एक और नया नेता, एक और नयी पार्टी। भारतीय राजनीति में ये कोई नयी बात नहीं है। अमेरिका और यूरोप की तरह भारत में नए बने नेता पुरानी पार्टियों में अपने लिए जगह बनाने की कोशिश नहीं करते बल्कि सभी पुरानी पार्टियों को ख़ारिज करके नयी पार्टी बना लेते हैं। इसका नतीजा ये है कि चुनाव आयोग में रजिस्टर्ड राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों की संख्या क़रीब साठ से ऊपर हो गयी है। हर नयी पार्टी एक नया सपना दिखाती है। पुरानी पार्टियों को हर समस्या के लिए जिम्मेदार बताती है। और अंततः उन्हीं पुरानी पार्टियों के साथ गलबहियां करके सत्ता सुख का आनंद उठाती हैं। भारतीय राजनीति इस तरह के अनेक उदाहरणों से भरी पड़ी है। एक उदाहरण आम आदमी पार्टी है। सन् 2012 में आम आदमी पार्टी और उसके नेता अरविंद केजरीवाल एक अंतरराष्ट्रीय सनसनी बन कर उभरे। हुंकार ऐसा कि लगा कि जैसे भारत से भ्रष्टाचार का समूल नाश हो जाएगा। लेकिन पिछले दस सालों में जो हुआ उसकी चर्चा बेमानी है। बंगाल में ममता बनर्जी, आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू और तेलंगाना में राजशेखर रेड्डी जैसे कई नेता उम्मीद की नयी किरण बन कर उभरे। लेकिन सालों साल बाद भी हाशिए पर खड़े साधारण आदमी की तकदीर नहीं बदली। ये सब क्यों हुआ इसकी गहरी पड़ताल की ज़रूरत है।