ट्रेजर आर्ट एसोसिएशन के नव सिखिए कलाकारों ने अपनी क्षमता से कहीं बेहतर प्रदर्शन किया।
कलाकार बिलकुल नए थे इसलिए अभिनय में परिपक्वता की थोड़ी कमी को नज़रअंदाज़ कर दें तो इसे एक बेहतरीन प्रदर्शन कहा जा सकता है। रविशंकर शर्मा का संगीत नाटक की गति के अनुरूप था। साजिदा साज़ी ने प्रस्तुति को इस तरह डिज़ाइन किया था कि पीढ़ियों के फ़ासले को आसानी से समझा जा सके। कलाकारों में अभिमन्यु सिंह राठौर (ग़ालिब), चाहत जैन (फ़ैज़), आदिल सुल्तानी (साहिर) ने अच्छी छाप छोड़ी।
अपनी राय बतायें